राम नगीना मौर्य

तुमने कहा जो था!

‘‘बडे़ दामाद जी नहीं दिख रहे हैं?’’ आंगन में बैठी मुहल्ले की औरतों में से मिसेज चड्ढ़ा ने पूछा।
‘‘हाँ, उन्हें ऑफिस में किसी जरूरी काम के लिए रोक लिया गया है। उनका अभी प्रमोशन के साथ-साथ नयी जगह पर तबादला भी हो गया है, इसीलिए तुरन्त छुट्टी नहीं मिल सकी है, लेकिन सुनेत्रा बता रही थी कि शादी में जरूर आयेंगे।’’ पड़ोसन मिसेज चड्ढ़ा को सुनेत्रा की माँ ने आश्वस्त किया।
‘‘सुमित्रा, मैंने कल तुम्हारी बहू को बाजार में देखा। वो तो...लो-कट ब्लाउज में एकदम मॉडर्न बहू लग रही थी।’’
‘‘बस्स, पहनावा ही तो मॉडर्न है। मैडम का काम-काज से दूर-दूर तक नाता नहीं। वैसे, ये तुम्हारे दुपट्टे का लेस तो उघड़ा जा रहा है, इसे तुम सिलवा क्यों नहीं लेती ? तुम्हारी बहू तो बहुत गुणी है, उसी से कह देती।’’
‘‘सो तो है। आज जरा जल्दी में थी, ध्यान नहीं रहा, सो यही दुपट्टा ओढ़कर चली आयी। तुमने सही कहा, मेरी बहू सचमुच बहुत गुणी है।’’ बरामदे में तख्त पर बैठी सब्जियां काटते, घर आयी मुहल्ले की महिलाओं और अम्मा की बातें, गपशप सुनते, सुनेत्रा सोच रही थी कि क्या सचमुच ऐसा ही है? सत्यजीत का, यहां उसके चचेरे भाई की शादी के दो दिन पहले तक भी न आने का कारण क्या सिर्फ उनकी पदोन्नति, उनका तबादला और ऑफिस की व्यस्तताएं ही है? या कुछ और कारण हैं, जो मेरे बार-बार अनुरोध करने पर भी शादी में आने को तैयार नहीं हुए...?
घर में शादी की तैयारियां पूरे जोर-शोर से चल रही थीं। सुनेत्रा की तीनों बहनें अपने-अपने पति और बच्चों के साथ हफ्ते-भर पहले से ही यहां मायके में पांव जमाए हुईं थीं। कड़ाके की ठण्ड होने के कारण तीनों दामाद गुनगुनी धूप में ऊपर छत पर चाय-काफी की चुस्कियां भरते, पकौड़ियों पर हाथ साफ करते, गुल-गपाड़ा बतियाने में मस्त-व्यस्त से थे। बीच-बीच में सहारनपुर वाले जीजा जी, जो अपनी आदत के अनुसार हर चुटीली बात पर बड़े जोर से ठहाका लगाते हुए हँसते हैं, का जोरदार अट्टहास भी नीचे आंगन तक सुनाई पड़ जाता।        
सुनेत्रा, यद्यपि मायके में अपने आपको शादी-विवाह के ढ़ेर सारे कामों में व्यस्त रखे हुए थी, परन्तु पूरे समय उसे कहीं-न-कहीं अजीब सा खालीपन, बेगानापन महसूस होता रहा। अम्मा-बाबू भी उससे ठीक ढ़ंग से नहीं बतिया रहे थे। चंूकि शादी-विवाह के घर में बीसों काम, बहत्तरों तरह के बवाल के कारण पूरा परिवार एक अजीब किस्म के तनाव में रहता है। ऐसे में सुनेत्रा की अम्मा, और बेटियों के बजाय, बीच-बीच में अपना गुस्सा सुनेत्रा पर ही निकालतीं। कभी-कभी तो सुनेत्रा को लगता कि अम्मा उसे जान-बूझकर या बेवजह ही दूसरों की गलतियों पर भी ये कहते डांट देती कि...‘‘सुनेत्रा तुम तो बहनों में सबसे बड़ी हो, कम-अज-कम तुम्हें तो जिम्मेदारी का अहसास होना चाहिए। बाकी बेटियांे के साथ आये उनके बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं, सो वो सभी अपने-अपने बच्चों को भी संभालने में व्यस्त हैं। तुम्हारे बच्चे तो बड़े हैं, और शादी में आये भी नहीं हैं, ऐसे में कम-अज-कम तुम्हें तो आने वाले मेहमानों का खयाल रखने के साथ-साथ, हलवाई आदि को क्या-क्या देना है, का भी ध्यान रखना चाहिए? तुम तो स्कूटी चलाना जानती हो। थोड़ी-बहुत सब्जियां बाजार से तुम भी ले आ सकती हो, या टेण्ट वाले के पास बात करने के लिए अपने बाबू जी को स्कूटी पर बिठाकर ले जा सकती हो?’’
