लम्हों की नदी : राजेन्द्र टोकी

 

लम्हों की नदी: समय, संवेदना और सजग आत्मचेतना का सांद्र समागम

प्रकाशक: वाग्देवी प्रकाशन, नोएडा    संस्करण: 2025      मूल्य: 225 रुपये

‘लम्हों की नदी’ राजेन्द्र टोकी की रचनात्मकता का ऐसा बहुआयामी दस्तावेज़ है जिसमें समकालीन संवेदनाओं, अनुभवों और आत्ममंथन की ध्वनियाँ स्पष्टतः सुनी जा सकती हैं। यह संग्रह मात्र कविताओं का समुच्चय नहीं, बल्कि उन लम्हों का कोलाज है जिन्हें कवि ने जीवन की नदी में बहते हुए न सिर्फ जिया है, बल्कि शब्दों के माध्यम से सुरक्षित भी किया है। वाग्देवी प्रकाशन, नोएडा से प्रकाशित इस संग्रह में कुल 100 कविताएँ संकलित हैं, जो 144 पृष्ठों में फैली हुई हैं। कविताएँ आकार में विविध हैं—कुछ लघु हैं, कुछ लंबी, किंतु सभी में विचार और संवेदना की गहराई कमोबेश बनी रहती है।

            राजेन्द्र टोकी की काव्य-शैली अपनी सादगी में अद्भुत प्रभावशीलता लिए हुए है। उनकी भाषा कृत्रिम अलंकारों और बनावटी आभूषणों की मोहताज नहीं, बल्कि वह सीधे जीवन के खुरदरे यथार्थ से उपजती है, जैसे शब्द मिट्टी से सने हों और हर पंक्ति अनुभव की आँच में तपकर आकार पाई हो। वे भाषा को साहित्यिक अनुशासन की परंपरागत परिधियों में नहीं बाँधते, अपितु उसे मुक्त रूप में बहने देते हैं—कभी धाराप्रवाह, तो कभी ठहराव भरा, पर सदैव प्रभावशाली। उनकी रचनाशैली में तीन विशिष्ट तत्त्व अनायास ही उभरते हैं—सहजता, संप्रेषणीयता और आत्मानुभूत अभिव्यक्ति। वे दार्शनिक विमर्श को बौद्धिक क्लिष्टता से नहीं, बल्कि सहज भाषा और प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हैं। उनकी कविता में संक्षिप्तता के भीतर गहनता है, और व्यंग्य की मृदुल चादर ओढ़े गंभीर सत्य सामने आ खड़े होते हैं। आदर्श का कोट कविता इसका उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ कवि ने 'कोट' जैसे सामान्य प्रतीक के माध्यम से हमारे समय के नैतिक यथार्थ को उकेरा है, देखिए-

                                    "आदर्श का कोट पहनकर

                                    सारा दिन घूमने के बाद

                                    जब घर आता हूँ

                                    तो रोज इस मैले-कुचैले हो चुके

                                    कोट को उतारकर  

                                    धो देता हूँ कल के लिए।" (पृ. 13)

            यह कोट केवल वस्त्र नहीं, बल्कि उन आदर्शों का रूपक है जिन्हें हम सामाजिक मंच पर ओढ़ते तो हैं, किंतु दिन के अंत में उन्हें उतार कर धो देने का अभिनय करते हैं, ताकि अगले दिन पुनः उसी 'स्वच्छता' के भ्रम में जिया जा सके। यहाँ प्रतीकात्मकता के साथ जो व्यंग्य का सधा हुआ स्पर्श है, वह टोकी की रचनात्मक परिपक्वता का प्रमाण है। यह कविता केवल एक व्यक्ति की नैतिक दोहरी जिंदगी की कथा नहीं कहती, बल्कि समकालीन समाज के उस सामूहिक आचरण की ओर संकेत करती है जहाँ आदर्शों का प्रदर्शन वास्तविकता पर भारी पड़ता जा रहा है। टोकी की यह व्यंग्यात्मक भंगिमा, जो कोमलता के साथ तीव्र प्रहार करती है, समकालीन सामाजिक और नैतिक पतन पर गहरी और सटीक टिप्पणी प्रस्तुत करती है। इस प्रकार, राजेन्द्र टोकी की शैली केवल शब्दों की कलाबाज़ी नहीं, बल्कि संवेदनाओं और सत्य की उजली, पारदर्शी अभिव्यक्ति है—जिसमें जीवन झलकता है, और कविता स्वयं अपने अर्थ को ढूँढती है।

