डॉ. विकास कुमार

जैसी करनी वैसी भरनी

चतुर्भुज सिंह! शायद उनके माँ-पिताजी ने यही सोचकर उनका नाम ‘चतुर्भत’ रखा होगा कि भविष्य में उनके भी चार भुजा होंगे। चार भुजा, यानी चार सुपुत्र। ...आखिर, किसी पिता के पुत्र ही तो उनकी भुजा होते हैं। खैर, यहाँ नाम का विश्लेषण कोई अहम् मुद्दा नहीं है, बल्कि अहम् मुद्दा तो कुछ और ही है...।
प्रो. चतुर्भुज सिंह वर्तमान में छोटानागपुर विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान के संकायाध्यक्ष हैं। इसके पूर्व भूगोल विभाग में भी विभागाध्यक्ष रहे थे और साथ में विश्वविद्यालय के कई प्रशासनिक पदों को सुशोभित भी कर चुके थे। वैसे हैं तो मूलतः प्रोफेसर ही, लेकिन अपने व्याख्यानों अथवा भाषणों में खुद को भूगोल का विद्यार्थी बताते हैं। शायद यह उनकी महानता हो या फिर लोगों के समक्ष खुद को अप्रत्यक्ष रूप से महान साबित करने का नुस्खा। भगवान ने उन्हें अपने नाम के मुताबिक चार पुत्रों का पिता होने का गौरव प्रदान किया था। शायद इसीलिए चारों पुत्रों का नामकरण भी राजा दशरथ के पुत्रों के नाम पर कर दिया था उन्होंने। ...फिर चारों की परवरिश भी उन्होंने बेहतर ढंग से किया था। पढ़ाई-लिखाई में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। और छोड़ते भी कैसे ? कोई  छोटे-मोटे आदमी तो थे नहीं, पैसे वाले होने के साथ-साथ बुद्धिजीवी भी थे। बड़ा लड़का राम सिंह, एमबीबीएस करके हजारीबाग में मल्टीस्पेसिलिटी हॉस्पीटल खोलकर बहुत बड़ा व्यवसायी बन बैठा था, मंझला लड़का भरत सिंह भी चतरा जिले का वरीय अभियंता का पद प्राप्त कर खूब पैसे बना रहा था और संझला लड़का लक्ष्मण सिंह भी सिमरिया प्रखण्ड का प्रखण्ड विकास पदाधिकारी के पद के सुशोभित कर अपना विकास दिन दूनी और रात चौगुनी दर से किये जा रहा था। रही चौथे लड़के शत्रुध्न सिंह की बात, तो उसकी बात ही बहुत निराली थी। एक तो बड़े बाप का बेटा, साथ में तीन काबिल भाईयों का प्यारा भाई और वैसे भी छोटा लड़का तो माँ-बाप का सबसे दुलारा होता ही है, सो उसके बिगड़ने की सभी अनुकूल परिस्थितियां सौ प्रतिशत मौजूद थी सो, हुआ भी वह एकदम से नकारा, निठल्ला। जैसे-जैसे चतुर्भुज सिंह का छोटा लड़का शत्रुघ्न सिंह बड़ा हो रहा था, वैसे-वैसे चतुर्भुज सिंह की परेशानियाँ बढ़ती ही जा रही थीं। काफी कठिन मेहनत से उन्होंने नाम और सोहरत कमा रखे थे और फिर उनके तीनों लड़कों ने तो बाप का नाम भी काफी ऊँचा कर दिया था अपनी-अपनी सफलताओं को अर्जित करके, पर उनका छोटा लड़का शत्रुध्न सिंह तो उनके नाम को मिट्टी में मिलाने के लिए ही जैसे पैदा हुआ था। पढ़ने-लिखने में तो वह साढ़े बाइस था ही, मगर शराब, कबाब और शबाब में काफी आगे था। शहर के बिगड़ैल लड़कों से दोस्ती भी हो गयी थी।
