मृदुला गर्ग की सामाजिक संवेदना से ओतप्रोत नाट्य रचना: ‘जादू का कालीन’

 


जादू का कालीन (नाटक), मृदुला गर्ग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण: 2022

भारतीय सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की जटिलताओं को नाट्य मंच पर प्रस्तुत करना साहित्य की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। मृदुला गर्ग का नाटक ‘जादू का कालीन’ इसी संदर्भ में एक प्रभावशाली कृति है, जो बिहार के एक ग्रामीण परिवेश से होकर पूरे देश के ग्रामीण समाज के विकास के नाम पर चल रहे छल-प्रपंच और सामाजिक विसंगतियों का मार्मिक चित्रण करता है। यह नाटक व्यंग्यात्मक शैली में सामाजिक भ्रष्टाचार, सत्ता की राजनीति और जनता के शोषण की गहरी जांच-पड़ताल करता है। ‘जादू का कालीन’ ग्रामीण भारत के एक गाँव की कथा के माध्यम से विकास के नाम पर किए जा रहे स्वार्थपूर्ण राजनीतिक खेलों और सामाजिक पाखंडों का सजीव चित्रण प्रस्तुत करता है। अधिकारी, समाजसेवी और पत्रकार जैसे पात्र सत्ता और मीडिया के द्वैध चरित्र को उजागर करते हैं, जबकि सामान्य जनता विकास के दावे और वादों के बीच अपनी वास्तविकता से अनजान बनी रहती है।

       संरचना और संवादों की प्रामाणिकता नाटक की प्रभावशीलता को बढ़ाती है। नाटक सामाजिक जागरूकता, प्रतिकार और समतामूलक समाज की स्थापना के प्रति एक स्पष्ट संदेश देता है। यह कृति न केवल हिंदी नाट्य साहित्य में अपनी विशिष्टता रखती है, बल्कि आज के समय में भी सामाजिक-राजनीतिक विमर्श के लिए प्रासंगिक बनी हुई है। ‘जादू का कालीन’ हमें सतर्क करता है कि सतही विकास के पीछे छिपे सामाजिक अन्याय और भ्रष्टाचार को समझना और उसके विरुद्ध सामूहिक आवाज़ उठाना कितना आवश्यक है।

       जादू का कालीन की कथा बिहार के एक गाँव की पृष्ठभूमि पर आधारित है, किंतु इसकी व्यापकता पूरे देश के ग्रामीण परिदृश्यों से अस्वाभाविक रूप से जुड़ी हुई है। नाटक का केंद्रबिंदु हैविकास के नाम पर हुए दम्भपूर्ण वादे और उनके पीछे छिपी सत्ता की राजनीति। यह नाटक सत्ता-संरचना की परतों को खोलते हुए उन कुरीतियों और पाखंडों का तीव्र व्यंग्य करता है, जो आम जनमानस के जीवन को प्रभावित करते हैं। नाटक का शीर्षक— ‘जादू का कालीन’  ही एक रूपक के रूप में विख्यात होता है, जो दिखावे की चमक के पीछे छिपे खोखलेपन को दर्शाता है। विकास का यह कालीन केवल गाँव की मिट्टी को नहीं संवारता, बल्कि जन-साधारण के अधिकारों और आकांक्षाओं को कुचल देता है।

      मृदुला गर्ग ने पात्र निर्माण में सामाजिक वर्गों की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक समझ का परिचय दिया है। अधिकारी वर्ग भ्रष्टाचार और सत्ता के खेल का प्रतीक है, जबकि समाजसेवी पात्र सेवा के नकाब में स्वार्थ की राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं। पत्रकार पात्र का द्वैध चरित्र मीडिया की स्वतंत्रता और नैतिकता के प्रश्नों को उठाता है। गांव के सामान्य लोग, जिनकी मासूमियत और संघर्ष नाटक की भावनात्मक आधारशिला हैं, वे दर्शाते हैं कि किस प्रकार विकास के नाम पर हो रहे दम्भपूर्ण दावों में वे खो जाते हैं और अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। ये पात्र नाटक को यथार्थ का संवेदनशील दस्तावेज़ बनाते हैं।

      यह नाटक पारंपरिक ग्रामीण संवाद शैली और समकालीन व्यंग्यात्मक भावों का समन्वय प्रस्तुत करता है। संवादों की सहजता, स्थानीय बोली का प्रभाव और व्यंग्य की तीव्रता नाटक की साहित्यिक गरिमा को बढ़ाते हैं। नाटकीय मंच पर प्रस्तुतिकरण के लिए यह कृति सक्षम और प्रभावशाली प्रतीत होती है। मृदुला गर्ग ने सामाजिक यथार्थ को भावपूर्ण संवादों और दृश्यों के माध्यम से केवल दर्शाया है, बल्कि उसमें व्याप्त विडम्बनाओं पर एक चुभती हुई टिप्पणी भी प्रदान की है। जादू का कालीन भारतीय ग्रामीण विकास की कल्पना और वास्तविकता के बीच के विरोधाभास को चुनौती देता है। यह नाटक सत्ता, मीडिया और समाज के अंतर्संबंधों की जटिलताओं को भी सामने लाता है, जहाँ मीडिया कभी-कभी सत्ता का सहायक बन कर जन-स्वर दबा देता है। विकास का यह मिथक जो सामाजिक न्याय और समानता के स्थान पर भ्रष्टाचार और सत्ता के कदाचार को जन्म देता है, इस नाटक में क्रूरता से उजागर हुआ है। नाटककार ने समतामूलक समाज की स्थापना की परिकल्पना प्रस्तुत की है, जिसे जागरूकता, प्रतिकार और सामाजिक एकता के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

      जादू का कालीन केवल एक नाटक नहीं, बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज़ और चेतावनी है। मृदुला गर्ग की लेखनी ने ग्रामीण भारत की उस जटिल सामाजिक ताना-बाना को उकेरा है, जो विकास के नाम पर उपेक्षा और अन्याय की आंधी में बहता रहा है। यह कृति हिंदी नाट्य साहित्य में सामाजिक व्यंग्य की एक प्रभावशाली मिसाल है, जो केवल पाठकों और दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है, बल्कि उन्हें सामाजिक जागरूकता और बदलाव के लिए प्रेरित भी करती है। अतः जादू का कालीन का यह सशक्त संवाद आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना यह नाटक पहली बार मंचित हुआ था। यह हमें सतर्क करता है कि सतही चमक-धमक के पीछे छिपे सच्चे सामाजिक संघर्षों को देखना और समझना आवश्यक है, तभी हम एक न्यायसंगत, समतामूलक समाज की ओर बढ़ सकते हैं।


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