डॉ. अंकित अभिषेक

 सत्ता के विकासात्मक आईने में मातृसत्ता का रूप

सत्ता शब्द का प्रयोग आम बोलचाल की भाषा में या दैनिक व्यवहार में किसी पद विशेष के लिए किया जाता है। राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, धार्मिक इन सब की सत्ता होती है और विशेष रूप से सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं की संकल्पना को साकार करने के लिए जो व्यवस्था को चलाने वाला तंत्र होता है उसे सत्ता कहा जा सकता है। आदिम काल से ही पूरे दुनिया में सभ्यता के विकास का इतिहास स्त्री के दमन एवं शोषण का भी इतिहास माना जा सकता है। पूरी दुनिया में स्त्री वर्ग का शोषण कहीं ना कहीं आदिकाल से ही देखने को मिलता है। वर्तमान में भी स्त्री अपने अधिकारों के लिए कहीं न कहीं इस शोषण से लड़ती हुई दिखाई दे रही है। मानव सभ्यता के आरंभ से ही इंसान समूह में रहना पसंद करता है उस समय घर का कार्य जैसी कोई अलग से व्यवस्था नहीं थी। प्रारंभ में पुरुष और स्त्री मिलकर शिकार करते थे और मछली पकड़ना, भोजन इकट्ठा करने जैसे कार्य सिम्मलित रूप से किया करते थे। यद्यपि सभ्यता के आरंभ से ही स्त्रियां अक्सर शिकार पर जाती थी। किंतु गर्भधारण करने के दौरान वह बच्चे के बड़े होने तक वह काफी लंबे समय तक घर में रहने को विवश होते थे। ऐसे समय में भी वे अपने आसपास के इलाकों से खाना इकट्ठा करने में खुद को व्यस्त रखते थे और बाद में जानवरों को पालतू बनाने की कला सीखने के बाद उन्होंने कृषि और मवेशी पालन जैसे महत्वपूर्ण खोज की। आदिम समाज में लिंग के आधार पर यह पहला प्राकृतिक श्रम विभाजन देखने को मिलता है। प्रस्तुत संदर्भ में आशारानी वोहरा के अनुसार, ‘‘कभी स्त्री-पुरुष संबंधों में खुली छूट रही होगी दोनों के बीच लाड़ होगा तो लड़ाई भी। प्यार में क्रूरता निकली होगी। पर मनुष्य सब भोगता और खेलता था, प्रश्न नहीं उठाता था। प्रकृति के हाथों आसानी से खेलता रह सकता था। पर प्रकृति पर्याप्त ना हो सकी उसके लिए, ना वन्य जीवन। समाज बनाना आवश्यक हुआ। भूख और भूख के अतिरिक्त भी नाना प्रकार के परस्पर आदान-प्रदान की सृष्टि हुई। सुविधा के लिए पैसा जन्मा और बीच में शासन संस्था आवश्यक हुई। यहीं से स्त्री-पुरुष संबंधों में पेंच पड़ने शुरू हुए। पुरुष के हाथों स्त्री पिट लेती थी पर इस कारण प्रश्न उपस्थित नहीं होता था। ना इसे समस्या समझा जाता था।’’ (नारी शोषण: आईने और आयाम, पृ.8)
सत्ता की अवधारणा अत्यंत प्राचीन है। सभ्यता की शुरुआत से ही सत्ता का स्वरूप बनना आरंभ हो गया था किंतु हम यह नहीं कह सकते हैं कि सत्ता का स्वरूप किस काल विशेष और स्थान विशेष से बनना आरंभ हुआ। यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है कि सभ्यता निर्माण के पूर्व सत्ता का कोई परिपक्व स्वरूप ना होकर मात्र शक्ति प्रदर्शन ही उपस्थित रहा होगा। शक्ति प्रदर्शन एवं प्रयोग के नियम-कानून नहीं होते।  शक्ति में स्थायित्व नहीं है क्योंकि जैसे ही एक शक्ति से बड़ी दूसरी शक्ति अस्तित्व में आती है तो वह पहली शक्ति को स्थानांतरित कर देती है। इसलिए व्यक्ति अपने विकास के साथ ही सत्ता की ओर अग्रसर होता है। सत्ता में शक्ति है लेकिन इसके साथ-साथ नियम और कानून का बंधन भी है। इस प्रकार सत्ता से अभिप्राय एक ऐसी शक्ति से है जो समाज, परिवार, संस्था, राजनीति आदि को नियामक एवं नियांतता के रूप में नियंत्रित करने में सक्षम है।