चतुर्भुज सिंह का सपना था कि उनके चारों बच्चे अपने जीवन में ‘सक्सेसफुल’ आदमी बने, सो तीन को तो डाक्टर, इंजीनियर और प्रशासनिक अधिकारी बना ही दिया था उन्होंने और छोटे लड़के से अपने विरासत को बचाने के लिए प्रोफेसर बनाने की इच्छा मन में पाल रखी थी, पर उसके अंदर प्रोफेसर बनने का सब गुण रहे तब न!... बल्कि सब गुण की बात तो दूर, एक भी गुण रहे तब न। ...वह तो जैसे अपने नाम को सार्थक करने के चक्कर में ही लगा था। पढ़ाई छोड़कर उसने हरेक शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी। चतुर्भुज सिंह को समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपने बेटे के जीवन को कैसे संवारे। उसे प्रोफेसर कैसे बनाये। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए तो भेज नहीं सकते थे, क्योंकि उसकी गणित सही नहीं थी, डाक्टरी तो पढ़वा नहीं सकते थे, क्योंकि उसका विज्ञान सही नहीं था और प्रशासनिक पद हेतु तैयारी नहीं करवा सकते थे क्योंकि उसमें में लगभग सभी विषयों में पारंगतता हासिल करनी होती है, पर ये जनाब तो इन विषयों के अलावे किसी विशेष विषय अर्थात् लफंगई में पारंगत हो रहे थे।
पिता तो परेशान थे ही, अब उनके बड़े भाई लोग भी उसके भविष्य को लेकर परेशान रहने लगे थे। परेशानी की वजह उनके कोई सकारात्मक मंशा तो थी नहीं, बल्कि एक धृणित मंशा थी कि कोई उन्हें नल्ले-नकारे का भाई कहकर बेईज्जत न कर दे। सच में, आदमी के जीवन में एक बार ऐसा भी 
समय आता है, जब उसे अपनों से ज्यादा चिंता अपनी खोखली इज्जत से होने लगती है।
एक दिन तंग होकर तीनों भाई राम सिंह, भरत सिंह और लक्ष्मण सिंह अपने प्रोफेसर पिता चतुर्भुज सिंह के पास आ धमके थे। गुस्से में बड़ा लड़का राम सिंह बोला था, ‘आपको तो अपने इज्जत की कोई परवाह तो है नहीं, पर हम सबको तो अपनी इज्जत की परवाह है। शत्रुध्न नल्ला-नकारा बनकर आवारागर्दी करता फिरता है। आपकी इज्जत में कालिख पोत रहा है, आपको पता है कि नहीं। दिन भर खाली ताश-जुआ में समय बिताते रहता है।’
इस पर तो चतुर्भुज सिंह उखड़ ही गये थे, ‘तो क्या करूं मैं ? तुम सब तो मेरे ही पुत्र हो। तुम सब कैसे काबिल बने। अब एक लड़का नालायक निकल ही गया तो हम क्या करें ?’
