सुरक्षा
अविनाश ने जोर से ब्रेक लगाया तो प्रियंका ने उसे कसकर पकड़ते हुए पूछा, ‘क्या हुआ ?’
‘उतरो, सूटकेस गिर गया है।’
अविनाश ने कहा तो स्कूटर से उतरकर प्रियंका ने देखा कि बीच सड़क पर पड़े उस बैंगनी रंग के सूटकेस को एक युवक ने तेजी से अपने हाथों में उठा लिया है। स्कूटर के करीब आकर उसने वह सूटकेस अविनाश को थमा दिया। अविनाश ने उस भले युवक का शुक्रिया अदा कर स्कूटर पर बैठते हुए सूटकेस को अपने दोनों पैरों के बीच अच्छी तरह फंसा लिया था।
‘एक बार देख लो कहीं से टूटा तो नहीं ?’
‘मेरा खरीदा गया सूटकेस एकदम टिकाऊ है प्रिये मेरी तरह। चलो जल्दी बैठो, कहीं गाड़ी न छूट जाए।’ अविनाश के इस जवाब पर वह मुस्कुराते हुए स्कूटर पर बैठ गई। दिल से तो वह यही चाह रही थी कि गाड़ी छूट जाए किंतु जिस तेजी से स्कूटर सड़क पर दौड़ रहा था उसे विश्वास हो गया था कि गाड़ी नहीं छूटेगी। गाड़ी छूटने में बहुत कम समय था, इसलिए कार के बजाय स्कूटर से स्टेशन छोड़ना अविनाश ने उचित समझा था। वह जा तो रही थी किंतु अभी भी उसके मन में दुविधा थी कि वह सेमिनार में जाए या नहीं।
स्टेशन के प्रवेश द्वार पर छोड़कर अविनाश ने उससे विदा ली। थर्ड एसी के डिब्बे में अपनी सीट पर पहुंच कर सबसे पहले उसने सूटकेस को चौन से बांधकर ताला लगाया। चाभी हैंडबैग में रखने के बाद आसपास उसने नजर दौड़ाई तो पाया कि आठ यात्रियों के बीच वह अकेली महिला है। भय के मारे उसका गला सूख गया। पानी पीकर फिर से एक बार उसने उन सब पर नजर डाली। पच्चीस-सत्ताईस वर्षीय दो युवक पहले से ही दोनों ऊपरी बर्थ पर अधलेटे से मोबाइल में आंखें गड़ाए हुए थे। उसने अंदाजा लगाया कि वे जरूर आईटी कंपनी में काम करते होंगे। उसके ठीक सामने बैठा अधेड़ व्यक्ति व्यापारी-सा लग रहा था जो या तो किसी दौरे पर था अथवा घर वापसी पर। अन्य चारों को देख कर उसे थोड़ी तसल्ली हुई क्योंकि वे काले कपड़ों में थे। मालाधारी स्वामी थे वे सब जो भगवान अय्यप्पन के दर्शन के लिए सबरीमलै की तीर्थयात्रा पर थे। उनमें से दो नवयुवक अट्ठारह-बीस साल के भी थे। इन स्वामी से कैसा भय ? उसने अपने आपको समझाया।
तभी मोबाइल की घंटी ने उसका ध्यान भंग किया। ‘हेलो, हाँ मम्मी, सब ठीक है, मैं रेलगाडी में.. बताया था न आपको मैं केरल जा रही हूँ। कल से सेमिनार है... वापसी तीन तारीख को है। आपको याद नहीं रहता, अच्छा मैं आपको मैसेज कर देती हूँ। हाँ ठीक है, पहुंच कर फोन कर दूंगी। अपना ख्याल रखना।’
अविनाश का वीडियो कॉल आ रहा था। वो जायजा ले रहे थे कि आखिर वह गाड़ी में आराम से बैठ तो गई है ना। कोई परेशानी तो नहीं ।
‘सब ठीक है, लो गाड़ी भी चल पड़ी है। अच्छा अपना ख्याल रखना अवि! बाय!’ जवाब में उड़ता चुंबन किया अविनाश ने तो वह शर्म से लाल हो गई और तुरंत ही सचेत भी हो गई थी कि किसी ने देखा तो नहीं।
‘तो आप कॉलेज में पढ़ाती हैं। आपके प्रोफेशन में भी क्या आपको यात्राएं करनी होती हैं ? मैं तो ठहरा घड़ियों का व्यापारी। अक्सर दौरों पर ही रहता हूँ।’
