पूजा सचिन धारगलकर

किन्नर जीवन: दर्द भरी दास्तान

किन्नर’ नाम सुनते ही आपके दिमाग में अवश्य लज्जा का भाव आया होगा। लेखन तो दूर, नाम लेने मात्र से लोग कतराते हैं। शायद आपने भी यह भाव महसूस किया हो। ‘किन्नर’ शब्द सुनते ही हमारे मस्तिष्क में एक मनोग्रन्थि बन जाती है। ‘किन्नर’ शब्द पर मैंने इसलिए विशेष जोर दिया ताकि आपका ध्यान आकर्षित हो सके और आप इस शब्द से परे जाकर सोचने और समझने की  दृष्टि उत्पन्न कर सके। किन्नर समाज जिसके साथ बिल्कुल उपेक्षित सा व्यवहार किया जाता है, उपहास उड़ाया जाता है, उसको आज सम्मान की दरकार है। वे आम आदमी की तरह जीने का अधिकार रखते हैं। आक उनकी व्यथा-कथा, समस्याएँ, उपेक्षा और तकलीफ से हमारे समाज को रूबरू होने की अवश्यकता है। उनको भी समाज की मुख्य धारा, मुख्य समाज में रहने, जीने का अधिकार है। आज साहित्य उनकी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए तरस रहा है, किंतु उसको उचित अभिव्यक्ति नहीं मिल पा रही है।                  सामाजिक पूर्वाग्रह से युक्त हमारा तथा-कथित समाज इस प्रजाति को हेय और गृणित दृष्टि से देखता है। ऐसे कई अवसर आते हैं, जब उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। चाहे विद्यालय हो, प्रशिक्षण संस्थान हो या फिर नौकरी देने की बात हो, उनके साथ उपेक्षित व्यवहार किया जाता है। हमारे गरिमामय भारतीय संविधान में इस बात का साफ-साफ उल्लेख है कि जाति, धर्म, लिंग के आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन फिर भी इन लोगों के साथ यह भेदभाव क्यों किया जाता है। इस संसार में नर-नारी के अलावा और भी एक अन्य वर्ग है जो न पूरी तरह नर होता है और न नारी होते है, जिसे लोग ‘हिजड़ा’, ‘किन्नर’ या फिर ‘थर्ड जेंडर’ के नाम से भी जानते है। ‘हिजड़ा’ जिनके बारे में जानने की उत्सुकता हमेशा लोगों के अंदर होती है। शास्त्र की बात करे तो ऐसा माना जाता है की किन्नर की पैदाइश अपने पूर्व जन्म के गुनाहों की वजह से होती है। वैसे देखा जाए तो सभी नाम एक दूसरे के पृथक है या कहे की समानांतर है। फिर भी अध्ययन करने पर उसमें भेद किया जा सकता है। किन्नर एक जाति का भी नाम है जो हिमालय के कनौर प्रदेश (हिमवत और हेमकूटी) में रहते हैं। उनकी भाषा ‘कनौरी’ है। ‘‘हिजड़ा उर्दू शब्द है और किन्नर हिन्दी शब्द है। आज के समय में सरकार एवं सामाजिक संगठन ने इसे ‘ट्रांसजेंडर’ नाम दिया है यानि की तीसरा लिंग अर्थात तृतीय प्रकृति के लोग। हर राज्य में उन्हें अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है जैसे ‘तेलगु-नपुंसकुडु, कोज्जा या मादा, तमिल - थिरु नंगई, अरावनी, अंग्रेजी में Eunuch / Hermaphrodite / LGBT गुजरती- पवैय्या, पंजाबी-  खुसरा, कन्नड-जोगप्पा भारत के अन्य जगह पर हिजरा, छक्का, किन्नर, खोजा, नपुंसक, थर्डजेंडर आदि’’1 वैसे इनका इतिहास काफी पुराना है। रामायण महाभारत के समय से हिजड़ों का इतिहास चला आ रहा है। रामचरितमानस में भी किन्नरों का उल्लेख मिलता है। वनवास जाते समय श्री राम अपने पीछे आए छोटे भाइयों सहित सभी स्त्री एवं पुरुष वापस लौट जाने के लिए कहते हैं। आदेश का पालन करते हुए सभी स्त्री एवं पुरुष वापस अयोध्या लौट आने को कहते हैं, किन्तु मध्य लिंगी अर्थात हिजड़े वापस नहीं लौटते। 