            कवि राजेन्द्र टोकी की काव्य-दृष्टि सतही यथार्थ से कहीं अधिक गहन और सूक्ष्म है। वे समाज को केवल उसकी बाह्य संरचना में नहीं देखते, बल्कि उसके भीतर की गूढ़ परतों में प्रवेश करते हैं—वहाँ जहाँ आत्मा की धुँधली आवाज़, आदर्शों की चुप्पियाँ, अनुभवों की स्मृतियाँ, विडम्बनाओं की परछाइयाँ और अस्तित्व के अनुत्तरित प्रश्न एक साथ साँस लेते हैं। उनके लिए कविता केवल सौंदर्य या विचार का माध्यम नहीं, बल्कि एक ऐसी जिज्ञासा है जो समय, समाज और स्वयं के भीतर उतरने की आकांक्षा से जन्म लेती है। संग्रह की शीर्षक-कविता ‘लम्हों की नदी’ इसी दृष्टिकोण की गहराई का उदाहरण है। यह रचना केवल समय के सतत प्रवाह की नहीं, उस मनुष्य की विडंबनात्मक यात्रा की कथा है, जो अपने अस्तित्व की खोज में जीवन की अनिश्चित लहरों पर बहता चला जा रहा है। यहाँ समय एक नदी है—निरंतर गतिमान, अचूक और अदृश्य खिंचाव से युक्त—जिसमें मनुष्य एक 'कश्ती' में सवार होकर भाग रहा है, परंतु दिशा से अनभिज्ञ और उद्देश्य से विहीन। कविता कि कुछ पंक्तियाँ देखिए-

                                    "अपने होने का ‘भ्रम’ पालते...  

                                    लम्हों की नदी में

                                    अपने अस्तित्त्व की कश्ती में सवार

                                    भागे जा रहे हैं।" (पृ. 10)

इन पंक्तियों में प्रयुक्त ‘नदी’, ‘कश्ती’, और ‘भ्रम’ जैसे रूपक मात्र सौंदर्यात्मक बिंब नहीं हैं, बल्कि आज के मनुष्य की विखंडित चेतना, मानसिक असंतुलन और आत्मविस्मृति के प्रभावशाली प्रतीक बन जाते हैं। ‘नदी’ उस समय की प्रतीक है जो किसी के रोके नहीं रुकता, ‘कश्ती’ अस्तित्व का वह साधन है जो स्थायित्व देने के बजाय अस्थिरता का अनुभव कराता है, और ‘भ्रम’ उस आधुनिक जीवन-दृष्टि का प्रतिनिधि है जिसमें व्यक्ति अपनी ही पहचान से लगातार दूर होता जा रहा है। यह कविता समकालीन सभ्यता की उस जटिलता को उजागर करती है जहाँ मनुष्य बाह्य प्रगति के छलावे में आंतरिक रिक्तता का शिकार हो चुका है। टोकी यहाँ एक दार्शनिक कवि की भाँति हमें जीवन की उस गहराई से परिचित कराते हैं जहाँ प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते, केवल अनुभूतियाँ होती हैं—कभी बोझिल, कभी तीव्र, और कभी दिशाहीन। इस प्रकार, ‘लम्हों की नदी’ केवल एक काव्य-रचना नहीं, बल्कि आधुनिक जीवन के अस्तित्वगत संकट की सूक्ष्म और मार्मिक व्याख्या है। राजेन्द्र टोकी अपने प्रतीकों, बिंबों और सहज अभिव्यक्ति के माध्यम से जिस विचारभूमि को उद्घाटित करते हैं, वह पाठक को आत्मविश्लेषण की उस नदी में उतार देती है जहाँ प्रश्न वही रहते हैं, पर दृष्टिकोण नया हो जाता है।

