दीपक रूहानी

सामाजिक सरोकारों का शायर : राहत इन्दौरी


(दीपक रूहानी जाने-माने शायर और अनुवादक हैं। उर्दू से हिन्दी अनुवाद के कई महत्त्वपूर्ण कार्य कर चुके हैं। अभी पिछले बरस ही इनकी एक किताब “राहत साहब: मुझे सुनाते रहे लोग वाकिया मेरा” नाम से राहत इन्दौरी की जिन्दगी पर आयी, जो कि राहत-प्रेमियों में खासी चर्चित रही। अमेजन की वेबसाइट पर यह किताब तीन महीनों तक लगातार ‘बेस्ट रीड’ में रही। दीपक रूहानी आजकल बिहार प्रांत के मधुबनी जिले में हिंदी के सहायक प्रोफेसर हैं। )

यहाँ मैं राहत साहब की शायरी और उनके व्यक्तिगत जीवन से जुडी घटनाओं की कुछ चर्चा कर रहा हूँ। इन बातों से बहुत-सारे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। ये निष्कर्ष प्रत्येक पाठक के अपने होंगे और वो अलग-अलग भी हो सकते हैं, यहाँ तक कि किसी एक ही बात पर परस्पर विरोधी निष्कर्ष भी निकाले जा सकते।  किसी भी शायर की मानसिकता के निर्माण में या उसकी अदबी मिजाज के बनने-बदलने में कब कौन-सी घटना का कितना हाथ है, ये अंदाजा लगाना जरा मुश्किल है। इंदौर में एक-दो बार बड़े स्तर पर दंगे हुए हैं, जिनका असर राहत साहब के जेहन पर भी पड़ा, लेकिन इस असर ने जो प्रतिक्रियाएँ दी हैं वो बहुत कलात्मक और प्रतीकात्मक हैं।
जून 1969 में एक दंगा हुआ था। राहत साहब के करीबी दोस्त शब्बीर कुरैशी साहब ने बातों-बातों में इंदौर में हुए उस दंगे के बारे में बताया। सन् 1969 में चंदगीराम ने एक दंगल का फाइनल जीता जिससे इन्हें उस वर्ष ‘भारत केसरी’ की उपाधि मिली थी। सत्तर के दशक के नामी पहलवान चंदगीराम (1937-2010) जिला हिसार हरियाणा के रहनेवाले थे। ये कुछ समय भारतीय सेना की जाट रेजीमेंट में भी रहे। देश का कोई ऐसा पहलवानी का खिताब न था जो इन्हें न मिला रहा हो। फाइनल में इन्होंने मेहरदीन को हराया। पंजाब के रहनेवाले मेहरदीन भी कोई मामूली पहलवान नहीं थे। इन्होंने 1964 में ईरान में गोल्ड मेडल जीता था। इन्हें ‘रुस्तमे-हिंद’ की उपाधि प्राप्त थी। ये भी इंटरनेशनल चौम्पियन थे। दंगल और पहलवानी का माहौल उस वक्त इंदौर में जोरों पर था।
12 मई 1969 को ‘भारत-केसरी’ खिताब के लिए मेहरदीन और चंदगीराम में फाइनल मुकाबला हुआ। ये मुकाबला दिल्ली में हुआ था। मेहरदीन चंदगीराम की अपेक्षा शारीरिक रूप से बहुत तगड़े और मजबूत कद-काठी के थे, लेकिन वे दस मिनट की कुश्ती को 7 मिनट 45 सेकंड पर ही छोड़कर पीछे हट गये और अपनी हार स्वीकार कर ली। दारा सिंह इस फाइनल मुकाबले के निर्णायक (रेफरी) थे। इस जीत के बाद चंदगीराम का हिंदुस्तान के कई शह्रों में स्वागत एवं अभिनंदन आयोजनों के माध्यम से किया गया। इंदौर में दुग्ध-विक्रेता संघ ने ये आयोजन किया था।
यही स्वागत का क्रम जब इंदौर पहुँचा तो मामला कुछ-से-कुछ हो गया। शाम ढले चंदगीराम की ट्रेन इंदौर पहुँची तो एक बड़ा हुजूम उन्हें लेने स्टेशन पहुँचा। चंदगीराम शुद्ध शाकाहारी थे और मेहरदीन माँसाहारी थे, फितूर का एक मुद्दा ये भी बना। दूसरा चंदगीराम को हिंदू का प्रतीक मान लिया गया और मेहरदीन को मुस्लिम का प्रतीक माना गया। चंदगीराम के नाम के आगे अक्सर ‘आर्य पहलवान चंदगीराम’ भी लिखा जाता था। चंदगीराम का जुलूस ‘बाम्बे बाजार’  इलाके से गुजरा। ये मुस्लिम बाहुल्य इलाका था और यहाँ कई अच्छे नामचीन पहलवान थे, जैसे करामत पहलवान वगैरह। जुलूसवालों ने नारा लगाया- ‘दाल-रोटी जीत गयी, गोश्त-रोटी हार गयी’। पहलवानी में रुचि लेना सीधे-सीधे शारीरिक बल में रुचि लेना है। कुल मिलाकर दंगा भड़क गया। चंदगीराम जान बचाकर भागे। इसके बाद शह्र भर में दंगा फैल गया। दंगे को रोकने के लिए महू कैंट से सेना को बुलाना पड़ा था। राहत साहब की उम्र उस वक्त उन्नीस बरस थी। इस घटना का इनके ऊपर गहरा असर पड़ा जिसे हम कई शे’रों में देख सकते हैं-
हम अपने शह्र में महफूज भी हैं, खुश भी हैं।
ये सच  नहीं  है, मगर  ऐतबार  करना है।।