‘हम क्या करें, ऐसे कहने से काम नहीं चलने वाला है। कुछ तो करना ही होगा पिताजी।’ मंझला लड़का भरत सिंह टोका था।
‘अब हमीं सबकुछ करें, तुम सब क्यों नहीं करते उसके लिए। उसे समझा-बुझा तो सकते हो न ?“ चतुर्भुज सिंह पुनः गुस्साते हुए बोले थे। 
‘हम लोगों के समझाने से तो रहा वह। अगर समझना होता तो अब तक समझ गया होता। अब हमी लोगों को कुछ करना होगा?’ संझला लड़का लक्ष्मण सिंह बोल उठा था।
‘क्या करना होगा?’ पुनः राम सिंह चौंकते हुए पूछ बैठा।
‘भैया मेरे दिमाग में एक तरकीब सूझ रही है, अगर सहमत हो तो मामला सुलझ सकता है।’ पुनः लक्ष्मण सिंह बोला था।
‘बताओं न!... हम सब विचार करेंगे।’ भरत सिंह आशान्वित होता हुआ बोल उठा थ।।
‘बाबूजी की प्रोफेसरी कब काम आयेगी। हम सब कोई को पता है कि शत्रुघ्न पिताजी की बदौलत ठेल-ढकेल कर बी.ए. पास हो ही गया है। उसे उसी तरह एम.ए. भी करवा दीजिए। विश्वविद्यालय में परीक्षा नियंत्रक से लेकर कुलपति तक सबसे तो पिताजी के अच्छे टर्म हैं ही। फिर लाख-दो लाख देकर किसी के अंदर पीएच.डी. करवा दीजिएगा। ...फिर हमारा टर्म भी तो ऊपर के लोगों तक है ही, वृहत प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष को कुछ खिला-पिलाकर काम निकलवाया ही जा सकता है।’
लक्ष्मण सिंह की इस तरकीब से तो जैसे सभी की बाहें खिल उठी थीं। फिर चहकते हुए चतुर्भुज सिंह भी बीच में बोल उठे थे, ‘...और हाँ, इसका कोई कम्पटीशन एक्जाम भी नहीं होता, डायरेक्ट इंटरव्यू होता है।... और इंटरव्यू में तो हमारे परिचित लोग ही होंगे।...फिर जब उनको पता चलेगा कि शत्रुघ्न मेरा बेटा है तो कोई कम नंबर तो दे ही नहीं सकता। सेलेक्सन तो पक्का हो जायेगा।’
...और तब से शत्रुघ्न सिंह को प्रोफेसर शत्रुघ्न सिंह बनाने की कोशिश में लग गये थे चतुर्भुज सिंह। अपने इमानदारी को ताख में रखकर व पद और प्रतिष्ठा का भरपूर फायदा उठाकर अपने सुपुत्र को भूगोल से एम.ए. पास करवा दिये, वह भी डिस्टिंग्शन मार्क्स से। ...फिर अपने अधिनस्थ और सहकर्मी प्रोफेसर रामौतार पाण्डेय के अंदर लाख रुपया देकर पीएच.डी. का रजिस्ट्रेशन भी करवा दिये। फिर कुलपति और परीक्षा नियंत्रक से मिलकर दो-ढाई साल में ही किसी दूसरे के थीसिस के लेकर शीर्षक नाम आदि बदलवा कर पीएच.डी. अवार्ड भी करवा दिये। वैसे तो विश्वविद्यालय से पीएच.डी. करने वाले अन्य अभ्यर्थियों को कम से कम तो पाँच साल तो अवश्य ही चक्कर काटने पड़ते थे और कुछ तो पीएच.डी. के चक्कर में परेशान होकर इस धरती को छोड़कर बाकी का शोध-कार्य को पूर्ण करने के लिए स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर जाते थे; मगर ऐसा इनके साथ नहीं हुआ था, प्रोफेसर सुपुत्र जो ठहरे थे।