            राजेन्द्र टोकी की कविताएँ केवल भावनात्मक उद्गार नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतरी संसार से लेकर बाह्य समाज के क्रूर यथार्थ तक की एक सतत बौद्धिक और संवेदनात्मक यात्रा हैं। उनका काव्य आत्ममंथन की उस निजी भूमि से जन्म लेता है, जहाँ व्यक्ति स्वयं से संवाद करता है, अपने अनुभवों, विचारों और अस्तित्व के सवालों को टटोलता है; और वहीं से बढ़ते हुए वह उस सामाजिक यथार्थ तक पहुँचता है, जहाँ पाखंड, विडम्बना और अंधश्रद्धा का दायरा उसे घेरे खड़ा होता है। संग्रह की कविताएँ अनुभव, आत्मा-1, और कोई तो आत्मचिंतन की सूक्ष्म भूमि पर खड़ी हैं। इनमें कवि मनुष्य के आंतरिक खोखलेपन, आत्मा की अनुपस्थिति और अनुभवों के क्षरण की बात करता है। यह चिंतन एक तरह का आधुनिक आत्मबोध है, जो केवल वैयक्तिक नहीं बल्कि सामूहिक चेतना को भी झकझोरता है। अनुभव कविता में कवि कहता है-

                        “जब मैंने

                        सहेज कर रखी

                        अनुभवों की तिजोरी खोली

                        तो पाया

                        वो खाली है

                        उड़ चुके हैं सारे अनुभव

                        वाष्प बनकर जाने कहाँ” (पृ. 17)

यह पंक्तियाँ अनुभवों की अपवाष्पित स्मृति का रूपक बन जाती हैं— जहाँ जीवन जीते हुए भी उसके मर्म को खो देने की पीड़ा झलकती है। इसके विपरीत,  मैं जिस देश में रहता हूँ, जो हो रहा है, और विडम्बना-1 जैसी कविताओं में कवि का दृष्टिकोण स्पष्टतः सामाजिक हो जाता है। यहाँ वह धार्मिक पाखंड, सामाजिक निष्क्रियता और नैतिक गिरावट पर एक सजग, किंतु तीखा प्रहार करता है। जो हो रहा है कविता में कवि उस सांस्कृतिक-सामाजिक मानसिकता को चुनौती देता है, जो हर पीड़ा, अन्याय और अन्यायपूर्ण व्यवस्था को ‘पूर्व जन्म के कर्मों’ का परिणाम मानकर निष्क्रियता का जामा पहन लेती है, देखिए-

                        “जो हो रहा है उसे होने दें

                        हो रहा है सब उसकी इच्छा से

                        जो भोग रहे हैं हम

                        वो पूर्वजन्मों के कर्मों का फल या शाप है

                        इस पर आपत्ति या संदेह करना

                        ‘उस पर अविश्वास करना

                        पाप नहीं, महापाप है।“ (पृ. 91)

यहाँ कवि भाग्यवाद और अंधविश्वास पर सधा हुआ कटाक्ष करता है। वह इस मनोवृत्ति को प्रश्नांकित करता है, जो मनुष्य से उसका सामाजिक उत्तरदायित्व छीन लेती है, उसे नियति के हवाले कर देती है, और हर बदलाव की संभावना को ‘पाप’ करार देकर कुचल देती है। यह मानसिकता केवल दार्शनिक पतन नहीं, अपितु सामाजिक जड़ता और शोषण के स्थायीकरण का औजार बन जाती है। राजेन्द्र टोकी इस कविता के माध्यम से एक ऐसी चेतावनी देते हैं, जो केवल एक विचार नहीं, बल्कि एक वैचारिक आग्रह है— कि जब तक हम इस भाग्यवादिता से बाहर नहीं आएँगे, तब तक कोई परिवर्तन संभव नहीं। इस प्रकार, टोकी की कविताओं में एक ओर आत्मचिंतन की धीर गंभीर ध्वनि है, तो दूसरी ओर सामाजिक विसंगतियों पर करारी चोट करने वाली निर्भीक वाणी। यही द्वैत उनकी रचना-भूमि को समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है—जहाँ कविता केवल सौंदर्य का उपकरण नहीं, बल्कि जागरण का माध्यम बनती है।

            राजेन्द्र टोकी की भाषा अपनी प्रकृति में सहज, स्पष्ट और जीवन से सीधी जुड़ी हुई है। उनकी रचनाओं में न तो कृत्रिम अलंकरणों का बोझ है, न ही ऐसे दुरूह प्रतीकों की उलझन, जो अर्थ को आवरणों के भीतर छिपा दें। वे अपनी कविताओं में संप्रेषणीयता को प्रथम गुण मानते हैं—इसलिए उनकी भाषा लोक की भाषा है, संवेदना की सीधी अभिव्यक्ति है, जो पाठक को किसी भाषिक अनुष्ठान के बिना ही प्रभावित कर जाती है। टोकी की यह लोकोन्मुखता उनके शिल्प का ऐसा सशक्त पहलू है, जिससे उनकी कविताएँ केवल साहित्यिक विमर्श तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि आम पाठकों की चेतना का हिस्सा बन जाती हैं। उनकी भाषा में कोई दिखावटी सजावट नहीं, कोई बनावटी सघनता नहीं— बल्कि वह एक ऐसा खुला संवाद है, जिसमें पाठक अपने अनुभवों, विडम्बनाओं और असहमति तक को सहजता से टटोल सकता है। इसकी मिसाल उनकी कविता बड़ी-बड़ी बातें में देख सकते हैं-

