आख़िरी ख़त


प्रिय जिंदगी,

आज मैं तुम्हें वो आख़िरी खत लिख रहा हूँ, जो शायद मेरे और तुम्हारे लंबे, उलझे हुए, अधूरे और फिर भी अविच्छिन्न संबंध का अंतिम दस्तावेज बन जाएगा। न जाने कितनी बार तुझसे लड़ता रहा, रूठता रहा, शिकायतें करता रहा... पर आज पहली बार तुझसे इस तरह बैठकर, भीतर से बोल रहा हूँ- शायद आखिरी बार।

तू अजीब है, जिंदगी- एक ऐसी पहेली, जो हर उत्तर के बाद एक नया प्रश्न थमा देती है। कभी शह देती है, तो कभी मात... और मजे की बात यह है कि दोनों ही पलों में तू मुस्कुराती रहती है- जैसे तुझपर कभी कुछ बीता ही न हो। पर जब तू मुझसे टकराई, तो न जाने क्यों, हर बार मात ही मेरे हिस्से आई। 

रवि हूँ मैं- हाँ वही, जिसे तूने बचपन में माँ के आँचल से छीनकर अचानक जिम्मेदारियों की खाक में झोंक दिया था। उस दिन पहली बार तूने मुझे छुआ था, और मैं तड़प गया था... और तब से तू हर मोड़ पर मुझे किसी न किसी कसौटी पर कसती रही। मैं बस चलता रहा- कभी पाँवों में कांटे चुभते रहे, कभी उम्मीदों के फूल भी मिले, पर सुकून का कोई साया न मिला। 

मेरा दोस्त रमन, जो जरा ज्यादा दुलारा लगता है मुझे तेरा। वह हँसता है, जीता है, नाचता है- और मैं बस उसे देखते हुए सोचता हूँ- क्या तू वाकई एक-सी होती है सबके लिए? या तू भी किसी खेल की तरह है, जिसमें कुछ मोहरे हमेशा जीत के लिए बने होते हैं, और कुछ केवल हारने के लिए? 

कई बार लगा, मैं मर गया हूँ- भीतर ही भीतर- और बस साँसें बाकी हैं। पर तुझसे कोई नाता अब भी बचा रह गया था शायद, तभी तो तू हर बार मेरे कान में फुसफुसाती रही- ‘तू जिंदा है... क्योंकि तू मेरे कर्ज में है।’ 

तेरा ये कर्ज, जिंदगी... तू कहती है कि मैंने जो कुछ भी पाया, वो तेरी ही देन है- ये साँसें, ये चेतना, ये वाणी, ये सोचने की शक्ति... और इसलिए मैं तेरा ऋणी हूँ। पर क्या तूने कभी मेरी पीड़ा देखी? क्या तूने कभी समझा, कि मैं जी नहीं रहा, बस निभा रहा हूँ- किरदार, फर्ज, रिश्ते, जिम्मेदारियाँ... और बीच में कहीं मेरा ‘मैं’ खो गया। 

मैंने तुझसे कभी बहुत कुछ नहीं माँगा, सिर्फ इतनी-सी राहत कि एक दिन ऐसा हो जब मैं खुद से कह सकूं- हाँ, मैं जिंदा हूँ। पर तू हर बार मुझे घसीटती रही- कभी बीमारियों के जरिये, कभी अपनों की बेरुखी से, कभी समाज की परतों से, जो मुझे हर रोज कुचलता रहा। 

तू कहती है- ‘मैं सबको एक जैसी मिलती हूँ, पर सब मुझको एक जैसा नहीं जीते।’ पर जिंदगी, क्या तू सच में निष्पक्ष है? या फिर तूने भी इंसानों की तरह सीख लिया है पक्षपात करना? 

तू कहती है कि तुझमें वाणी नहीं, पर चेतना है। पर फिर क्यों उन जीवों में, जिनमें वाणी नहीं, उनसे ज्यादा शांति नजर आती है, और जिनके पास तुझसे मिला सबसे बड़ा वरदान- यानी सोचने की शक्ति है, वही सबसे ज्यादा उलझे हुए, परेशान, और बेबस हैं? 

तेरे कर्ज को उतारने की बातें तू बार-बार दोहराती रही, और मैं बस कोशिश करता रहा, इस उम्मीद में कि एक दिन तुझे संतुष्ट कर सकूं। लेकिन तू कभी संतुष्ट नहीं हुई। तू हर बार और कुछ माँग लेती थी- थोड़ा और सहन कर, थोड़ा और झेल, थोड़ा और दे... मानो तू कोई अमिट कर्ज हो, जो कभी चुका ही नहीं सकता। तेरी ये भाषा, ये दर्शन, ये परीक्षा... अब थका चुका है मुझे। और इसलिए आज- मैं तुझसे विदा नहीं ले रहा, बस तुझे वह अंतिम खत सौंप रहा हूँ, जिसमें मैंने अपने सारे प्रश्न, सारी शिकायतें, सारे उत्तर और सारी स्वीकृतियाँ लिख दी हैं। 

तू कहती है, तू मौत के साथ चलती है। जानता हूँ, जब वह आएगी, तू भी साथ होगी। पर तब शायद पहली बार तू चुप रहेगी- न कोई शह, न कोई मात। बस एक शांत विदाई- न हार, न जीत... केवल मुक्ति। 

पर अगर किसी अन्य जीवन में तू फिर मिले, तो थोड़ा और न्याय करना, थोड़ा और समझ, थोड़ा और प्यार... और हाँ, एक छोटी-सी बात- अगर दे सके, तो एक दिन... जिसमें मैं खुद को ‘जिंदा’ कह सकूं... पूरे होश और सुकून के साथ।


तुम्हारा,

रवि

(तुम्हारा कर्जदार, पर इस बार शब्दों के साथ मुक्त)


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