अब तो शत्रुघ्न सिंह के नाम के आगे डॉ. भी लगना शुरू हो गया था।... कुछ ही दिनों में वह अपने दोस्तों के बीच ‘डॉक्टर साहब’ के नाम से पॉपुलर हो गया था। लोगों के मुँह से डॉक्टर शब्द को सुनकर तो उसका सीना और चौड़ा हो जाता था। जैसे डाक्टरी की उपाधि अपने मिहनत के बदौलत ही हासिल की हो। चतुर्भुज सिंह का अब इंतजार भी खत्म होने वाला था। वृहत प्रदेश लोक सेवा आयोग का विज्ञापन निकला। भूगोल विषय में भी 25 रिक्त पदों पर आवेदन आमंत्रित किये गये थे। चतुर्भुज सिंह ने भी अपने बेटे के नाम पर आवेदन आयोग को प्रेषित कर दिया था। ...और फिर चारों पिता-पुत्र लग गये थे उस नालायक, निठल्ले को प्रोफेसर बनाने में। लक्ष्मण सिंह ने अपना हाथ थोड़ा लम्बा किया। वृहत प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष को मुंहमाँगा पैसा देकर लौट आये थे, फिर इंटरव्यू लेने वाले प्रोफेसरों से चतुर्भुज सिंह ने अपनी सांठ-गांठ स्थापित कर ही ली थी। चतुर्भुज सिंह के छोटे साहबजादे शत्रुध्न सिंह का इंटरव्यू भी हुआ। इंटरव्यू लेने वाले विशेषज्ञ तो चतुर्भुज सिंह के परिचित ही थे, अतः उन्होंने इंटरव्यू के नाम पर सिर्फ हाल-चाल पूछ कर छोड़ दिया था।
कुछ ही दिनों के बाद आयोग के परिणाम घोषित हुए। डॉ. शत्रुघ्न सिंह भूगोल विषय के टॉपर अभ्यर्थी थे। ...फिर उनकी पोस्टिंग भी विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर भूगोल विभाग में हो गयी, जहाँ पर पढ़ाई के साथ-साथ शोध-कार्य को सर्वाधिक तवज्जों दिया जाता है। ...अब शत्रुघ्न सिंह उक्त विभाग में एम.ए. के बच्चों को पढ़ायेंगे और शोधार्थियों को पीएच.डी. करवायेंगे। अपने छोटे बेटे और छोटे भाई की इस अपार सफलता पर बहुत खुश थे चतुर्भुज सिंह और उनके सभी लड़के; उनकी इज्जत और प्रतिष्ठा में चार चाँद जो लग गये थे। पर ऐसी प्रतिष्ठा बहुत दिनों तक नहीं रह पायी थी। अगले ही वर्ष कुछ योग्य अभ्यथियों ने उक्त नियुक्ति पर आपत्ति जता दी थी, वे न्यायालय की शरण में चले गये। न्यायालय ने भी इस पर त्वरित संज्ञान लिया था। नियुक्ति की सी.बी.आई. जाँच शुरू करवा दी थी। वजह यह थी कि जितने भी अभ्यर्थियों का चयन हुआ था वे सभी, या तो प्रोफेसर, कुलपति, आई.ए.एस., आई.पी.एस. सुपुत्र थे या फिर विधायक और सांसदों के परिवार वाले। जन साधारण वर्ग से किसी भी अभ्यर्थी का चयन नहीं हुआ था। सो चयनित अभ्यर्थियों से ज्यादा योग्यता रखने वाले अभ्यर्थियों की आँखों में उनका चुभना स्वाभाविक ही था। 
इधर प्राध्यापकों एवं एम.ए. के छात्रों ने भी शत्रुघ्न सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। छात्रों में अपने नये शिक्षक के रवैये के प्रति जबरदस्त रोस था। शत्रुघ्न सिंह अपने आदत से लाचार तो थे ही, अध्ययन-अध्यापन को छोड़कर उनमें सब गुण तो पहले से ही विद्यमान थे। परमानेंट नौकरी मिलने के पश्चात तो उनके पूर्व की गलत आदतें में चहंुमुखी वृद्धि हुई थी। पहले तो सिर्फ घर वाले परेशान थे, परंतु  अब तो विभाग के अन्य प्राध्यापक, कर्मचारी और छात्र-छात्रायें भी परेशान होने लगे थे। पढ़ाने-लिखाने में तो साढ़े बाइस थे ही, और तो और व्यवहार में भी किसी भी तरह परिवर्तन नहीं हुआ था। आये दिन कभी विभागाध्यक्ष से बदतमीजी कर लेते, तो कभी अपने वरीय शिक्षकों से गाली-गलौज भी। उनके इस व्यवहार से आजिज आकर विद्यार्थियों ने कुलपति से शिकायत तक कर दी थी। सहकर्मी प्राध्यापकगण भी सामुहिक आवेदन दे आये थे, कि या तो हम सभी का स्थानांतरण कहीं अन्यत्र कर दिया जाय या फिर शत्रुध्न सिंह तबादला अन्यत्र कर दिया जाय।
