पराए घर की दीवारें

माँ जब भी कहतीं- ‘कुछ लक्षण सीख, कल को पराए घर जाना है।’ तो मैं नाराज हो जाती, कहती- ‘क्यों जाना है पराए घर? क्या माँ को अच्छा लगता है पराया घर?’ माँ चुप हो जाती थीं। उनकी आँखों में एक गहराई होती, जिसे मैं उस समय पढ़ नहीं पाई। लेकिन आज... अब जब मैं खुद एक माँ हूँ, तो हर झिड़की में छुपा प्रेम, हर डांट में छुपा डर और हर बात में छुपा वह अनुभव साफ नजर आता है। 

माँ के हाथों की गर्म रोटियों की खुशबू अब भी मेरे जेहन में तैरती है। जब रोटियां बनती थीं, तो रिमझिम आटा लाने के बहाने खेल में गुम हो जाती और मैं माँ के सामने आ खड़ी होती, बेमन से पूछती- ‘क्या करना है अब?’ माँ बिना देखे कहतीं- ‘बेलन पकड़, एक लच्छा बना, सीख, नहीं तो सासरे जाकर थाली में पानी तक नहीं पूछेगा कोई।’ और फिर शुरू हो जाता मेरा बक-बक- ‘माँ, बेलन क्यों पकड़ूं? मुझे रचना लिखनी है, कहानी बनानी है, मैं लेखक बनूंगी!’ माँ हँसतीं, ‘बन जाना, लेकिन कहानी से रोटी नहीं सिकेगी, रोटी भी बेलना सीख, फिर लेखक बन जाना।’ 

रिमझिम मुझे चिढ़ाती, ‘देख मेरी माजी को, कितनी बातें करती है!’ और मैं गुस्से में कहती- ‘माँ, ये मुझे माजी क्यों कहती है? मैं तो बच्ची हूँ!’ और माँ कहतीं, ‘बच्ची हो, लेकिन जब बोलती हो तो माजी लगती हो!’ 

वो छोटा-सा घर, माँ की आवाजें, पापा की शाम की चाय, और हम दोनों बहनों की खट्टी-मीठी नोकझोंक... सब कुछ किसी धुंधलके की तरह लौटता है इन दिनों। जब कभी अपनी बेटी को डांटती हूँ, तो माँ की ही परछाईं खुद में देखती हूँ। बेटी मुंह फुलाकर कहती है- ‘आप रिमझिम मासी को ज्यादा प्यार करती थीं क्या?’ तब मेरी आँखें छलक उठती हैं। सच कहूँ, तो माँ की आँखें भी छलकती होंगी, जब मैं पूछती थी- ‘क्या आप मुझसे कम प्यार करती हैं?’ माँ कभी कुछ नहीं कहती थीं... लेकिन जब रात को मैं उनींदी आँखों से करवट बदलती, तब महसूस होता कि माँ मेरे सिरहाने बैठकर बाल सहला रही हैं। 

वो जो कभी सिखाया था कि ‘बर्तन माँजना सीख, झाड़ू लगाना सीख...’ आज वो सब कुछ मेरे जीवन का हिस्सा बन चुका है। उस समय माँ की बातें ‘ताने’ लगती थीं, आज वे ‘सच’ बन चुकी हैं। तब जो चोट लगती थी, आज वो अनुभव बनकर जीने की ताकत देता है। 

अब जब खुद सास कहलाती हूँ, तो माँ की बात याद आती है, ‘सास होती है, माँ थोड़ी होती है वहाँ... डर के मारे सांस अटक जाती है।’ अब समझ में आता है कि माँ ने सिर्फ घर का काम नहीं सिखाया, जीवन का पाठ पढ़ाया। 

रिमझिम अब भी वैसी ही है- शांत, सौम्य, हाँ में हाँ मिलाने वाली। कभी-कभी फोन पर बात होती है तो कहती है- ‘तू तो आज भी वही पुरानी माजी है!’ मैं हँस देती हूँ। भीतर से महसूस करती हूँ- वो बचपन खत्म नहीं हुआ... बस पात्र बदल गए हैं। 

आज जब अपनी बेटी के स्कूल बैग में लंच बॉक्स रखती हूँ, बालों में रिबन बांधती हूँ, तो माँ की उंगलियों का स्पर्श याद आता है- जिनसे वो मेरी दो चोटियां कसकर बांधती थीं, और कहती थीं- ‘खुले बाल, खुला दिमाग ले आते हैं... स्कूल में दिमाग से काम ले, फैशन बाद में करना।’ 

अब मैं वही बातें अपनी बेटी से कहती हूँ। शब्द बदल गए हैं, लेकिन भाव वही हैं। माँ अब नहीं हैं, लेकिन मैं माँ बनकर उन्हें हर दिन जीती हूँ। मैंने भी पराया घर देखा, उसमें रहीं, जिया... अब समझ आता है कि पराया कुछ नहीं होता। जो दिल में उतर जाए, वो ‘अपना’ बन जाता है। और जो अपना होकर भी समझे नहीं जाए, वो भी पराया बन जाता है। आज अपने घर की खिड़की से झांकते हुए जब बेटी को खेलते देखती हूँ, तो मन भीतर ही भीतर माँ को आवाज देता है- ‘माँ, देख, तेरी सिखाई लक्षण अब मेरी बेटी में बो रही हूँ... पर तुझ जैसी सास कभी नहीं बनूंगी... तेरी जैसी माँ जरूर बनना चाहूँगी!’ 

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