सुनेत्रा से भी जो बन पड़ रहा था, कर रही थी, या कभी-कभार अपनी माँ की ऐसी झिडकियां, एक कान से सुन दूसरे कान से निकालते, चुपचाप अपने काम में लगी रहती। वो जानती थी कि अम्मा से बहस करने का कोई फायदा नहीं। उन्हें अपने काम, अपने निर्णय में किसी तरह का दखल पसंद नहीं। फिर, वो भी तो पूरे दिन दौड़-भाग करती रहतीं। तिस पर तीनों बहनों के बच्चों की पूरे घर में धमा-चौकड़ी, ऊपर से तीनों दामादों के नखरे भी अलग से झेलने थे। कभी भोजन में मीन-मेख, तो कभी रजाई-बिस्तर की समस्या। फिर तीनों की फितरतें भी अलग-अलग थीं। एक धूम्रपान का शौकीन, दूसरा नींद में खर्राटे भरने वाला, तो तीसरा देर रात तक ट्यूबलाइट जलाकर पढ़ते-पढ़ते सोने का आदी है। ऐसे में तीनों दामादों को अलग-अलग कमरा चाहिए था। ऊपर से शाम होते ही मच्छरों का आतंक भी शुरू हो जाता। जिससे सभी रिश्तेदारों के लिए मच्छरदानियों का इंतजाम भी खासा मशक्कत भरा काम होता।
सुनेत्रा के दोनों बच्चे बड़े-बड़े थे। बेटे का हाईस्कूल, तो बिटिया की इण्टर बोर्ड परीक्षाएं थीं। दोनों के ही स्कूल में प्रैक्टिकल, एक्स्ट्रा-क्लॉसेज आदि कक्षाएं चल रही थीं, ऐसे में पढ़ाई का नुकसान होने की वजह से उसके बच्चों का आना सम्भव नहीं था। सत्यजीत को, बिटिया को रोज स्कूल या एक्स्ट्रा- क्लॉसेज के लिए छोड़ने जाना पड़ता था, फिर घर को अकेले बच्चों की जिम्मेदारी पर छोड़ा भी तो नहीं जा सकता। सत्यजीत के शादी में न आने का ये भी एक कारण था।
आज शादी का दिन था। घर में सुबह से ही गहमा-गहमी मची हुई थी। सभी लोग जोर-शोर से शादी की तैयारियों में लगे थे। सुनेत्रा, चावल की थाल लेकर छत पर चली गयी। छत पर गुनगुनी धूप खिली हुई थी। मुंडेर पर बैठा एक कौव्वा बीच-बीच में कांय-कांय कर लेता, पर सुनेत्रा अपने ही विचारों में खोई थी, इसलिए उस तरफ उसका ध्यान नहीं गया। 
सुनेत्रा छत पर बैठी, चावल में से कंकड़-पत्थर आदि बीनते सोच रही थी...हमारी शादी के बाद तो सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। अम्मा-बाबू, तीज-त्यौहार, खास मौकों पर उसके ससुराल आते-जाते थे। बीच-बीच में उससे और सत्यजीत से फोन पर बतियाते, हमारा हाल-चाल भी पूछते रहते। दोनों बच्चों के पैदा होने पर, उनकी देखभाल के लिए अम्मा तो पन्द्रह-बीस दिनों के लिए उसके पास रहने के लिए आयीं भी थीं। अगले छह-सात सालों के अन्तराल में उसकी बाकी तीनों बहनों की शादियां हो गयीं, जिससे अम्मा-बाबू की जिम्मेदारियां उन बेटियों, उनके ससुराल वालों के प्रति बंट जाने से, उसके और सत्यजीत के प्रति अम्मा-बाबू के रूख में बदलाव आ जाना स्वाभाविक था। पर वो सत्यजीत को कैसे समझाती? सत्यजीत तो अक्सर ही सुनेत्रा से शिकायत करते कि अब उसके अम्मा-बाबू, उसके यहां नहीं आते-जाते, और न तीज-त्यौहार में न्यौता-हंकारी की सामान्य पारिवारिक, सामाजिक औपचारिकताएं ही निभाते हैं। 