मुझे खबर नहीं मंदिर जले हैं  या  मस्जिद।
मेरी निगाह के आगे तो सब धुआँ है मियाँ।।

महँगी  कालीनें  लेकर  क्या  कीजेगा।
अपना घर भी इक दिन जलनेवाला है।।
 
वैसे अब इंदौर में इस तरह के दंगे नहीं होते। इंदौर की अपेक्षा उसका पड़ोसी धार जिला साम्प्रदायिक रूप से अधिक संवेदनशील है। 1969 के उस दंगे के बारे में अगर विस्तार से जानना हो तो प्रतीप कुमार लाहिरी की किताब ‘डिकोडिंग इनटॉलरेंस’ पढ़ी जा सकती है। उस वक्त ये इंदौर के डी.एम. थे और दंगे को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभायी थी।
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राहत साहब नौवीं क्लास में थे तो नूतन हायर सेकेंड्री स्कूल में पढ़ते थे। एक बार वहाँ मुशायरा होना तय हुआ। राहत साहब और स्कूल के ही कई लड़कों को तरह-तरह के कामों के लिए तैनात किया गया। राहत साहब भी शायरों की  खिदमत में लगे थे। जाँ निसार अख्तर (जावेद अख्तर के वालिद) भी आये हुए थे। राहत साहब अपने एक-दो साथियों के साथ उनके पास ऑटोग्राफ लेने पहुँचे। राहत साहब ने उनसे कहादृ ‘‘मैं भी शेर कहना चाहता हूँ, इसके लिए मुझे क्या करना होगा?’’ जाँ निसार बोले- ‘‘पहले कम-से-कम पाँच हजार शेर याद करो।’’ राहत साहब बोले- ‘‘इतने तो मुझे अभी याद हैं।’’ तो वे बोले- ‘‘तो फिर अगला शेर जो होगा वो तुम्हारा खुद का होगा।’’
इसके बाद वो ऑटोग्राफ देने लगे। जाँ निसार साहब ने अपनी गजल का एक शेर लिखना शुरू किया-  ‘हमसे भागा न करो दूर, गजालों की तरह’..... ये पहला मिस्रा वो लिख ही रहे थे कि राहत साहब के मुँह से बेसाख्ता दूसरा मिस्रा निकल गया- ‘हमने चाहा है तुम्हें चाहनेवालों की तरह’। जाँ निसार साहब ने सर उठाकर हैरत और खुशी के मिले-जुले भाव से राहत साहब को देखा। उनकी मुस्कुराहट में राहत साहब के लिए दुआ थी। बाद में जब राहत साहब बाकायदा मुशायरों में जाने लगे तो जाँ निसार साहब से कभी-कभी मुलाकात भी हो जाती थी। राहत साहब उनका बहुत एहतराम करते थे।
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राहत साहब के साथ किसी मुशायरे में फिराक साहब भी थे, जब इन्होंने शेर पढ़े तो फिराक साहब बोले-  ‘‘मियाँ, जब शे’र खुद ही अच्छा है तो चीखने की क्या जरुरत है।’’ फिराक साहब का इतना कह देना राहत साहब के लिए तारीफ जैसा था। राहत साहब फिराक गोरखपुरी के जबरदस्त मद्दाह हैं। सैकड़ों शेर याद हैं।
ये चीखना भी एक आर्ट है। मुशायरा एक ‘परफार्मिंग आर्ट’ बन गया है। ऐसी स्थिति में आवाज का खास रोल हो गया है। राहत साहब की आवाज की फ्रीक्वेंसी बहुत अधिक है। ये भी कह सकते हैं कि उनकी आवाज की ‘रेंज’ बहुत जियादा हैं। इसे आप सुनकर तो महसूस कर ही सकते हैं, साथ ही कभी इसे कम्प्यूटर स्क्रीन पर मापने की कोशिश करें तो भी आप देखेंगे कि जब इनकी आवाज शुरू होती है तो ग्राफ बहुत हाई फ्रीक्वेंसी तक जाने लगते हैं। टेक्निकली उनकी आवाज का माइक्रोफोन के साथ बेह्तर तालमेल बिठाना उनकी शानदार पेशकश को और भी अधिक शानदार बनाता है। यही नहीं, वे माइक्रोफोन का सटीक इस्तेमाल करना भी जानते हैं। राहत साहब की एक खास आदत है जिसे वो नेचुरल तौर पर करते हैं। करते क्या हैं, मेरे खयाल से ऐसा हो जाता