14 वर्षों के बाद वनवास से वापस लौटते समय श्रीराम ने उनसे वहाँ रुके रहने का कारण पूछा, तब श्रीराम के कथन को किन्नरों ने स्पष्ट किया कि प्रभु आपने नर और नारी को वापस जाने की अनुमति दी थी, किंतु हमारे संबंध में कोई आदेश नहीं किया था। इस प्रसंग का उल्लेख रामचरितमानस में तुलसीदासजी करते हैं-
‘‘जथा जोगु करि विनय प्रनामाँ बिदा किए सब सानुज रामाँ।
नारि पुरुष लघु मध्य बडेरे। सब सनमानि कृपानिधि फेरे॥
इसका उल्लेख ‘किन्नर कथा’ उपन्यास में महेंद्र भीष्म ने भी किया है। कहा जाता है कि हिजड़ों की इस निश्चल एवं निस्वार्थ भक्ति भावना को देखकर श्रीराम ने उन्हें वरदान किया कि कलयुग में तुम्हारा ही राज होगा और तुम लोग जिसको भी आशीर्वाद दोगे, उसका अनिष्ट नहीं होगा। रामचरितमानस में ही श्रीराम की भक्ति के संबंध में पात्रता का उल्लेख करते हुए लिखा कि- 
पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोई। 
सर्व भाव भज कपत तजि, मोहि परम प्रिय सोई॥ 
अर्थात् चराचर जगत में कोई भी जीव हो, चाहे वह स्त्री, पुरुष, नपुंसक, देव, दानव, मानव तिर्यक इत्यादि हो। अगर वह सम्पूर्ण कपट को त्यागकर मुझे भजता है, वह मुझे प्रिय है। रामायण काल में किन्नर वर्ग की विशेष उपस्थिति थी। 
महाभारत में किन्नर के रूप में शिखंडी तथा बृहन्नला (अर्जुन) का उल्लेख मिलता है। अर्जुन ने शिखंडी को ढाल बनाकर ही भीष्म पितामह का वध करने में सफलता पायी थी। शिखंडी को सामने देखकर भीष्म पितामह ने कहा कि वह एक नपुंसक से युद्ध नहीं कर सकते और अपने शस्त्र नीचे डाल दिए थे’’2  मुगल काल में राजा युद्ध जाने पर रानियों की देखभाल किन्नर करते थे। पहले कभी उनका अनादर नहीं हुआ। पौराणिक ग्रंथों, वेदों, पुराणों और साहित्य तक भी किन्नर हिमालय के क्षेत्र में बसने वाली अति प्रतिष्ठित व महत्त्वपूर्ण आदिम जाति हैं। 
किन्नर की शव यात्रा रात्रि के समय निकलती है, किन्नर मुर्दों को जलाया नहीं जाता बल्कि उन्हें दफनाया जाता है। चौंका देने वाली बात यह है कि वह किसी दूसरे किन्नर से नहीं बल्कि वह अपने भगवान से शादी करते हैं। जिन्हें अरावन के नाम से भी जाना जाता हैं। उन्हें शव पर किसी की भी नजर न पड़े यह मान्यता है। उनके शव को चप्पलों से मारा जाता है जिससे पिछले जन्म के जो भी पाप हैं, वह सब मिट जाए। उनके गुरु ही उनके परवर हैं। गुरु से ही वह शिक्षा पाते है। 
किन्नर कहलाना किसी मर्द को अच्छा नहीं लगता, वह शब्द पिघला शीशा सा कानों में उतरना है और किन्नर को हिजड़ा कहने से उन्हें गाली लगती क्योंकि यह अपमान करने वाला शब्द है, पर कहीं अंतस तक उसके मन में कचोट जरूर होती है। आखिर ईश्वर ने उसके साथ अन्याय क्यों किया? क्यों हम उन्हें अपने से दूर सामाजिक दायरे से बाहर हाशिए पर रखते चले आ रहे हैं, उनके प्रति हमारी सोच में अश्लीलता का चश्मा क्यों चढ़ा रहता है, किसी हत्यारोपी के साथ बेहिचक घूमने, टहलने या उसे अपने ड्राईंग रूम में बैठकर उसके साथ जलपान करने से हम नहीं हिचकते हैं, फिर किन्नर तो ऐसा कोई काम नहीं करता, जो कि एक हत्यारोपी करता है तो हम किन्नरों से क्यों हिचकते हैं। वे हमारी तरह अपनी माँ की कोख से जन्मे अपने पिता की संतान हैं। वे ज्यादा नहीं माँग रहे हैं। ‘हमें किन्नर नहीं, इंसान समझा जाए। बस इतनी से माँग है।’ 