सुनेत्रा और सत्यजीत के बीच कभी-कभी ऐसे मुद्दों पर खुल कर बातचीत हो जाती, तो कभी रूसा-रूसौव्वल भी हो जाती। हालांकि सुनेत्रा जानती थी, उसके अम्मा-बाबू अपने अन्य दामादों की तरह सत्यजीत को भी चाहते हैं। वो अपने अम्मा-बाबू का किसी से ज्यादा न घुल-मिल पाने का स्वभाव भी जानती थी, पर वो क्या कर सकती थी ? उसके लिए तो दोनों ही अपने थे। वो न अपने अम्मा-बाबू को गलत कह सकती थी, और न सत्यजीत की बातों पर तर्क-कुतर्क ही। पर सत्यजीत भी क्या कहता? देखा जाय तो उसे खुद भी नहीं पता था कि उसे अपने ससुराल वालों से क्या शिकायतें थीं? हाँ, बीच-बीच में सत्यजीत उन पर तंज कसते जरूर कहता...‘‘अरे भई, सबके अपने-अपने संस्कार और समझ हैं। शादी हो गयी है, अब ससुरालपक्ष को हमसे क्या गरज...? वो कहावत है न...‘भइल बियाह मोर करबा का...।’’
‘‘आप ये क्यों देखते हैं कि उनका व्यवहार आपके प्रति कैसा है? आप तो सिर्फ ये सोचिए, देखिये कि उनके प्रति आपका व्यवहार, आपके कर्तव्य क्या हैं? रिश्तों में कड़वाहट, मिठास, गरमाहट और ठंडापन तो सामान्य बातें हैं। रिश्तेदारों में आपसी बनना-ठनना तो लगा ही रहता है। गाहे-बगाहे, ऐसी बातें किसके मुंह से सुनने को नहीं मिलतीं? हम सभी, अपने-अपने तरीके इनका सामना करते जूझते, जिन्दगी जी रहे हैं।’’
‘‘रिश्ते निभाने, उसे बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ एक पक्ष की ही नहीं होती, रिश्ते तो दोनों पक्षों की सहभागिता से चलते, मजबूत होते हैं। चाहें तो आपसी बातचीत, हालचाल लेने के ढ़ेरों बहाने हैं। क्या हम इतने गये-गुजरे हैं?’’ कहते सत्यजीत कभी-कभी तैश में भी आ जाता।
‘‘देखिये, उनसे मेरी जब कभी भी बातचीत होती है, वे सबसे पहले आपके ही बारे में पूछते हैं। आपके बाद ही मेरा और बच्चों का नंबर आता है। मुझे तो अच्छी तरह पता है कि उनके दिलों में आपके लिए कितना मान-सम्मान है। पुराने लोग हैं। क्या पता, बेवजह की औपचारिकताओं में यकीन न करते हों? हो सकता है आप जिन बातों को लेकर इतने गम्भीर हैं, वो उनकी नजर में कोई मुद्दा ही न हो। प्रकृति ने हम सभी को एक जैसा नहीं बनाया है। जिस तरह गेहंू, धान, ज्वार, बाजरा, मक्का ये सभी खाद्य फसलें हैं, लेकिन उनकी संरचना, प्रकृति अलग-अलग है, उसी तरह हम इन्सानों की फितरत भी भिन्न-भिन्न होती हैं। आप ये क्यों नहीं समझते कि वक्त के साथ हम-सब की प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं। आपकी, उनकी, हम-सब की। मुझे नहीं लगता कि इसके लिए किसी पर दोषारोपण उचित है। कभी-कभी तो मुझे भी लगता है कि उनका व्यवहार मेरे प्रति उपेक्षापूर्ण, पक्षपातपूर्ण है, पर मैं उनकी ऐसी बातों को तरजीह नहीं देती। फायदा भी क्या? हम किसी के सोच- विचार- संस्कारों को नहीं बदल सकते। हाँ, पर उसके साथ सामंजस्य जरूर बिठा सकते हैं। बस्स, यही हमारे अख्तियार में है। आज की तेज रफ्तार जिन्दगी में किसके पास समय है, जो कहीं आए-जाए? सभी की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं हैं। हम भी तो अतिव्यस्तता या अन्य कारणोंवश, अपने बाकी रिश्तेदारों के यहां गाहे-बगाहे के आयोजनों में शामिल नहीं हो पाते? फिर, आप भी तो बातचीत की पहल कर सकते हैं? ये किस शास्त्र में लिखा है कि बातचीत का मंगलाचरण बेटी के ससुरालवाले वाले ही करेंगे?’’ सुनेत्रा प्रतिवाद करती। 