सत्ता परिवर्तनशील होती है। जब जब सत्ता बदलती है तब-तब प्रायः उसके नियम भी परिवर्तित हो सकते हैं। किंतु यह आवश्यक नहीं है कि यह नियम सदैव ही परिवर्तित होते रहे। जैसे भारत में पहले राजशाही थी। सत्ता नियमन के उनके अपने नियम एवं कानून थे। कालांतर में सत्ता परिवर्तन होता है और ब्रिटिश साम्राज्य भारत में स्थापित हो जाता है। ब्रिटिशों ने अपनी सुविधानुसार और समाज की आधुनिकता को ध्यान में रखते हुए  निरंतर  नए- नए नियम और कानून बनाते रहे। भारत में स्वतंत्रता के पश्चात एक  बार  फिर सत्ता परिवर्तन होता है और भारतीय गणराज्य की स्थापना होती है। भारतीय जनमानस के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए नए संविधान का निर्माण किया गया और अधिक से अधिक समाजोन्मुख नियम कानून बनाए गए। इससे यह स्पष्ट है कि सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ प्रायः नए नियम- कानूनों का भी निर्माण होता है। यह भी ध्यातव्य है कि समय के विकास के साथ-साथ नियम कानून अधिक से अधिक समाजोन्मुख होते जाते हैं। मनुष्य नागरिक के रूप में अपने अधिकारों के प्रति जितना अधिक सजग होता जाता है नियम-कानून और सत्ता उसी क्रम में समाजोन्मुख होते जाते हैं। 
सत्ता के विभिन्न रूप होते हैं सामाजिक सत्ता, राजनैतिक सत्ता, पारिवारिक सत्ता, सांस्कृतिक सत्ता, धार्मिक सत्ता, जातीय सत्ता और आर्थिक सत्ता। चुकी भारतीय समाज पुरुष प्रधान समाज है इसलिए उपर्युक्त सभी संस्थाओं का सत्ता संचालन पुरुष वर्ग के द्वारा ही किया जाता रहा है। जैसे समाज को जब भी सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, धार्मिक, जातीय एवं आर्थिक स्तर पर जो भी निर्णय लेने होते हैं वह निर्णय पुरुष वर्ग ही अमूमन लेता है।  यद्यपि यह सभी निर्णय आपसी सहमति और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत लिए जाते हैं। परिवार के निर्णय भी पुरुष ही लेता है लेकिन यह निर्णय लोकतांत्रिक नहीं होता क्योंकि परिवार का मुखिया कहीं ना कहीं अधिक सशक्त होता है और जो भी सदस्य उसके निर्णय की अवहेलना करता है वह उस सदस्य को परिवार से बेदखल कर देते हैं। 
सत्ता अपने विभिन्न रूपों में अंततः समाज और सामाजिक संस्थाओं को व्यवस्थित रखने का प्रयास करती रहती है। यद्यपि आधुनिक विचारों को में प्रायः सत्ता को दमनकारी स्वीकार किया और सामाजिक एवं सामाजिक संस्थाओं की सत्ता को ध्वस्त करने में अपना विश्वास जताया है। प्रस्तुत संदर्भ में ओम प्रकाश गाबा ने सत्ता को परिभाषित करते हुए कहा है कि ‘‘सत्ता किसी व्यक्ति संस्था नियम या आदेश का ऐसा गुण या क्षमता है जिसके कारण उसे सही या प्रमाणिक मानकर स्वेच्छा से उसके निर्देशों का पालन किया जाता है। सत्ता के प्रयोग के कारण ही अधिकारी नीतियां, नियम और निर्णय समाज में स्वीकार किए जाते हैं और प्रभावशाली ढंग से लागू किए जाते हैं।’’ (विवेचनत्मक राजनीति, विज्ञान कोश, पृ.23)
मानव सभ्यता के आरंभ में जब आदिमानव जंगलों और गुफाओं में रहते थे और कंदमूल फल फूल आदि खा कर अपना जीवन यापन करते थे तब उनके लिए ईश्वर या धर्म का कोई अस्तित्व नहीं दिखाई देता था। तत्पश्चात मानव जाति आगे चलकर आग के अविष्कार के साथ पशु पक्षियों को भूनकर खाना प्रारंभ किया। उसने पत्थरों से तेज धार वाले यारों का निर्माण करना प्रारंभ कर दिया जिससे उन्हें शिकार करने में आसानी होती थी। हम कह सकते हैं कि इस काल तक मानव समाज में पारिवारिक संबंधों का निर्माण अभी तक नहीं हुआ था। इस काल तक स्त्रियों को कोई रोक-टोक नहीं थी और वे स्वतंत्र रहकर भोग विलास की आशा में स्वतंत्रतापूर्वक जीवन यापन कर रही थी। प्रस्तुत संदर्भ में श्रीधरम के अनुसार, ‘‘वन्य युग की