स्त्री पुरुष की संरचना प्रकृति प्रदत्त है। जैविक आधार ने स्त्री-पुरुष और तृतीय लिंगी को शारीरिक-मानसिक भिन्नता प्रदान की है। मानव समाज में परस्पर भिन्न लिंगी मनुष्य एक-दूसरे के पूरक और सहयोगी रहे हैं, किन्तु मानव सभ्यता के विकास से ही लिंग भेद के कारण दमन, अन्याय, शोषण और असमानता का लंबा इतिहास भी है, विशेषकर तृतीय लिंगी समुदायों को एक समान नागरिक अधिकार प्राप्त हैं। उन्हें समाज या परिवार से वंचित नहीं रहना पड़ता है, क्योंकि सार्वजनिक और सरकारी कार्यों में उन्हें दोयम दर्जे से नहीं देखा जाता। पुरुष सत्तात्मक भारतीय समाज में लिंगविहीन लोगों को बहिष्कृत किया जाता है तथा उसके साथ मनुष्य कि तरह व्यवहार भी नहीं किया जाता, बल्कि उन्हें क्रूरता, मर्मात्मक पीड़ा और दर्दनाक स्थितियों का सामन करना पड़ता है। नयी सदी की कहानियों में तृतीय लिंगी समुदाय का ध्यान आकर्षक होना तथा उनकी अस्मिता को उद्घाटित करना नए यथार्थ की शरुआत है। हम भी इंसान है किन्नरों पर आधारित कहानियों का विशिष्ट संग्रह है। किन्नर समुदाय का परंपरागत पेशा अपनाना उनकी विवशता है। उनके पास शिक्षा के साधन नहीं है और न रोजगार प्राप्त करने के अवसर मिल पाते हैं। उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित रखा जाता था। अपमान और अलिंगी देह को लेकर उनका संघर्ष जन्म से लेकर मृत्यु तक चलता है। उन्हें स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार ही नहीं है बचपन में जब उन्हें किन्नर होने का पता चल जाता है तब उन्हें किन्नर समुदाय में भेजा जाता है। सबसे बड़ा गुन्हा उनके साथ होता है। इस प्रकार का भेद भाव पशु-प्राणियों में नहीं है, मनुष्य एक घातक प्राणी है, मौका देखकर वार करता है किसी को ऊपर उठने नहीं देता बल्कि और नीचे दफनाने की कौशिश करता है। अपने ही अपनों के द्वारा घिराये जाते है। किसी के प्रति कोई संवेदना नहीं है। हम किसी के दुख का सहारा नहीं बनते बल्कि किसी के दुख को और कैसे बढ़ाया जाए बस इसी का मौका हम तलाशते रहते है। हर किसी को अपने हिसाब से जीने का अधिकार है किसी का दूसरों पर कोई अधिकार नहीं है, लेकिन अपने अहं के कारण हम दूसरों पर वर्चस्व करते है। अपना अधिकार जताते है। आज हम फॉर्म भरते है उसमें स्त्री, पुरुष तथा अन्य ऐसे लिखा होता है हमने अन्य में उन्हें जगह दी लेकिन हमने अपने साथ स्वीकार नहीं किया। 