‘‘चलो मान लेता हँू मैंने हालचाल लेने, बातचीत की शुरूआत नहीं की, गलती मेरी ही है। पर वो तो मुझसे उम्र, अनुभव, पद, हर मामले में बड़े हैं। छोटे तो नादानी करते ही हैं, पर क्या बड़ों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?’’ कहते सत्यजीत कभी-कभी कुतर्क भी करने लगता।
‘‘आपको तो पता ही है, अम्मा-बाबू, हाई बी.पी. और सुगर के मरीज हैं। ऊपर से कमर और घुटनों में दर्द के कारण, उनसे घर के छोटे-छोटे काम भी नहीं किये जाते। कहीं आ-जा भी नहीं पाते। इसीलिए उन्होंने घरेलू काम-काज वास्ते एक आदमी भी रख लिया है, पर कभी-कभी उसके नखरे, खर्चे आदि सुनती हूँ, तो लगता है कि वो लोग अपना काम-काज खुद ही कर लें, तो ज्यादा अच्छा। अगर सभी रिश्तेदार उनसे ऐसी ही अपेक्षाएं रखने लगें, तो उनका अपना जीवन, उनकी दिनचर्या कैसे चलेगी? अब तो हमें उनकी फिक्र करनी चाहिए, न कि वो हमारी फिक्र करें। मुझे नहीं लगता कि हमें अब इस उम्र में भी ऐसी बहसबाजियों में सिर खपाना चाहिए?’’
‘‘लो, भला ये क्या बात हुई? जब मैं तर्क की बात करता हूँ तो तुम्हें बहस लगता है? क्या कभी-कभार के माँगलिक मौकों पर भी मिलना-जुलना नहीं हो सकता?’’
‘‘सोचिए, अगर आपके घर पर मेहमानों की आवाजाही लगी रहेगी तो ये हम-सब के लिए कितना असुविधाजनक होगा? आपके बच्चे बड़ी कक्षाओं में हैं। किसी के आने-जाने से उनकी पढ़ाई का भी नुकसान होगा। आपको भी लिखने-पढ़ने का शौक है, जिससे बाजमौंके घर में रिश्तेदारों का आना-जाना आपको बिलकुल पसन्द नहीं। फिर, आपको जिनसे शिकायतें हैं, अगर आप उनके जूतों में पैर डालते, उनके नजरिये से सोचियेगा, तो शायद उनकी मजबूरी ठीक से समझ सकेंगे।’’
‘‘ठीक है, मैं ही गलत सोचता हूँ, यही कहना चाहती हो न? पर ये बात तुम्हें भी अच्छी तरह पता है कि मैं उनसे किसी तरह की अपेक्षा नहीं रखता, सिवाय गाहे-बगाहे प्यार के दो मीठे बोल के।’’
‘‘देखिये, परिवार-पद-प्रतिष्ठा को देखते हुए रिश्तेदारों संग थोड़ा-बहुत कमी-बेशी तो चलती ही रहती है। ये तो आप भी जानते हैं कि साल के तीन सौ पैंसठ दिन मौसम एक सा नहीं रहता। कभी तेज धूप, लू, कड़ाके की ठण्डक तो कभी घनघोर बारिश का भी सामना करना पड़ जाता है। हमारे अम्मा-बाबू ने अपनी बेटियों को ऊँची शिक्षा दी। अच्छे संस्कार दिये। जिसका सुफल ही है कि आज आपके परिवार में भी आपके बच्चे सफल और सुसंस्कारित हैं। हर एक कक्षाओं में अव्वल नम्बरों से पास होते हैं। देखा जाय तो माँ-बाप का अपने बच्चों के लिए शायद यही सबसे बड़ा योगदान होता है, जो उनके परिवार में जीवन-मूल्यों को आगे भी उत्तरोत्तर वृद्धि करने में मददगार होता है।’’        ‘‘वाह! तुम तो कभी-कभी बड़ी समझदारी वाली बातें करने लगती हो?’’
