श्यामल बिहारी महतो

औलादों वाली माँ

आज फिर उनकी उपस्थिति पर उसने आपत्ति जताई थी- ‘ये यहां भी पहुंच गया है। आखिर यह है किस मर्ज की दवा...?’
        उस वक्त मैंने उससे विशेष कुछ नहीं कह कर-केवल इतना ही कहा था- ‘उनके बारे में जानोगे तो तेरे पांव तले की जमीन खिसक जायेगी, फिर भी बताऊंगा, पर कार्यक्रम के बाद रुकना, कहीं जाना नहीं..।’
       यह एक प्रखंड स्तरीय सालाना विचार गोष्ठी थी विषय था- ‘सामाजिक संवेदना का क्षरण’। इसमें  क्षेत्र के तमाम बुद्धिजीवी आमंत्रित थे। उन्हीं में संजय बाबू भी बतौर अतिथि शामिल थे। रणधीर और संजय बाबू एक ही गांव से थे। लेकिन लगता दोनों दो अजनबी हैं। रणधीर की बातों से लगता दोनों के बीच एक खाई है जो काफी गहरी है। रिश्ते में चाचा-भतीजा थे, पर रणधीर में भतीजा वाली फीलिंग्स नदारद थी। उल्टे संजय बाबू के नाम से ही वह लहर उठता था- शायद मन में कोई खुंदक रही हो, लेकिन रणधीर के प्रति संजय बाबू के मुंह से कभी कोई अनुचित शब्द आज तक मैंने नहीं सुना था। जब भी वह इसके बारे कुछ कहते- रणधीर बाबू ही के मुंह से निकलते सुना। वहीं रणधीर संजय बाबू को लेकर बार बार आपत्ति जताता रहा है, कई बार इसकी वजह जानना चाहा पर कारण कभी बताया नहीं उसने।
        उस दिन करम महोत्सव में उन्हें मंचासीन देख वह एकदम से असहज  हो उठा था। बिफरते हुए कहने लगा- ‘अरे भाई यह आदमी अपने किस महान कार्य की वजह से मंच पर विराजमान है! मैं तो अपनी न्यूज में इसका नाम तक न लिखूंगा। क्यों लिखूं भला ? यह कोई सेलीब्रिटी है, कोई राजनेता है या...!’
        ‘यह एक बुद्धिजीवी है.. लेखक है!’ समझाने की लहजे में उनसे कहा।
        ‘क्या कहा...? लेखक और ये..? भांग खाये हो क्या तुम..?’
        उसका यह कहना मुझे बहुत बुरा लगा। रणधीर लगातार संजय बाबू का अपमान ही नहीं तिरस्कार भी किये जा रहा था। जी चाहा उसे फटकार लगा दूं फिर सोचा- चलो इसी बहाने इसके अंदर का गुबार और गंदगी को बाहर आने देते है। उसका बकना बंद नहीं हुआ था- ‘अगर इसके जैसा आदमी लेखक होने लगे तो गली-मोहल्लों में कुकुरमुत्तों  की शक्ल में लेखक मिलने लगेंगे..!  अरे ये जो रोज चार बजे भोर गाय-बैलों को चराने जंगल ले जाता हो, बकरियों के लिए हर दिन माथे पर पाल्हा ढोकर लाता हो, सावन में जो खुद हार जोतता हो ...और बाकी समय आफिस जाकर कलम घिसता हो फिर यह लिखता कब है ?  वाल्मीकि की तरह कौन-सा ग्रंथ लिख दिया इसने, जो तुम लोगों ने इसे मंच प्रदान कर दिया है...? लेखक कह कहकर इसे सर पे बिठा लिया है...!’
        ‘एक नहीं दो नहीं, बल्कि चार किताबें लिख चुके हैं। इन्होंने....!’
‘क्या कहा चार-चार किताबें.. किसी की चोरी ही की होगी इसने...!’