‘उं ... हां!’ छोटा सा जवाब देकर प्रियंका तुरंत दूसरी ओर देखने लगी कि वह फिर से कोई दूसरा प्रश्न न उछाल दे। एकबारगी तो वह घबरा गई थी कि भला ये कैसे जानता है कि वह कॉलेज में शिक्षक है। फिर वह समझ गई कि अवश्य ही इसने मम्मी से फोन पर हुई बातचीत सुनी है। घर से रवाना होते समय उसने तय किया था कि इस यात्रा में वह अनजान लोगों से बिल्कुल बातें नहीं करेगी। उसका ध्यान फिर उन स्वामी पर चला गया, लगता है वे एक बड़े समूह में थे और सिर्फ इस डिब्बे में ही नहीं अगल-बगल के डिब्बों में भी फैले हुए थे। समूह के कुछ जिम्मेदार व्यक्ति बार-बार आकर उनकी जरूरतों और सुविधाओं के बारे में पूछ रहे थे।
टीटी से टिकट चेक करवाने के बाद वह सोने की तैयारी करने लगी।सीट से उठकर वह अपनी मंझली बर्थ नीचे करने लगी तो ऊपर लेटे युवक ने तुरंत लोहे की जंजीर खोल कर उसे थमा दी और एक मोटे स्वामी ने आगे बढ़कर जंजीर को बर्थ की सांकल में फंसाने में मदद कर दी। उस मोटे स्वामी ने पूछा- ‘क्या आप निचली बर्थ लेना चाहेंगी।’
उसने झट से इंकार कर दिया। किसी से भी वह किसी भी प्रकार के वार्तालाप में नहीं पड़ना चाहती थी। बर्थ नीचे करते वक्त स्वामी का हाथ उसके हाथ से छुआ तो वह कांप गई, किंतु वह मोटा स्वामी एकदम सहज था। वह सोच रही थी कि कैसा कलयुगी स्वामी है स्त्री को छूने पर भी इसने क्षमा नहीं माँगी, जबकि इन दिनों तो ये ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं।
आजकल ‘सब चलता है’ की मानसिकता के ‘मोड़’ पर लोग आ गए हैं और शायद यही वजह तो नहीं दुष्कर्म के मामलों में बेतहाशा बढ़ोतरी की। उसके जेहन में सुंदर और मासूम-सी डा. प्रियंका रेड्डी की वह भोली सूरत उभर आई जो परसों से अखबार, टीवी और समस्त मीडिया पर छाई हुई है। बर्बरता और अमानवीयता भरा वह शर्मनाक दुष्कर्म... और फिर गुनाह को छिपाने के लिए लाश को जलाना। जानवरों का इलाज करने वाली डाक्टर इंसानी जानवर का शिकार हो गई। उफ् ...स्त्री के प्रति कितनी पशुता ..कितनी क्रूर निर्ममता। आखिर क्यों ? महज इसलिए कि शारीरिक रूप से पुरुष बलशाली है और स्त्री कमजोर। इसलिए कि हमारी मनोसामाजिक कंडीशनिंग यह मानने के लिए की गई है कि पुरुष एक खुला सांड है और स्त्री खूंटे से बंधी एक गाय है। दुसह्य शारीरिक पीड़ा के साथ-साथ तार-तार होते आत्मसम्मान एवं अस्तित्व की कितनी भयानक मानसिक पीड़ा से गुजरी होगी वह पीड़िता। क्या कभी किसी पुरुष को ऐसी पीड़ा से गुजरना पड़ता है? पुरुषों के बारे में सोचते ही उसे ख्याल आया कि यहां वह सात पुरुषों में अकेली महिला है। वह सोने से पहले बाथरूम गई थी, तब भी उसने देखा कि महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले इस कोच में बहुत कम है। उसके शरीर में झुरझुरी दौड़ गई कि क्या हो यदि इन सातों में से किसी के मन में भी शैतान जाग जाए। क्या वह आत्मरक्षा में समर्थ है ? नहीं ... क्यों ? क्योंकि हमारे शिक्षा और सामाजिक तंत्र