                        “आओ बड़ी-बड़ी बातें करें

                        बड़े-बड़े दावे करें

                        दुनिया का सबसे आसान काम यही है।“ (पृ. 129)

यह पंक्तियाँ आकार में छोटी हैं, परंतु अर्थ के स्तर पर अत्यंत तीव्र और मारक हैं। इनमें न केवल समकालीन सामाजिक प्रवृत्तियों की तीखी आलोचना निहित है, बल्कि एक प्रकार का व्यंग्यात्मक यथार्थबोध भी समाया हुआ है। यह व्यंग्य उन लोगों पर लक्षित है जो व्यवहार से नहीं, केवल भाषण और दावे के स्तर पर समाज सुधारक बनते हैं; जो परिवर्तन की बात तो करते हैं, लेकिन अपने आचरण में कोई बदलाव नहीं लाते। बड़ी-बड़ी बातें करना यहाँ केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि एक मानसिक प्रवृत्ति का प्रतिनिधि है— जो आज के सामाजिक और राजनीतिक माहौल में बेहद प्रचलित है। इस कविता में टोकी की भाषा में जो विडंबनात्मक तीखापन है, वह न केवल उनकी रचनात्मक चेतना की परिपक्वता दर्शाता है, बल्कि यह भी प्रमाणित करता है कि कविता, अगर ईमानदारी से कही जाए, तो बहुत कम शब्दों में भी बहुत गहरा कह जाती है। संक्षेप में कहें तो, राजेन्द्र टोकी की भाषा अपने आप में एक वैचारिक स्थिति का घोष है— वह कविता को लोक के करीब लाती है, और साहित्य को जीवन के साथ जोड़ती है। उनके शब्दों में कविता किसी किले की दीवारों के भीतर गूँजने वाली गूढ़ ध्वनि नहीं, बल्कि समाज की सड़क पर उठने वाली सहज, सटीक और चुभती आवाज़ है। यही विशेषता उन्हें अपने समय के उन कवियों में स्थान देती है, जो शब्दों से नहीं, दृष्टिकोण से कवि कहलाते हैं।

            यद्यपि ‘लम्हों की नदी’ में अनेक प्रभावशाली, अर्थगर्भित और संवेदनात्मक रूप से सघन कविताएँ संकलित हैं, तथापि यह भी स्वीकार करना होगा कि संग्रह की समग्रता में कुछ रचनाएँ अपेक्षित काव्य-गुणों से वंचित रह जाती हैं। ये कविताएँ पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे कविता कम, विचारोच्छ्वास अधिक हों—अर्थात् वे भावनाओं के सतही प्रवाह या वैचारिक प्रतिगूंज की तरह सामने आती हैं, जिनमें कविता की संरचना भले हो, किंतु काव्यात्मक अनुशासन और सौंदर्य-संवेदना की पूर्णता का अभाव है। इन रचनाओं में न तो वह छंदात्मक लयात्मकता परिलक्षित होती है जो पाठक को रचना के संगीतात्मक प्रवाह में बाँध सके, और न ही बिंबों, प्रतीकों अथवा सांकेतिकता की वह सर्जनात्मक समृद्धि, जो किसी कविता को विशिष्ट और स्थायी बना देती है। यद्यपि उनमें विचार और भाव की उपस्थिति निर्विवाद है, परंतु वह कविता के रूप में ‘अनुभूति की गरिमा’ को पूरी तरह नहीं पा सकी हैं। इस प्रकार की कविताएँ अक्सर विचार-विस्तार या बौद्धिक वक्तव्य के रूप में सामने आती हैं, जिनमें काव्यात्मकता की जगह तर्कशीलता, और संवेदना की जगह विवेचन का स्वर प्रमुख होता है। यह स्थिति कविता के उस आत्मिक गुण को क्षीण करती है जो उसे एक सामान्य लेखन से अलग करती है—यानी अनुभूति की गहराई, भाव की आंतरिकता और भाषा की सौंदर्यवत्ता। यह कहना आवश्यक है कि टोकी के यहाँ विचार और अनुभव की प्रामाणिकता अवश्य है, परंतु कुछ कविताओं में वह काव्य-संवेदन, भाषा की कलात्मकता और शिल्प की अनुशासित बुनावट नहीं मिलती, जो कविता को स्मरणीय बना सके। अतः संग्रह की इन रचनाओं को एक चिंतनशील गद्यात्मक काव्याभिव्यक्ति कहना अधिक समीचीन होगा, बजाय इसके कि उन्हें पूर्ण विकसित कविता की संज्ञा दी जाए। फिर भी, यह एक तथ्य है कि किसी भी काव्य-संग्रह में विविधता होती है—कुछ कविताएँ रचनाकार की शीर्ष ऊँचाइयों का प्रतिनिधित्व करती हैं, तो कुछ केवल उस यात्रा के पड़ाव बनती हैं। ‘लम्हों की नदी’ में भी यह द्वैत विद्यमान है—जहाँ कुछ कविताएँ उदात्तता और सघनता के शिखर तक पहुँचती हैं, वहीं कुछ रचनाएँ संभावनाओं की भूमिका भर बनकर रह जाती हैं।