‘हां हां चार किताबें- पांचवीं प्रेस में छप रही है!’ मैंने रणधीर को अधीर कर देना चाहा था- ‘तुम अखबार में लिखते हो, छपता है पर कितने लोग अखबार पढ़ते हैं, और कितने लोग तुमको जानते हैं गांव और थाने तक! ? ये देश-परदेश की पत्रिकाओं में लिखते हैं-छपते है, पूरे देश-परदेश के पाठक इनको जानते हैं.. और सुनो, तुम्हारे बारे में भी इन्होंने एक कहानी लिखी है- ‘औलादों वाली माँ’। कहानी तो मैंने पढ़ी नहीं है परंतु प्लॉट जो सुना था- तुम पर फिट बैठता है। हालांकि कहानी तुम्हारी हो सकती है और नहीं भी हो सकती है या फिर हममें से किसी की भी हो सकती है तो सुनो कहानी का प्लॉट- औलाद ही एक दिन औलादों वाली माँ को घर से बाहर हो जाने पर मजबूर कर देती है। वो बेटी-दामाद के घर में जाकर शरण लेती है। पति की मृत्यु उपरांत अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिली थी रीता देवी को, तब दोनों बेटों की उम्र आठ और दस साल की थी। अभी उसका दामाद ही उसके लिए बैसाखी बना हुआ था। वही हर दिन सुबह उसे काम पर ले जाता है और दोपहर को ले आता है। और उसके दोनों बेटे मौज कर रहे थे। पर देखो उस माँ की ममता को, हर माह दोनों बेटों को दस-दस हजार रुपए गुजारे के रूप में देती चली आ रही थी। जीवन में कभी ऐसे दिन भी देखने को मिलेगा रीता देवी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। जो औरत कहीं मर-मेहमानी में घर के दरवाजे के बाहर कदम रखने के पहले बेटा पुतोहू से यह पूछा करती थी कि घर में कार्ड- निमंत्रण आया था या नहीं- वही औरत बेेटी-दामाद के घर में रहकर काम करने जाने के लिए खुद को कैसे तैयार की होगी, रीता देवी से बेहतर कोई कह नहीं सकता था। उस दिन को वह मरते दम तक भूूल नहीं सकती। शाम को घर में काम को लेकर दोनों बेटों में झगड़ा हो गया। बड़े बेटे का कहना था कि छोटका घर का काम नहीं करता है और दिन भर पत्रकार बना फिरता है, वहीं छोटका का आरोप था कि दादा घर का काम छोड़ दिन भर मोदीआइन औरतों के पीछे पड़ा रहता है। बात इतनी बढ़ी कि रात को किसी ने खाना नहीं खाया। सुबह तो सब में शनि सवार हो गया। माँ के लिए खाना नहीं बना तो नहीं बना। अभी तक सुबह खाना छोटकी पुतोहू बनाती थी और माँ को काम पर छोड़ने बड़ा बेटा जाता था। उस दिन बड़ा बेटा अड़ गया, बोला- ‘काम पर जाओ चाहे न जाओ, अब यह काम हमसे नहीं होगा।’
‘चपरी में चोरी हो गयी  है, रिपोर्ट लेने मुझे वहां जाना है। और यह लाने-ले जाने वाला काम मुझसे नहीं होगा ..!’ कह वह भी घर से निकल गया। 
रीता देवी कपार पकड़कर आंगन में ही बैठ गई थी। जब याद आया उसे कि काम पर जाना है, तो चप्पल पहने और वह भी बिना खाये पिये चल दी। कोलियरी घर से पांच किलोमीटर दूर। भारी शरीर। चलते-चलते आधे रास्ते में दम फूलने लगा। बैठी फिर चली, फिर बैठी फिर चली। इस तरह हाजरी घर आधा घंटा लेट पहुंची। हालांकि हाजरी तो हाजरी बाबू ने बना दी, पर चार बातें भी सुना दी- ‘आज बना दी हमने, रोज-रोज ऐसा नहीं होगा...!’
लौटने के वक्त गांव के एक देवर ने बिठा लिया तो मरने से बची। घर में तनाव कम नहीं हुआ। दोनों बेटे अपने मन की करते रहे। दो दिन काम नागा चला गया। उसे क्रोध और चिंता दोनों हो रही थी, पर बेटे सुनने-मानने को तैयार नहीं। बेटी दामाद को बुलाया, पर कोई लाभ नहीं। न पत्रकार आगे आने को तैयार न बड़का मानने को राजी। 
‘चलिए, हमारे यहां रहिए। देखता हूँ कैसे रास्ता निकलता है।’ दामाद ने कहा।
भारी मन से रीता बेटी दामाद के साथ चली गई थी। तब से वहीं थी! फाइलेरिया रोग से पीड़ित रीता देवी के साथ जो कुछ हो रहा था और जिस तरह की जिंदगी वह गुजार रही थी, दो-दो बेटों की माँ के लिए बड़ी पीड़ादायक थी। फाइलेरिया रोग ने दोनों पैर और छाती को काफी क्षति पहुंचाई थी। पैर हाथी जैसे मोटे और छाती कोहंडे के समान हो चुके थे फिर भी वो उफ न करके काम पर आ जा रही थी। दो-दो बेटे क्या इसी दिन को देखने के लिए पाल पोसकर बड़ी की थी उसने कभी सोचा करती, परन्तु कहती किसी से नहीं। फिर भी दस-दस हजार रुपए गुजारे के लिए दे रही थी, यह सोच कर कि जो काम उसके लिए बेटी दामाद कर रहे हैं वो दिन आवे जब ये काम उसके लिए बेटा पुतोहू करें। पर कपार फूटा है उसकी जो उसका दुख बेटों को दिख नहीं रहा था। उल्टे माँ बहुत-कुछ देख सुन रही थी। सहारा तो बेटों को बनना चाहिए था माँ का। लेकिन माँ ही सहारा बनी हुई थी बेटों का। कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। बड़ा बेटा जो अब तक एक नंबर का जुआरी-शराबी और अय्यास बन चुका था, माँ के दिये उसी दस हजार से गांव की आठ-दस औरतों के साथ अवैध संबंध बना रखा था। इससे रीता देवी का मन आहत था। और किसी अज्ञात भय से डर भी रही थी। इतना दुख तो घर छोड़ने के समय भी नहीं हुआ था। इस तरह अवैध संबंधों का अंत को भला उससे बेहतर कौन जान सकता है। पति जब नौकरी में था। तो इसी तरह एक बंगालन लड़की के चक्कर में पड़ गया था। वो समझ रहा था लड़की उससे प्यार करती है पर उसे यह नहीं पता था कि उस जैसे दो-चार और के साथ लड़की का चक्कर है। सीधा-सीधा देह और दाम का खेल था। जब जाना तो जान से हाथ धोना पड़ा। एक दिन कोलियरी चेक पोस्ट के नजदीक नाले में बोरी में बंद मिली थी लाश उसकी।  तब तक चार बच्चे रीता देवी की गोद में डाल चुका था उसने। और तभी से रीता देवी जीवन के साथ संघर्षरत थी। उसी का एक बेटा गांव में खुद को पत्रकार कहते-जतलाते फिरता था और उसे पता नहीं था कि खुद उसकी माँ एक समाचार बन चुकी है...!’ 