में बचपन से ही लड़कियों को कभी आत्मरक्षा का पाठ नहीं पढ़ाया जाता। आक्रमणकारियों से निपटने के लिए स्कूल कॉलेजों में किसी भी प्रकार के मार्शल आर्ट का न अनिवार्य प्रशिक्षण है न ही कोई कोर्स। वैकल्पिक रूप में कहीं उपलब्ध भी हो तो भी इनमें लड़कियां बहुत सीमित संख्या में होती हैं। माँ की जिद पर आखिरकार उसने भी तो अपनी इच्छा के विरुद्ध जूडो-कराटे न सीखकर स्कूल में बेकिंग कला ही तो सीखी थी। उसकी आंखों में फिर वह खूबसूरत भोला चेहरा उभर कर आ गया। माँ कहती थी कि जब प्रियंका चोपड़ा मिस वर्ल्ड बनी थी तब वह काफी दिनों तक घर में ताज पहनकर शीशे के सामने उसकी नकल करती और कहती- ‘मैं हूँ प्रियंका... मिस वर्ल्ड विजेता।’ दुर्भाग्य से इस पीड़िता और उसका नाम भी एक ही था, किंतु इस बार नाम और उम्र की समानता ने गर्व की जगह उसके मन में खौफ भर दिया था। परसों ही उसकी टिकट कंफर्म हुई थी और उसी दिन यह मनहूस ब्रेकिंग न्यूज भी मिली थी।
पहली बार अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में अपनी प्रतिभागिता के प्रति बेहद उत्साहित होने के बावजूद उस दिन वह अब केरल की इस यात्रा को रद्द करना चाहती थी। यह सुनकर अविनाश ठहाका लगा कर हँस पड़े- ‘भला ऐसे कैसे कोई घर में बैठ सकता है, सब पुरुष ऐसे जालिम नहीं होते हैं। और फिर तुम तो इस संगोष्ठी में जाने के लिए काफी उत्सुक थी। तुम्हारा मनपसंद विषय भी है, और साथ ही भूल गई तुम ..अभी तीन महीने पहले जब तुमने पहली बार अपने विभाग की ओर से राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया तो दो दिन पहले से ही पत्नी समेत यहां पहुंचकर डाक्टर चंद्रशेखर ने तुम्हारी भरसक मदद की थी। तुम्हें भी तो जरूर जाना चाहिए पहली बार उसने एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया है, आखिर तुम्हारा क्लासमेट है वो।’
जाना तो वह भी चाहती है, वह यह भी जानती है कि यात्रा रद्द करने पर चंद्रू हताश हो जाएगा। कॉलेज से ऑन-ड्यूटी भी मिल गई है, किंतु दुष्कर्म की इस खबर ने उसके हौसले पस्त कर रखे हैं। वह चाहती थी अविनाश उसे जाने से रोक ले, किंतु अविनाश स्त्री को कैद नहीं अपितु खुला आसमान देने में विश्वास रखते हैं। फिर भला वह उसे क्यों रोकते। पिछले वर्ष ही दोनों विवाह-सूत्र में बंधे थे। मम्मी, पापा ने भी तो उसे नहीं रोका था।
चेन्नई से इस बार कोई साथ भी तो नहीं मिला, पिछली बार उसके साथ मालिनी थी, जब वह हैदराबाद के सेमिनार में गई थी। हैदराबाद के नाम से भयभीत होकर उसने जोर से आँखें मींच ली।
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अपने आसपास की हलचल और चेहरे पर पड़ती रोशनी से उसकी आँखें खुल गई।
समय देखा पांच बजे हैं, करीब बीस मिनट में स्टेशन आने वाला है, जल्दी से फ्रेश होने के लिए वह बाथरूम की ओर लपक पड़ी। चेन खोलकर सूटकेस खींचकर वह दरवाजे के पास जाकर खड़ी हो गई। उसी मोटे स्वामी ने पूछा, ‘कोट्टायम आने वाला है, क्या आप यहीं उतरेंगी?’