किन्नर’ शब्द को पढ़ा जाए तो मुश्किल से एक या दो सेकंड लगेंगे और समझने की कोशिश की जाए तो पंद्रह-बीस मिनट में कोई जानकार यह आसानी से समझा देगा कि किन्नर कौन होते हैं? वही किन्नर जिन्हें हम हिजड़ा या छक्का कहते है। मगर शायद ही हम इस दर्द को जानते हो। इसी दर्द को किन्नर को अपने सीने में दबाकर आम लोगों के सामने हथेली पीटने हुए नाचते हैं, दूसरों का मनोरंजन करते है। दूसरों को आशीर्वाद देते है और उसके बदले अपने हिस्से में दर्द दुख बटोरते है। लोगों से नफरत प्रताड्ना सुनते है लेकिन चेहरे पर हमेशा हँसी होती है। दो वक्त की रोटी के लिए ठुमका लगाते  और ताली पीटते। समाज से बहिष्कृत कर दिया गया, अपना एक ही धर्म मान लिया गया नाचना, गाना, ताली पीटना। 
नाला सोपारा’ उपन्यास के माध्यम से हिजड़ों के जीवन से संबन्धित व्यक्तिगत एवं सामाजिक सरोकारों को पाठक के सामने परत खोलते हुए प्रस्तुत करने का प्रयास हैं। इस उपन्यास के लेखन के संदर्भ में चित्रा मुद्गल कहती हैं- ‘‘लंबे समय से मेरे मन में पीड़ा थी। एक छटपटाहट थी, आखिर क्यों हमारे इस अहम हिस्से को अलग-थलग किया जा रहा है। हमारे बच्चों को क्यों हमसे दूर किया जा रहा है। आजादी से लेकर अभी तक कई रूढ़ियाँ टूटी लेकिन किन्नरों के जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया। उपन्यास एक बड़ा प्रश्न उठता है कि लिंग-पूजक समाज लिंगविहीनों को कैसे बर्दाश्त करेगा? उपन्यास इस प्रश्न पर गंभीरता से सोचने को विवश करता है कि आखिर एक मनुष्य को सिर्फ इसलिए समाज बहिष्कृत क्यों होना पड़े कि वह लिंग दोषी है?’’ 
समाज में मनुष्यता आज हाशिये पर है और हाशियाकरण की यह प्रक्रिया लंबे समय से मानवाधिकारों के हनन के रूप में सामने आती है। गुलाम मंडी उपन्यास में समाज ऐसा है जिसे अक्सर हम देखना पसंद नहीं करते। परंतु क्या यह समस्या का समाधान है क्या कबूतर के आँख बंद कर लेने से बिल्ली उसे नहीं खाएगी। उसी तरह हमारा आँखों को बंद कर लेना भर मानव तस्करी, यौन शोषण और यौन कर्मियों की समस्या का समाधान नहीं होगा। अक्सर लड़कियां इसमें फँसने के बाद बाहर आने का प्रयास नहीं करती और करती भी है तो इस डर से आगे नहीं आती, कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा। उपन्यास में जानकी के माध्यम से लेखिका इस समस्या पर रोशनी डालती हैं और समाज की मानसिकता में बदलाव की बात करती है ताकि यह लड़कियां वापस आ सके और सम्मानपूर्वक जीवन जी सके। 1974 में जे. बी लेखिका उस व्यक्ति से मिली और उन्होंने अपने जीवन की व्यथा बताई लूले, लंगड़े बहरे होते है उन्हें घर से कोई बाहर नहीं निकालता लेकिन किन्नर जब लिंग से विकलांग पैदा होते ही उन्हें घर से बाहर निकाल दिया जाता है बिना कोई दोष के। किन्नर समाज के लोग अपनी अलिंगी देह को लेकर जन्म से मृत्यु तक अपमानित, तिरस्कृत और संघर्षमयी जीवन व्यतीत करते है तथा आजीवन अपनी अस्मिता की तलाश में ठोकरे खाते हैं। असीम यातनाओं की सजा उन्हें क्यों दी जाती है। यह लोग परिवार और समाज के साथ नहीं रह सकते इनके लिए शिक्षा, स्वास्थ सेवाओं और सार्वजनिक स्थानों पर पहुँच प्रतिबंधित है। अभी तक उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में प्रभावी ढंग से भाग लेने से बाहर रखा गया है। राजनीति और निर्णय लेने की प्रक्रिया उनकी पहुँच से बाहर है। 