            ‘लम्हों की नदी’ संग्रह का एक उल्लेखनीय पक्ष यह है कि इसमें संकलित कविताएँ केवल एक ही रचनात्मक स्रोत से उपजी हुई नहीं हैं, अपितु विभिन्न भावभूमियों और प्रेरणाओं का समावेश इस संग्रह को बहुरंगी बनाता है। कुछ कविताएँ ऐसी हैं जो स्पष्ट रूप से काव्य-प्रेरणा से संचालित प्रतीत होती हैं— वे कल्पना, भाव और विचार की आकस्मिक तीव्रता से उपजी हुई लगती हैं—जबकि कुछ अन्य रचनाएँ जीवनानुभवों की गहन आत्मस्वीकृति से प्रसूत हैं, जो समय के साथ आत्मा में रच-बस जाती हैं और फिर शब्दों का रूप लेकर काव्य बनती हैं। यही प्रेरणा और अनुभव का द्वैत, इस संग्रह को केवल भावुक अथवा केवल बौद्धिक होने से बचाकर एक संतुलित रचना-संवेदना में परिणत करता है। यह संतुलन पाठक को न तो अधिक कल्पनात्मकता में उलझाता है और न ही मात्र वैचारिक बोझ से बोझिल करता है; बल्कि एक ऐसी काव्य-भूमि पर आमंत्रित करता है जहाँ कल्पना और यथार्थ का सेतु निर्मित होता है। इस द्वैत का सर्वाधिक प्रभावशाली उदाहरण कविता तुम में देखने को मिलता है, जो जीवन-दृष्टि, अनुभव और नैतिकता का एक गहन चित्र प्रस्तुत करती है। इसमें कवि लिखता है-

                        “महान होने के लिए

                        किरदार की जरूरत होती है

                        और जिनका होता है किरदार

                        वे जोड़-तोड़ नहीं करते

                        अपने किरदार की खुशबू

                        फैला देते हैं चारों तरफ

                        और अपने आप महान बन जाते हैं।“ (पृ. 119)