‘‘ये तो, आप जैसे उभरते हुए विद्वान साहित्यकार के सान्निध्य का प्रतिफल है।’’
‘‘हाँ, ये भी खूब कही। कर लो मजाक। तुम्हारी यही बातें तो मुझे निरूत्तर कर देती हैं...हें-हें-हें।’’ उनके बीच बहस प्रायः बिना किसी नतीजे के, ऐसे ही खूबसूरत मोड़ पर आकर खत्म हो जातीं। सुनेत्रा को विश्वास था कि समय सबसे बड़ा मरहम है। समय के साथ सब ठीक हो जायेगा। 
सुनेत्रा ने तो सत्यजीत को समझाने के क्रम में एक दिन यहां तक कहा...‘‘आप भले ही मुझसे उम्र में बड़े हैं, पर आपको अक्ल एकदम नहीं है। ये अखबार देखिये...किसी सज्जन द्वारा तीन दामादों के बीच तुलनात्मक रूप से कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते उनके ससुराल पक्ष द्वारा, अपने साथ किये जा रहे पक्षपातपूर्ण व्यवहार के बारे में काउन्सलर से परामर्श माँगा गया है। जरा काउन्सलर के सुझाव तो पढ़िये...‘उपेक्षित होना या महसूस करना, ये दो अलहदा बातें हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप सिर्फ दूसरों से मान-सम्मान पाना चाहते हों, पर देने के मामले में कंजूसी कर जाते हों? रिश्तों में गरमाहट के लिए आपसी समझ और सामन्जस्य बनाए रखना बहुत जरूरी होता है।’’ बावजूद इन तानों-उलाहनों, यदा-कदा की आपसी खींच-तान, मान-मनुहार के बीच उनकी जिन्दगी अपनी गति से चल रही थी।
सुनेत्रा जानती थी कि शुरुआती दिनों में सत्यजीत ऊँचे ओहदे पर काम नहीं करते थे, जिससे अम्मा-बाबू गाहे-बगाहे, किसी-न-किसी बहाने, बाकी दामादों से सत्यजीत की आर्थिक स्थिति की तुलना करते रहते हैं। हालांकि पदोन्नति के बाद अब सत्यजीत विश्वविद्यालय में प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत थे।
कालान्तर में सुनेत्रा की तीनों छोटी बहनों की शादियां, अच्छे घरों के कमाऊ लड़कों से हो गयी। उनके ओहदे ऊँचे थे, सो ठाट भी थे। घर-परिवार से भी वो सभी सत्यजीत से बीस नहीं तो...तेइस-चौबीस तो ठहरते ही थे। जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, सुनेत्रा ने महसूस किया कि अम्मा-बाबू, सत्यजीत की अपेक्षा बाकी अन्य दामादों से कुछ ज्यादा ही घुले-मिले रहते। सत्यजीत से अमूमन कम ही बात-व्यवहार रखते। सत्यजीत भी शनैः-शनै अपनी दुनिया में मगन होते चले गये। स्कूल-कॉलेज के दिनों में लिखने-पढ़ने का जो हल्का-फुल्का शौक था, उसे निखारने में वो जी-जान से जुट गये। इन सब का नतीजा यह रहा कि अगले कुछ ही वर्षों में उनके दो कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह प्रकाशित हो गये, जो पाठकों, समीक्षकों के बीच खूब मकबूल भी हुए। इस तरह सत्यजीत ने शनैः शनैः पढ़ने-लिखने की दुनिया को पूरी तरह आत्मसात कर लिया।
‘‘अरे! सुनेत्रा, चावल में से कंकड़-पत्थर आदि छांट-बीन लिया हो तो नीचे आ जाओ। हण्डे में अदहन का पानी खौल रहा है, और नीचे आकर देखो तो कौन आया है?’’ अम्मा ने नीचे आंगन से आवाज दी तो सुनेत्रा की तंद्रा भंग हुई, जल्दी-जल्दी सीढ़ियांॅ उतरते नीचे आयी। सामने आंगन में अम्मा-बाबू जी के सामने मचिये पर सत्यजीत को बैठे, हँस-हँसकर बतियाते देख उसके आश्चर्य का ठिकाना न था। वो तो मारे खुश के पागल हुई जा रही थी।
‘‘अरे! आप कब आये? क्या ऑफिस से छुट्टी मिल गयी?’’