2014 में एक ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच न्यायालय में उन्हें अधिकार देने कि बात कही, लेकिन कहा उन्हें उनका अधिकार मिला।  शरीर एक पुरुष का, भावनाएँ एक नारी की अपनी असल पहचान स्थापित करने के लिए सहसपूर्ण संघर्ष की अद्भुत जीवन यात्रा जो 23 सितंबर, 1964 में शुरू होती है। जब दो बेटियों के बाद चितरंजन बंद्योपाध्याय के घर बेटा पैदा हुआ। बेटे सोमनाथ के जन्म के साथ ही पिता के भाग्य ने बेहतरी की ओर तेजी से ऐसा कदम बढ़ाया की लोग हँसते हुए कहते कि अक्सर बेटियाँ पिता के लिए सौभाग्य लाती हैं, लेकिन इस बार तो बेटा किस्मत वाला साबित हुआ। वे कहते हे चित्त! यह पुत्र तो देवी लक्ष्मी है। सोमनाथ जैसे-जैसे बड़ा होता गया उसमें लड़कियों जैसे हरकते, भावनाएँ पैदा होने लगी और लाख कोशिश करने के बाद दबा नहीं सकीं। बिना माता-पिता को बताए घर से बाहर निकल पड़ी।  बेशक, भारत में कानूनन तौर पर थर्ड जेंडर को मान्यता मिल गयी हो मगर भारतीय समाज ने अभी भी तीसरे लिंग वर्ग को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया है। आज भी समाज में तिरस्कार, हिन भावना और अपमान की नजरों से देखा जाता है। देश की पहली ट्रान्सजेंडर महिला प्रिन्सिपल बनी जिन्होंने विपरीत सामाजिक परिस्थितियों में अपने संघर्ष के बूते पर मुकाम हासिल किया। वर्तमान में मनोबी पश्चिम बंगाल के कृष्ण महिला कॉलेज में बतौर प्रिन्सिपल कार्यरत है। 5-6 साल की उम्र में लड़कियों के कपड़े पहनना अच्छा लगता था। वह कपड़े पहनने से माँ डाँटती लेकिन वह कपड़े पहनकर तृप्त सी हो जाती। जब स्कूल में पढ़ती थी तब तो उनसे कोई दोस्ती नहीं करता था यदि स्कूल नहीं जाती तो बीते दिन की पढ़ाई के बारे में नहीं बताता। ग्रेजुएशन में दाखिला लेने पर भी मजाक बनाया गया। 1995 में उन्होंने पढ़ाना शुरू किया। बच्चों ने नहीं सताया उतना अन्य शिक्षकों ने उन्हें दुख दिया। ट्रांसजेंडरों के लिए पहली पत्रिका निकली थी ‘ओब-मानब’ जिसका हिन्दी में अर्थ है ‘उप-मानव’। 2003 साल में उन्होंने सेक्स बदल दिया। 2006 में पीएच.डी. की। तिरस्कार का घूंट पल-पल पिती रही।  उनकी मदद कोई नहीं करता। उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर से बहुत कुछ सीखा है। ट्रांसजेंडर सामाजिक भेदभाव के कारण पढ़ाई से दूर हो जाते है और पूरी जिंदगी नाचकर ही गुजारा करते है। लेकिन कभी भी जीवन में हार नहीं मानी एक बच्चे को गोद लिया ‘देबाशीश’ नाम है। उन्हें जीवन दिया एक माँ को बच्चा मिला और एक बच्चे को उसकी माँ। अपना जीवन एक कैद की तरह जीने के लिए मजबूर है। रोज आँसू के घूंट पीते है। क्या क्या नाम नहीं दिया उन्हें कोई कहता हिजड़ा, किन्नर छक्का, थर्ड जेंडर, आदि।
अधूरी देह क्यों मुझको बनाया
बता ईश्वर तुझे ये क्या सुहाया
किसी का प्यार हूँ न वास्ता हूँ
न तो मंजिल हूँ मैं न रास्ता हूँ
अनुभव पूर्णता का न हो पाया
अजब खेल यह रह-रह धूप छाया”