यह पंक्तियां जितनी साधारण प्रतीत होती है, उसमें उतनी ही गहरी नैतिक चेतना और सामाजिक सच्चाई समाहित है। यहाँ 'किरदार' शब्द का प्रयोग केवल नाटकीय या चारित्रिक अर्थों में सीमित नहीं है; यह शब्द व्यक्ति के सम्पूर्ण अस्तित्व, उसके नैतिक मूल्यों, व्यवहारिक जीवन और आंतरिक ईमानदारी का प्रतिनिधित्व करता है। टोकी ने ‘महानता’ को किसी बाह्य उपाधि या प्रसिद्धि से नहीं जोड़ा, बल्कि उसे चरित्र की सच्चाई और जीवन की सुवास से नापा है। यह कविता अनुभवजन्य ज्ञान की वह परिपक्वता प्रस्तुत करती है, जो केवल पढ़ने से नहीं, जीने से अर्जित होती है। इसमें जीवन की सादगी है, पर वह सादगी आत्मिक गहराई से अनुप्राणित है; और नैतिकता है, जो किसी आदर्शवाद का पाखंडी प्रदर्शन नहीं, बल्कि व्यक्ति की स्वाभाविक जीवन-चर्या में रची-बसी है। इस प्रकार, ‘तुम’ जैसी रचनाएँ इस संग्रह को प्रेरणा से अनुभव तक की यात्रा का सजीव उदाहरण बनाती हैं। ये कविताएँ न केवल अपने कथ्य में प्रभावशाली हैं, बल्कि अपनी भाषिक सादगी और वैचारिक स्पष्टता के कारण भी पाठकों के मन में देर तक गूंजती रहती हैं। यही वह गुण है जो ‘लम्हों की नदी’ को एक समकालीन, संतुलित और विचारशील कविता-संग्रह के रूप में स्थापित करता है—जिसमें जीवन के बहते लम्हे केवल शब्द नहीं बनते, बल्कि चेतना की नदी में गहराई का अनुभव कराते हैं।

            इस प्रकार राजेन्द्र टोकी का कविता-संग्रह ‘लम्हों की नदी’ समकालीन हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में एक ऐसा रचना-समुच्चय है, जो समय और संवेदना के बीच एक जीवंत और गहन संवाद की सृष्टि करता है। यह केवल कविताओं का संकलन नहीं, बल्कि विचार और अनुभूति, व्यंग्य और आत्ममंथन, सामाजिक आलोचना और आत्मान्वेषण—इन समस्त स्तरों पर पाठक से एक प्रामाणिक बातचीत करने वाला काव्य-प्रयास है। टोकी की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे पाठक को उसके 'स्व' और 'समाज'—दोनों से जोड़ने की शक्ति रखती हैं। ये कविताएँ आत्मचिंतन के दायरे में जहाँ व्यक्ति को उसकी भीतरी परछाइयों से परिचित कराती हैं, वहीं समाज के प्रति उसकी नैतिक ज़िम्मेदारी का बोध भी कराती हैं। इस प्रकार, कवि की दृष्टि अंतर्मुखी भी है और बहिर्मुखी भी—आत्मा की गहराइयों से लेकर सभ्यता के विडंबनात्मक धरातलों तक फैली हुई। टोकी की भाषा सादगी की सजीव मिसाल है— वह किसी अलंकरण की कृत्रिम चादर में लिपटी नहीं, बल्कि सीधी, स्पष्ट और लोकोन्मुख है। इसी सादगी में एक अंतर्निहित सौंदर्य है, जो पाठक को बिना बोझिलता के अपने साथ बाँध लेता है। उनकी कविताओं में भाषा केवल भावों की संवाहिका नहीं, बल्कि जीवन की जटिलताओं को सहज और बोधगम्य रूप में व्यक्त करने का माध्यम बन जाती है। यद्यपि संग्रह में कुछ रचनाएँ कलात्मक परिपक्वता और काव्य-तत्त्वों की दृष्टि से अपेक्षाकृत साधारण प्रतीत होती हैं—जहाँ विचार की प्रधानता काव्यात्मक सघनता पर हावी हो जाती है—फिर भी समग्रता में यह संग्रह एक पठनीय, विचारोत्तेजक और विमर्श योग्य काव्य-कृति के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। ‘लम्हों की नदी’ उन बीतते क्षणों को शब्दों में पकड़ने का एक सधा हुआ प्रयास है, जो सामान्यतः जीवन की आपाधापी में बह जाते हैं, अनकहे, अनसुने और अनचीन्हे रह जाते हैं। यह संग्रह उन्हें पहचानने, थामने और कविता के माध्यम से संजोने का प्रयत्न है—एक ऐसा प्रयत्न जो समय का साहित्यिक साक्ष्य भी है और आगाह करती चेतावनी भी। अंततः, यह कहा जा सकता है कि ‘लम्हों की नदी’ न केवल वर्तमान सामाजिक और वैयक्तिक यथार्थ का संवेदनशील प्रतिबिंब है, बल्कि वह पाठक को आत्म-परिक्षण की यात्रा पर ले जाने वाला सजग साहित्यिक दस्तावेज़ भी है—जो जितना बाहर की दुनिया को दिखाता है, उतना ही भीतर की दुनिया से टकराने का साहस भी देता है।


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