संजय बाबू को एक जगह और कहीं  जाना था। संचालनकर्ता ने दो के बाद ही उन्हें अपना विचार रखने के लिए आमंत्रित किया तो उन दोनों का ध्यान भंग हुआ। रणधीर उठकर वहां से चल दिया था।
‘आज का जीवन बड़ा कठिन हो गया है!’ -संबोधन के बाद संजय बाबू ने कहना शुरू किया- ‘जीवन की भागदौड़ में मनुष्य को यह पता नहीं चल रहा है कि कौन कहां पीछे छूट गया और कौन उससे आगे निकल गया। सब इसी आपा धापी में लगा हुआ है। लोग जीने से अधिक दिखावे के मुरीद होते जा रहे हैं। इसके लिए भी उन्हें हर पल संघर्ष करना पड़ रहा है। ऐसे में मीडिया वाले पत्रकार और लेखकों का जिम्मेवारी काफी बढ़ जाती है। एक ओर जहां पत्रकार समाज का आईना होता है, वहीं लेखक समाज के लिए दगरीन का काम करता है। अगर पत्रकार बुराई के खिलाफ नहीं लड़ता-लिखता है और जिसमें उसका ही बदरंग चेहरा नजर नहीं आता है तो उस आईने को तोड देना चाहिए और हल थाम लेना चाहिए ताकि जीवन दर्शन को समझ सके। ठीक उसी प्रकार अगर लेखक की लेखनी में वो धार नहीं है जिसके दम पर कभी कई देशों में राज्य क्रांतियां हो चुकी है तो उसे लिखना छोड़ किसी कारखाने का मिल मजदूर बन जाना चाहिए। जहां लालच का वास, वहां सब बकवास.. धन्यवाद.!’
अर्जेंट कॉल का बहाना कर रणधीर आधा घंटा पहले जो निकला था, अभी तक सभा स्थल में लौटकर नहीं आया था। लगा खुद की कहानी की बात सुन वह डर गया था। कहावत है- चोर का चेहरा हमेशा डरा-डरा रहता है। निर्भय की हँसी वह कभी हँस नहीं सकता है। वही हाल रणधीर का था।
सभा समाप्त हो चुकी थी। अतिथि जा चुके थे। मैं अब भी रणधीर का इंतजार कर रहा था। उसे यह बताना चाह रहा था कि औलादों वाली माँ केवल तुम्हारी ही माँ नहीं है ...पर लौटकर आवे तब न!
रणधीर लौटकर तो नहीं आया। उसकी जगह एक सनसनी खेज खबर आई। सुनकर ही मेरे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए थे- रणधीर की माँ रीता देवी ने आत्महत्या की या हत्या कर दी गई! उसके गांव में हल्ला मचा हुआ था।
पुलिस पहुंच चुकी थी। जांच पड़ताल जारी थी ।
‘मैं तो कहती हूँ माँ को यहीं ले आओ, और नौकरी देने के लिए राजी कर लो!’
‘आजकल बदली में नौकरी मिलती कहां है?’
‘सुनते हैं मरने के बाद नौकरी मिल जाती है!’
कुछ दिन पहले रीता देवी को उसका बड़ा बेटा खिरू यह कहते हुए ले आया था कि- ‘माँ माफ करो, जो हुआ सो हुआ अब घर चलो, गांव में बड़ी बदनामी हो रही है। घर से ही काम पर आना-जाना करना। अब हम तुम्हें कोई तकलीफ होने नहीं देंगे!’
उसके ठीक साप्ताह दिन बाद खिरू चुपके से आफिस हो आया था। ‘माँ ने कहा है’ बोल के आफिस के बड़ा बाबू से सर्विस सीट में किसका-किसका नाम दर्ज है, देख आया था। और आज वही माँ पइन झांका रस्सी से घर के पिछवाड़े लटकी मिली थी।
माँ की हत्या के आरोप में शाम को पुलिस ने खिरू को गिरफ्तार कर लिया!

-बोकारो, झारखंड

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