‘‘बस्स, अभी आया हूँ। दस मिनट हुए।’’
‘‘वाह! लेकिन अचानक कैसे?’’
‘‘एक्चुवॅली यहां आने के लिए जब मैं बॉस के पास छुट्टी माँगने गया तो, उन्होंने ही सुझाव दिया कि बनारस रिजनल ऑफिस में कुछ जरूरी काम है। आप ही चले जाइये। विभागीय गाड़ी लेते जाइये। दिन में काम निबटाइयेगा, फिर शाम को शादी अटैण्ड करते, अगले दिन वापस आ जाइयेगा।’’ सुनेत्रा, सत्यजीत की बातें मंत्र-मुग्ध सी सुनती रही। सुनेत्रा को ये भी अंदाजा था कि सत्यजीत की ये बातें, बगल बैठे उसके अम्मा-बाबू भी सुन रहे हैं, जो शादी में सत्यजीत के न आ पाने के कारण उसे सुबह से दर्जनों बार कोस चुके थे।
‘‘ठीक है, ये सब बातें बाद में हो जायेंगी। आपने सुबह से कुछ खाया-पिया भी तो नहीं होगा? आप तो वैसे भी बाहर का कुछ खाते-पीते नहीं। मैं अभी खाना लगा देती हूँ।’’
‘‘हाँ, भूख तो बड़े जोर की लगी है। पर दो जगह लगा दो। बाहर गाड़ी में ड्राइवर भी बैठा है।’’
‘‘ठीक है, आप हाथ-मुंह धोकर आ जाइये। मैं खाना लगाती हूँ।’’ 
‘...धीरे-धीरे मचल ऐ दिले बेकरार कोई आता है...’ गुनगुनाते हुए, सुनेत्रा भोजन परोसने की तैयारी में व्यस्त हो गयी। ‘‘जिन्दगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है... इक प्यार का नगमा है...’’ 
‘‘मुझे कुछ पूछना है?’’ भोजन कर लेने के बाद, बाहर बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे, सत्यजीत ये गाना गुनगुना रहे थे कि अचानक पीछे से आकर सुनेत्रा ने पूछना चाहा।
‘‘हाँ, बोलो?’’
‘‘ड्राइवर तो बता रहा था कि आप यहां किसी ऑफिशियल काम से नहीं आये हैं। प्राइवेट गाड़ी बुक कराकर, सिर्फ ये शादी ही अटैण्ड करने के लिए आये हैं?’’
‘‘अरे भई! तत्काल रिजर्वेशन नहीं मिला, तो सिर्फ यही एक उपाय बचा था।’’
‘‘और...बच्चों को किसके भरोसे पर छोड़ कर आये हैं?’’ सुनेत्रा ने बनावटी गुस्सा दिखाते पूछा।
‘‘गांव से भतीजे को दो दिन के लिए बुलाया है। दोनों बच्चे जब स्कूल गये होंगे, तो वो दिन-भर घर में रह लेगा। बिटिया तो हल्का-फुल्का खाना बनाना जानती ही है, फिर बेटे और भतीजे की मदद भी तो उसे मिल जायेगी। वैसे भी आजकल के बच्चे बहुत स्मॉर्ट हैं। ‘फिकर-नॉट, टेन्शन नहीं लेने का पापा...।’ चलते वक्त बेटे ने यही कहते मुझे आश्वस्त भी किया था। फिर शादी सम्पन्न होने के बाद, हम कल दोपहर तक वापस भी तो चले चलेंगे...‘भेरी सिम्पल’। लोकल शादी-बारात का यही तो फायदा होता है। दोपहर तक सारे मेहमान, अपने-अपने घर।’’ सत्यजीत ने तनिक शरारती अंदाज में कहा। 
‘‘अब मैं कैसे कहूं कि शादी में आकर, आपने मेरा मान रख लिया। मुझे आप पर गर्व है। अच्छा, अब बारात निकलने वाली है। सभी लोग तैयार हो रहे हैं, आप भी जल्दी से तैयार हो जाइये।’’