हिजड़ों की न आवाज है, न नाम है ना परिवार, इतिहास, प्यार, सोच, ना खुशी, ना गम, ना हक ना व्यक्तित्व। किन्नर अदृश्य है न केवल हमारे मुख्यधारा के समाज में बल्कि समाज के मन-मस्तिष्क के भीतर भी। जीवन में मनुष्य आदमी बनकर जन्म लेता है इसमें स्त्री और पुरुष दोनों आते है लेकिन मनुष्य के कर्म चाहे वह अच्छाई हो या बुराई लेकिन अपने कर्मों से मनुष्य से इंसान बनते है और यही से इंसानियत शुरू होती है। एक स्त्री को हमेशा से उपेक्षित किया गया है और हम आधुनिक समाज में इस बात को भले बदलने की कोशिश करे अगर हम ऐसा सोचते है तो हम गलत है। कुछ समाज में ऐसे भी लोग है जिनकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया वह है ‘किन्नर समाज’। देवता को भी जन्म लेने के लिए स्त्री का गर्भ चाहिए ईश्वर भी स्त्री का ऋणी होता हैलेकिन हम स्त्री के अस्तित्व को बार-बार भूलते है क्यों? यह प्रश्न पूरे मानव समाज से है। 
किन्नर नाम सुनते ही लोग हँसते हैं, मुँह फेरते हैं देखकर भागते हैं, उन्हें अपशब्द कहते है... लेकिन हम यह क्यों भूल जाते है कि यह हमारे ही तरह साधारण इंसान है उन्हें भी जीने का और एक सम्मान का अधिकार है, लेकिन सम्मान की तो बात दूर हम आज भी उन्हें मनुष्य के रूप में अपना नहीं सके हम दूसरे ग्रह से कोई अजनबी की तरह बुरी नजर से देखते है। लेकिन हम बार-बार क्यों भूल जाते है हम किसी को सुख दे नहीं सकते तो दुख देने का भी हमे अधिकार नहीं है किसी को अच्छे शब्द बोल नहीं सकते तो बुरा भी बोलने का हमें अधिकार नहीं है। जानवर स्वावलंबी होते है लेकिन मनुष्य ऐसा प्राणी है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक परस्वावलंबी होता है, लेकिन फिर भी अपने आप को महान समझते है। अक्सर हम कहते है इस संसार की रचना ईश्वर ने की है हम ईश्वर के संतान है लेकिन हम ईश्वर की रचना पर संदेश कर रहे है। हमने अपने बच्चियों को मार दिया कूडे दान में फेक दिया भ्रूण हत्या की। लेकिन उन्होंने बच्चियों को कूड़ेदान से उठाकर उन्हें सुरक्षा प्रदान की। उन्हें पनाह दी उन्हें पढ़ाया, लिखाया समाज में रहने के काबिल बनाया। अपने पराए हो गए लेकिन अजनबी ने उन्हें नाम दिया। सिर्फ जन्म देने वाली माँ नहीं होती। पुरुष को भी उतना ही अधिकार है वह भी बच्चों को पाल सकते है। 
हम शादी, बच्चे के जन्म पर उन्हें घर बुलाते है, क्योंकि वह आशीर्वाद देते है नाचते है लेकिन इनका जन्म सिर्फ इसी लिए हुआ है। यहाँ तक भीख माँगने के मार्ग तक पहुंचा दिया क्यों हम भील जाते है ऊँठा जन्म सिर्फ इसी के लिए नहीं हुआ। उन्हें भी स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार है। कोई उन्हें नौकरी घर नहीं देता, अपना घर परिवार होते हुए भी अपने उन्हें नहीं अपनाते। कोई किराए का घर भी नहीं देता झोपड़ियों में रहने के लिए विवश है। स्टेशन, घर-घर रास्ते पर भिख माँगते है लेकिन, लोग वहाँ पर भी धिक्कारते है। डरते कहते है ‘‘ताई मला बघून तुम्ही नाराज तर झाले नहीं नाआ’’ और लोग भागते है गालियाँ देते है मुह पर दरवाजा बंद करते हैं।  हमारे समाज में रहने वाले भाई, पिता, चाचा, मामा उनके पास जाते है लेकिन 'sex worker' का ठप्पा उन पर क्यों ? वह अभिशप्त जीवन जीने के पीछे जिम्मेदार कौन है ?