स्त्रियां इसी स्वतंत्रता की तरफ इशारा करती है। आगे चलकर मानव ने कुल्हाड़ी बनाई, बर्तनों का निर्माण करना सिखा। बांस और घास से झोपड़ी बनाना सीखा और पशुपालन के साथ कबीलों में रहने लगा। इस काल में प्रकृति से भयभीत मानव ने सर्वप्रथम पेड़ों, बांबियों और पत्थरों की पूजा प्रारंभ की। मातृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण पेड़ों और पत्थरों की जगह आदिमानव देवियों की पूजा करने लगे। इस समय बच्चों को माँ के बारे में जानकारी तो थी लेकिन यह जानकारी नहीं होती थी कि उसके पिता कौन हैं इसलिए स्त्री आधारित रक्त संबंध होता था और सारे अधिकार एवं प्रतिष्ठा भी स्त्रियों को ही प्राप्त थे।’’ (स्त्री-संघर्ष और सृजन, पृ.11)
मानव समाज में पितृसत्ता के उदय का कारण एंगेल्स व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा को मानते हैं। एंगेल्स अपनी पुस्तक ‘परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति और राज्य की उत्पत्तिश् के माध्यम से समाज के सामने यह मत प्रस्तुत करते हैं कि समाज का मातृसत्ता से पितृसत्ता में परिवर्तन हुआ है। इनके अनुसार पाषाण काल में खेती का अधिकारी पूरा कबीला होता था और स्त्रियां बागवानी संभालती थी। आदिम समाज में श्रम के इस विभाजन के आधार पर स्त्री और पुरुष समाज को संगठित करने का कार्य कर रहे थे। अधिक श्रम वाला कार्य अपेक्षाकृत पुरुष अधिक कर रहा था और स्त्रियों के लिए हल्के कामों का प्रावधान था। अधिक श्रम वाले कार्य को करने के कारण पुरुष के अंदर अहंकार की भावना पनपने लगी।  व्यक्तिगत संपत्ति को लेकर अधिक लालच की वजह से पुरुष में अहंकार की भावना का निरंतर विकास होता चला गया। प्रस्तुत संदर्भ में श्रीधरम के अनुसार, ‘‘धातुओं के संबंध में जानकारी बढ़ने के साथ विकास की संभावनाएं अधिक व्यापक हुई। व्यक्तिगत संपत्ति के लोभ से पुरुष में स्वामित्व की भावना विकसित हुई। वह जमीन का मालिक था,  गुलामों का मालिक था और अब स्त्री का भी मालिक बन गया। यहीं से औरत की गुलामी की कहानी शुरू होती है जिस स्थिति में घरेलू कामकाज संभालने के कारण औरत को परिवार में सर्वोच्च सत्ता के सिंहासन पर बिठाया था वहीं अब औरत की गुलामी का आधार बन गई।’’ (स्त्री-संघर्ष और सृजन, पृ.12)। 
आदिमानव समाज अब धीरे-धीरे विकसित होने लगी थी और यह समाज  धीरे-धीरे शिकारी एवं संग्रहकर्ता से आगे बढ़कर कृषि कार्यों में संलिप्त होने लगे थे। कृषि काल में आकर यह आदिम समाज पूर्ण रूप से पितृसत्तात्मक होने लगा था। पितृसत्तात्मकता के विकास होने से अब धीरे-धीरे पशु और गुलाम के साथ-साथ स्त्री भी इस शोषण का शिकार होना प्रारंभ हो गई थी। धर्म भी धीरे-धीरे संहिताकरण के रूप में परिवर्तित होने लगा था। जिस आदिम समाज में स्त्री की स्थिति सबसे ऊंचे पायदान पर थी अब उसकी कीमत गांव के पशु और नौकर की भांति रह गई थी। उस समय भी दलित और स्त्री दोनों को शिक्षा से वंचित रखा गया था ताकि उन पर आसानी से शासन कर सके एवं उनका शोषण कर सके। पितृसत्तात्मक समाज ने पीढ़ी दर पीढ़ी शासन के द्वारा उनमें गुलामी की मानसिकता का निर्माण किया और उन्हें यह अच्छे से समझाया कि यही तुम्हारा धर्म है। 