‘‘अरे भई! दामाद हूँ इस घर का। अब क्या कभी-कभार रिसियाने का भी हक नहीं? पर, तुम तो अच्छी तरह जानती हो, मैं किसी का दिल नहीं दुखाना चाहता। मैं भी हाड़-माँस का बना इन्सान हूँ। भावनाएं, इच्छाएं मेरी भी हैं। फिर, तुम्हारी मान-मर्यादा बनाये रखने का फर्ज, मेरा भी तो है। हाँ, लेकिन जल्दी-जल्दी में कोई तोहफा नहीं खरीद सका। ये कुछ रूपये हैं, इन्हें एक लिफाफे में रख कर अपनी अम्मा को, हमारी तरफ से न्यौते में दे देना।’’ सत्यजीत ने जेब से पर्स निकालते हुए कहा।
‘‘आप इस शादी में शामिल होने के लिए स्पेशल-टैक्सी बुक कर के आये, मेरे और अम्मा-बाबू के लिए इससे बड़ा और कोई तोहफा हो ही नहीं सकता।’’ सुनेत्रा ने सजल नयन कहा।
‘‘तुम भी न...बड़ी वो हो। अरे भई! तुम्हंे यहां आये छह दिन हो गये थे। तुम्हारे बिना घर काटने को दौड़ता है। घर के हर कोने-अंतरे में तो तुम्हारी उपस्थिति है। ऐसे में तुम्हें घर में न पाकर मुझ पर क्या बीत रही होगी, ये तुम कठकरेजी-पथरकरेजी क्या समझोगी? तुम्हें तो जैसे मेरी और बच्चों की फिक्र ही नहीं है। तुम तो यहांॅ मायके में अपने अम्मा-बाबू, बहन-बहनोईयों संग गुल-गपाड़ा बतियाती, मस्ती कर रही हो। लेकिन मुझे तो तुम्हारी फिक्र है ना! तुम्हारे यहांॅ आने के बाद, परसों जब मैं बेडरूम में लेटा था, तो अचानक मेरी निगाह सामने ड्रेसिंग-टेबल पर रखी हम दोनों की एक पुरानी तस्वीर पर चली गयी। याद है...जब हम एक-डेढ़ वर्ष पहले, अपने एक रिश्तेदार के रिशेप्सन में गये थे, तभी हमने वो सेल्फी ली थी। उस तस्वीर में हम दोनों इतने सुंदर और मुस्कुराते दिख रहे हैं कि उसे देखते तुमने कहा भी था कि ‘‘हम सदा ऐसे ही मुस्कुराते, साथ-साथ बने रहेंगे। अगर हम किसी बात पर कभी नाराज भी हुए, तो ये तस्वीर हमें खुद-ब-खुद एक-दूसरे के मान-मनौव्वल के लिए मजबूर कर देगी।’’ बीती रात फिर मेरी नजर उस तस्वीर पर चली गयी, और आज मैं यहां...तुम्हारे सामने।’’ सत्यजीत ने लगभग मजाहिया मूड में, किसी फिल्मी हीरो की भांति अपने दोनों हाथ सुनेत्रा के सामने फैलाते हुए कहा।
‘‘वाह! फिर तो हमें उस तस्वीर का शुक्रिया अदा करना चाहिए। चलिए, कम-अज-कम लिखने-पढ़ने का आप पर इतना तो ‘साइड-इफेक्ट’ हुआ कि अब आपको थोड़ी-बहुत अक्ल आ गयी है, तभी तो आप समझदारी भरी बातें करने लगे हैं...हें-हें-हें। मुझे सचमुच आप पर गर्व है। आज आपने मेरा मान रख लिया।’’
‘‘मेरा नहीं...हमारा मान कहो। अरे भई! तुमने कहा जो था...‘मेरे आने से चार लोगों के बीच हम सब का मान-सम्मान ही बढ़ेगा।’ तभी तो, तुम्हारी इच्छा को आदेश मानते, शिरोधार्य करते, तुम्हारे सामने हाजिर हो गया। वैसे, यहां न आता...तो जाता भी कहां...? वो कहावत है न...‘भइल बियाह मोर करबा का...?’ हें-हें-हें।’’ सत्यजीत की बातें सुन सुनेत्रा लजा सी गयी। उसकी आँखें खुशी से भर आयीं।
‘घोड़ी पे हो के सवार...चला है दूल्हा यार...’...अहाते के बाहर बैण्ड-बाजा वालों ने ये सार्वकालिक मधुर धुन छेड़ दी थी।

-5/348, विराज खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ

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