उसने ‘हाँ’ में गर्दन हिला दी ।
गाड़ी जब प्लेटफार्म पर लगी तो वह नीचे उतरकर सूटकेस उतारने लगी तो उसी स्वामी ने आगे बढ़कर उसकी मदद की। ‘धन्यवाद’ कहकर वह प्रीपेड-ऑटो की ओर बढ़ गई।
‘मैडम, ये बस-अड्डा तो आ गया किंतु यहां सात बजे से पहले कोई बस नहीं मिलेगी आपको। अभी तो यह सुनसान है, अंधेरा भी है मैडम और उस पर आप अकेली भी हो, इस सुनसान बस-अड्डे पर अकेली लेडीज का इंतजार करना बिल्कुल सेफ नहीं है।’
‘तुम जानते थे तो फिर मुझे स्टेशन से लेकर ही क्यों आए, मैं वहीं न इंतजार कर लेती।’ उस पर बमक पड़ी थी वह।
चंद्रशेखर ने कहा भी तो था पर वह कैसे भूल गई ? चन्द्रू ने तो जिद की थी कि वह उसके लिए गाड़ी भेज देगा, किंतु उसने मना कर दिया था कि तुम्हें संभालने के और भी बीसियों काम होंगे इसलिए वह आयोजन पर ध्यान दे, उसकी चिंता कतई ना करे। चंद्रू ने उसे यह भी बताया था कि कोट्टायम से वेंग्यूर पहुंचने के लिए उसे सत्तर किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ेगी। स्टेशन से टैक्सी मिलती है वैसे, पर बस यात्रा ज्यादा सुरक्षित रहेगी। बस अड्डे से हर पांच मिनट में लगातार डीलक्स बसें चलती हैं। वेंग्यूर पहुंचकर उसे गेस्ट हाउस सर्किल पर उतरना होगा और बस पचास मीटर की दूरी पर ही लोटस होटल में उसके ठहरने का पूरा इंतजाम था। होटल से कॉलेज तक के लिए गाड़ियों की पूरी व्यवस्था हो गई है।
‘डरो नहीं मैडम जी, हम आपको अकेले नहीं छोड़ेगा। बस स्टैंड के आसपास एक अच्छी जगह ढूंढकर ही आपको छोड़ेगा।’
‘ठीक है, कोई अच्छी चाय की दुकान पर उतार दो।’ उसने ऑटोचालक से कहा। किंतु अभी तो यहां कुछ भी नहीं खुला था, धरती-आसमान सब नींद के आगोश में मग्न थे।
‘मैडम जी, फिक्र मत करो हम आपको अकेले नहीं छोड़ेंगे।’
दिसंबर महीने की पहली तारीख की हवा उतनी सर्द भी न थी, किंतु उस अनजान चालक की बातों की दहशत से उसकी हड्डियों में कंपकंपी छूट रही थी। ऑनलाइन आर्डर किया पेपर-स्प्रे भी तो उसके रवाना होने तक उसे नहीं मिला था। ऑटो घुमा-घुमाकर वह उसके लिए कुछ सुरक्षित जगह ढूंढने लगा।
‘हम तुम्हें एक पैसा भी और नहीं देंगे।’
‘मैडम मुझे आपका बहुत ख्याल है, ऐसे कैसे मैं आपको सुनसान जगह पर उतार सकता हूँ?’