स्त्री और पुरुष के बीच आदिकाल से ही श्रम का विभाजन तो था ही जिसमें पुरुष के जिम्मे में शिकार पर जाना और स्त्रियों के जिम्मे में बच्चे की देखभाल व खाद्यान्न इकट्ठा करना था। तत्पश्चात इनके बीच के संबंध का सत्ता के संबंध में परिवर्तित होना इसी श्रम विभाजन का परिणाम माना जाता है। कुछ स्त्रीवादी विद्वानों का यह मत है कि शिकार खाद्यान्न संग्रह युग के समाज में भोजन का 60 प्रतिशत कंदमूल, मछली व फल होते थे जिन्हें संग्रहित करने का कार्य मुख्य रूप से स्त्री और बच्चे करते थे। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि स्त्रियों का कार्य पुरुषों की तुलना में कतई हीनतर नहीं था। इस  इस संदर्भ में उमा चक्रवर्ती के कथनानुसार, ‘‘बड़े आखेटों में पुरुषों के साथ स्त्रियों के शरीक होने के चित्रण मध्य भारत में प्राप्त हुए। ईसा पूर्व 5000 (मध्यपाषाणकालीन) भीमबेटका की गुफाओं के पेंटिंग में देखने को मिले हैं। पेंटिंग में स्त्रियां फल और अन्य खाद्य पदार्थ बटोरने के साथ-साथ  टोकरी और जाल द्वारा छोटे-मोटे आखेट करते हुए दर्शाई गई है। पेंटिंग में एक स्त्री के कंधे से टुकड़ी लटक रही है जिसमें दो बच्चे हैं और उसके सिर पर एक पशु लदा हुआ है यानी एक साथ माँ और संग्रहकर्ता की भूमिका निभाती स्त्री। एक अन्य स्त्री हिरन का सींग पकड़ कर खींच रही है तो एक अन्य मछली पकड़ रही है। टोकरी लिए हुए स्त्रियों को प्रायः गर्भवती ही चित्रित किया गया है। सामूहिक शिकार दृश्यों में स्त्रियां भी शामिल दिखाई गई है।’’ (जाति समाज में पितृसत्ता, पृ.45)
पुरातात्विक सर्वेक्षणों के आधार पर भारतीय उपमहाद्वीप के आरंभिक प्रागैतिहासिक समाज में औजार मिट्टी के बर्तन आवास के आधार पर इनका खाका खींचा जाता है। लेकिन इस बात के अभी तक कोई प्रमाण नहीं मिला है कि समाज के गठन का स्वरूप कैसा था और स्त्री पुरुष के बीच सत्ता संबंध था या नहीं था। किंतु प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि मानव सभ्यता के अपने आरंभिक समय में लिंग आधारित भेदभाव ना के बराबर था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि किसी प्रकार का निश्चित श्रम विभाजन समाज में नहीं था स्त्रियों का आर्थिक योगदान पुरुषों से ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं माना जा सकता है। 
स्त्री का उसके प्रजनन क्षमता के आधार पर उसकी भूमिका पुरुषों के मुकाबले अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा सकता है। गर्भवती स्त्री का चित्रण, माँ की भूमिका निभाती हुई स्त्री का चित्रण, यहां तक कि संतानोत्पत्ती का चित्रण उस समय के समाज में स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाने के लिए पर्याप्त कहा जा सकता है। यही कारण है कि संतानोत्पत्ति करती स्त्री के चित्र को मातृ देवी माना गया। प्राचीन संस्कृति के साक्ष्य स्थलों पर भी स्त्री का मातृ देवी के रूप का चित्रण किया गया है। प्रस्तुत संदर्भ में कुसुम त्रिपाठी का मत है कि ‘‘यह जल्दी ही साबित हो गया कि श्रम विभाजन पर लगा पुरुषों का ठप्पा प्राकृतिक नहीं बल्कि सामाजिक रूप से बनाया गया था। लेकिन जैसे ही युद्ध खत्म हुए और पुरुष मोर्चे पर से वापस आ गए महिलाओं ने इन पुरुष के नौकरियों को छोड़ दिया और अपने महिला क्षेत्रों में वापस चली गई। लेकिन इसने एक चीज साबित कर दी कि महिलाएं वह सारे कार्य कर सकती है जिसके लिए पुरुष दावा करते हैं कि सामाजिक स्तर पर केवल वे ही सक्षम है। इस तरह पुरुषों और महिलाओं के काम में फर्क चाहे किसी भी कसौटी पर आधारित हो शारीरिक ताकत जैसे सामंतवाद कहता है या दक्षता जैसी पूंजीवाद कहता है पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह के अलावा कुछ नहीं है।’’(स्त्री संघर्ष के सौ वर्ष, पृ.49)

-सी.वी.एस.कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

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