प्रारंभ में तो कुलपति ने भी काफी एक्शन लिया। बुलाकर डॉटा-डपटा, कई  बार ‘कारण बताओ’ नोटिस भी जारी हुआ; पर इन सबसे से जनाब को क्या फर्क पड़ने वाला था। जिस इमारत की नींव ही कच्चे ईंटों से बनी हो उसपर गगनचुम्बी इमारत का सपना देखना ही बेकार है। इनकी कारगुजारियों की भनक चतुर्भुज सिंह और उनके तीनों सुपुत्रों को लग गयी थी। उन लोगों ने भी उन्हें काफी समझाने-बुझाने का प्रयास किया पर वही ढाक के तीन पात। तंग आकर चतुर्भुज सिंह ने यहाँ तक कह डाला था, ‘देखों, शत्रुध्न! अगर तुम अपनी आदत में सुधार नहीं लाये, तो इसके जिम्मेवार तुम खुद ही होगे। बहुत ही मुश्किल से पैसा और पैरवी के बदौलत हमलोगों ने तुम्हें प्रोफेसर बनवाया है। फिर भी इतने बड़े सम्मानित पद को अगर तुम संभाल नहीं सके, तो तुम्हारा कुछ भी नहीं होगा। ...और खबरदार, जो हाथ पसारने हमलोगों के सामने आये।’
पर इससे क्या फर्क पड़ने वाला था भला, शत्रुध्न सिंह को। वह तो सिर्फ शराब-शबाब और कबाब में मस्त रहने वाला आदमी था। उसने अपने पिताजी और भाइयों की सलाहों को एक सिरे से खारिज कर दिया था। वैसे भी जब से वृहद प्रदेश, बंग प्रदेश के अलग होकर नया राज्य बना था, तब से सरकारी नौकरियों में धनाठ्य और सफेदपोश लोगों का एकाधिकार स्थापित हो गया था। चाहे वह प्रशासनिक भर्तियाँ हो, कर्मचारियों की भर्तियाँ हो, या फिर प्राध्यापकों की भर्तियाँ ही क्यों न हो। रिक्त पदों का विज्ञापन निकलते हीं खरीद-फरोख्त का धंधा शुरू हो जाता था। योग्यता को ताख में रखकर पैसा और पैरवी के बदौलत नौकरियाँ अर्जित कर ली जाती थी। इस तरह से राज्य में घोर अराजकता की स्थिति व्याप्त हो गयी थी। इसलिए जनसाधारण के आंदोलनों के प्रचण्ड स्वरूप को देखते हुए और इन अनियमितताओं के मद्देनजर सी.बी.आई. जाँच शुरू हो गयी थी। फलतः दूध का दूध और पानी का पानी होना सुनिश्चित हो गया था। वृहत प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सचिव लपेटे में आ चुके थे। उन्हें न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी थी। कुछ अधिकारी खुद ही नजरबंद हो गये थे। इस प्रक्रिया में व्याख्याता नियुक्ति के सम्पूर्ण विज्ञापन को ही रद्द कर दिया गया। फलतः चतुर्भुज सिंह के महान सुपुत्र की नौकरी भी चली गयी थी। पैसा, पैरवी और अनीति की बदौलत बनायी खोखली इज्जत राई की पर्वत की भांति भरभराकर गिर चुकी थी। प्रो. चतुर्भुज सिंह इस सदमें को बर्दास्त नहीं कर पाये थे, परिणामस्वरूप ब्रेन स्ट्रोक तथा लकवा के शिकार हो गये और अपनी मस्तिष्कीय सक्रियता और शारीरिक क्षमता को पूर्ण रूप से गंवाकर एकांतवास की ओर गमन कर गये थे।

-अमगावाँ, शिला, सिमरिया, चतरा, झारखण्ड-825401

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