केरल में वह तमिल में बोल रही थी, किंतु उस चतुर चालक ने उसकी भाषा-समस्या को पहचान लिया था और वह हिंदी में वार्तालाप करने लगा था।
उसने गूगल करके सूर्योदय का समय देखा, अभी तो पूरे चालीस मिनट बाकी थे। सही जगह की तलाश में अंतरराज्यीय बस अड्डे का पूरा चक्कर लगाकर फिर से मुख्य द्वार पर पहुंचे तो ठीक सामने एक स्थानीय बस स्टॉप दिखाई दिया।
प्रियंका ने देखा सड़क की हल्की रोशनी सीधे बेंच पर पड़ रही थी। वहां तीन भद्र लोग बैठे बातें कर रहे थे। उनमें से अधेड़ उम्र की एक महिला को देखकर उसने तुरंत ऑटो रुकवाया और सूटकेस लेकर उतर गई।
‘हाँ, ये जगह सेफ है मैडम। सामने बस अड्डे से आपको सात बजे बस मिल जाएगी।’ यह कहते हुए वह ऑटो चालक चला गया।
उसने गहरी सांस ली, शुक्र है कि उसने न तो अतिरिक्त पैसों को लेकर कोई बखेड़ा खड़ा किया और न ही वह बुरा इंसान था।
चाय की तलब लग रही थी। उसने आसपास नजर दौड़ाई, सारी दुकानें बंद थी। यही उसका चेन्नई शहर होता तो सवेरे पांच बजे से हर गली कूचे में चाय मिल जाती। लैंप पोस्ट के हल्के प्रकाश में बस स्टॉप पर बतियाते उन लोगों को अब उसने ध्यान से देखा।
तीनों में सबसे अधिक उम्र वाला पुरुष करीब सत्तर वर्ष का होगा और उसके साथ वाला करीब पैंसठ वर्ष का। महिला लगभग साठ की होगी। वह सोचने लगी कि इनका आपस में क्या रिश्ता होगा ? उनमें से किसी के पास भी ऐसा कोई सामान नहीं था जिससे कि अनुमान लगाया जा सके कि वे मुसाफिर हैं। इतनी सुबह बस स्टॉप पर आने का उनका क्या मकसद होगा ? उनके हाव-भाव पर उसने अपनी नजरें जमा रखी थी, किंतु उससे बेखबर वे लोग बातचीत में मशगूल थे।
केरल की पारंपरिक बॉर्डर वाली साड़ी में थी वह महिला, पुरुष धोती में थे। वे लोग वेशभूषा से बहुत साधारण दिख रहे थे। इस समूह में सभी साठ पार के थे। अनायास अपने आसपास सीनियर सिटीजन के बीच स्वयं को पाकर उसका भय तिरोहित होने लगा था। उनकी उम्रगत शारीरिक कमजोरी ने उसके अंदर साहस भर दिया था। अब वह सात बजे तक बेखौफ बस का इंतजार कर पाएगी।
उस क्षण पीड़िता का मासूम चेहरा फिर से उसके सामने उभर कर आया तो उसे लगा कि दुराचारियों और उसकी मानसिकता में इस समय कोई फर्क नहीं है। कमजोर के सामने शक्तिशाली महसूस करने का यह भाव ही तो व्यक्ति को आक्रामक बना कर अत्याचार के लिए उकसाता है। क्या हो यदि ये तीनों के तीनों नौजवान हों। नहीं नहीं ...कमजोर के आगे ताकतवर होकर भला वह कौन सा तीर मार रही है। नहीं...वह हमेशा इस तरह कमजोर नहीं रह सकती।
प्रियंका ने एक बार फिर अपने भीतर शक्ति का संचार महसूस किया, इस बार यह मार्शल आर्ट सीखने के दृढ़-संकल्प की शक्ति थी।
-विमेंस क्रिश्चियन कॉलेज, चेन्नै
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