किसी भी तरह का आवेदन फार्म भरते समय एक कॉलम आता है जेंडर यानि लिंग का, जिसमें विकल्प होता है महिला, पुरुष और अन्य। ‘अन्य’ के रूप में जगह मिल गयी लेकिन समाज में उन्हें जगह नहीं मिली। किन्नरों की यह शोचनीय स्थिति, आधुनिकता, समानता और मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता का दम भरने वाले समाज के मुँह पर जोरदार तमाचा है। भले हम आज अपने आप को मॉडर्न आधुनिक कहे लेकिन सोच विचारों से हम आज भी पिछड़े है। कोई खिलाड़ी जब गेंद को बेट से हिट करता तब सब छक्का मारा कहते है लेकिन इस बात को सकारात्मकता से देखते है लेकिन हमे छक्का यह शब्द गाली की तरह नकारात्मक दृष्टि से क्यों देखा जाता हैं। मनोबी ने बचपन में यह प्रश्न अपनी माँ से पूछा था, तब माँ ने उत्तर दिया था उनका बॉल बाउंड्री से बाहर जाना सकारात्मक है लेकिन यह शब्द तुम्हारे लिए उंपदेजतमंउ इवनदकंतल से बाहर कर दिया जाना हैं। उनके साथ कितने शोषण होते है लेकिन कोई उनके दुख को नहीं समझता। अपने जीवन को अभिशाप की तरह जीने के लिए मजबूर है। दर-दर भटकने के लिए मजबूर है। हम अपने देह को लेकर बहुत इतराते है लेकिन समझ, संवेदना, दुखकातरता नहीं है। हमने अपने बेटियों जन्म के बात कूड़ेदान में फेंक दिया। वही वे लोग बच्चे को पाने के लिए तरसते है। उन्हें घर, परिवार देते है, प्यार देते है नयी जिंदगी देते है शिक्षा देते है। शुभ अवसर पर उनकी जरूरत होती है, उनका आशीर्वाद हमारे लिए मूल्यवान है लेकिन वह नहीं। अगर देखा जाए तो बुराई उनमें नहीं हममें है, हमारे दृष्टिकोण विचारों में है। हमने उनके प्रति हमारे मस्तिष्क में गलत विचारधारा बनाई है। 
किन्नरों ने दिया शाप लगता है ऐसे लोग कहते है लेकिन यह सही है जिनको हमने जन्म से दुख दिया दुखी आत्मा के हृदय से निकला शाप तो जरूर लगेगा। वह एक दुखी आत्मा है। ईश्वर के रूप में अर्धनारीश्वर शिव को हम पूजते हैं, लेकिन उनको नहीं अपनाते। जितनी प्रताड़ना उनको पहले नहीं हुई उतना दुख हम आज उन्हें दे रहे है। कोई ठीक से नहीं बोलता, साथ में कोई नहीं बैठता जब किसी आम व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है तब कितना बुरा लगता है। किसी ने कुछ कहा हम सहन नहीं कर सकते फिर वह तो दिन-रात लोगों की नफरत सहते है। उनकी शव यात्रा रात में निकलती है ताकि किसी भी मनुष्य की नजर उन पर ना पड़े अन्यथा अगले जनम में फिर से किन्नर का जन्म होता है। मृत्यु के समय उन्हें चप्पल से मारा जाता है। अपने जीवन में वे कितना दर्द सहते है। मृत्यु के बाद भी। कितने होशियार होते है कितनी कलाएं उन्हें आती है वे गाते है नाचते है और भी कई चिजे उन्हें आती है लेकिन हमने उन्हें सामने आने का कभी मौका ही नहीं दिया। 
कोई भाड़े का घर भी नहीं देते आज हमने झुग्गी बस्ती में रहने के लिए विवश कर दिया है। पैसे माँगने पर लोग कहते है पैसे नहीं कमा सकता भिख माँगने की आदत पद चुकी है लेकिन इस बात पर विचार किया जाए तो मुफ्तखोरी भी हमीने उन्हें सिखायी हैं। अगर कोई काम, नौकरी घर परिवार नहीं रहा तो कोई व्यक्ति क्या करेगा... जो दूसरों को आशीर्वाद देते हैं, उन्हें आशीष देते हैं, उनकी झोली भर देते हैं... लेकिन उनके दुख को कोई नहीं समझता। कितना बुरी तरह सुलूक किया जाता है। हमने उन्हें मरने की कगार पर पहुँचा दिया है। उनके आँसू किसी को नहीं दिख रहे कि वह किस परिस्थिति से गुजर रहे हैं। 

संदर्भ:
1.http://hi-m-wikipedia-org/wiki/fdUuj      
2. पुरुष तन में फंसा मेरा नारि मन, - मनोबि बंदोपाद्याय, राजपाल एंड सन्ज, 2018   
3. थर्डजेंडर विमर्श: संपादक शरद सिंह, सामयिक प्रकाशन, 2019
4. चित्रा मुद्गल, पोस्ट बॉक्स नं नलसोपारा, सामयिक पपेरबॉक्स
, 2017  
 
-ई.डब्ल्यू.एस 247, हाउसिंग बोर्ड रुंमदामोल, दवर्लिम सालसेत (गोवा) -403707
 

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