होगा। गायन की भाषा में कहें तो वे अपनी आवाज को माइक्रोफोन के सहारे ‘फेड इन’ और ‘फेड आउट’ करते हैं। आजकल तो कम्प्यूटर और बहुत-सारे उपकरण आ गये हैं, जिनके सहारे गायन में ‘फेड इन’ या ‘फेड आउट’ कर दिया जाता है, लेकिन पहले के गायकों के सामने जब किसी मिस्रे में इस तरह के इफेक्ट लाने होते थे, तो वे अपने मुँह और माइक्रोफोन के बीच की दूरी को कम या जियादा करते थे। गाते हुए दूर से धीरे-धीरे मुँह माइक तक लाकर ‘फेड इन’ करते और ‘फेड आउट’ की जरूरत पड़ने पर मुँह को माइक्रोफोन से दूर ले जाते थे।
राहत साहब भी प्रायः ऐसा करते हैं। उनकी आवाज का वॉल्यूम जरूरत के मुताबिक कम- जियादा होता रहता है, लेकिन अक्सर वो अपनी आवाज का वॉल्यूम बराबर रखते हुए माइक से अपने मुँह की दूरी को संतुलित करते हैं। इस तरह वे अपने मिसरों को ‘फेड आउट’ या ‘फेड इन’ करते हैं। इससे एक खास कैफीयत पैदा होती हैं और सामईन पर एक खास असर पड़ता है।
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राहत साहब की शायरी से गुजरना किसी दीर्घवृत्त (मससपचेम) की परिधि पर चलने जैसा है। जिस तरह दीर्घवृत्त में दो नाभि (विबने) होते हैं उसी तरह राहत साहब की शायरी में भी दो केंद्र हैं- एक तो वो जिसे हम खालिस अदबी कह सकते हैं और दूसरा वो है जिसे हम मुशायरों के फराइज अंजाम देनेवाला कह सकते हैं। पहले केंद्र के आसपास जाती तौर पर अपनी संवेदनशीलता से महसूस किये गये अनुभव हैं तो दूसरे केंद्र के पास सियासत और मजहब से पैदा हुए मसाइल हैं। हमें राहत साहब की शायरी को पूरी तरह से समझने के लिए कम-से-कम इस दीर्घवृत्त एक पूरा तवाफ (परिक्रमा) जरूरी है।
राहत साहब की शायरी से असहमति रखनेवाले और खुले तौर पर इनका विरोध करनेवाले शुरू से ही कम नहीं थे। दरअस्ल राहत साहब की शायरी उर्दू-शायरी के तीन सौ बरसों के तमाम मिथकों को तोड़नेवाली शायरी है। इनकी गजलगोई गजल के रिवायती और जदीद (परंपरागत और आधुनिक), दोनों ही ढाँचों को तोड़ती है। न इन्होंने इश्क-माशूक, बुलबुल-सैयाद, गुल और चाँद के प्रतीकों को अपनी शायरी में शामिल किया और न ही जदीद शायरी की अमूर्तता ही इन्हें पसंद आयी। मुनासिबत और रिआयत की तर्तीब का बहुत ध्यान न रखकर इन्होंने सीधे-सीधे ‘स्टेटमेंट’ देने शुरू किये। इसे हिंदी आलोचना की शब्दावली में कहा जाये तो ये ‘सपाटबयानी के कवि’  के तौर पर सामने आये। ये भी कहा जा सकता है कि इन्होंने गद्य को मीटर-बह्र में करने का काम किया। इस लिहाज से ये कलावादियों को तो बिल्कुल ही नहीं पसंद आये। प्रतीकात्मक शैली में शेर कहनेवाले शायर जहाँ एक ओर अपने श्रोताओं को बखूबी साध लेते हैं, वहीं दूसरी तरफ अपने आकाओं या अपने राजनीतिक सरपरस्तों को भी नाराज नहीं होने देते। इस तरह की दोहरी तीरंदाजी करनेवालों ने राहत साहब को कभी पसंद नहीं किया और न ही राहत साहब ने ऐसे लोगों को पसंद किया।
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राहत साहब की खुश किस्मती ये रही कि शुरू से ही उस वक्त के जितने बड़े और उम्दा शोअरा हजरात थे, उनकी दुआएँ इन्हें मिलती रहीं। खुमार बाराबंकवी, शमीम जयपुरी, कृष्णबिहारी नूर, फना निजामी, कैफ भोपाली जैसे लोगों की मुहब्बतें इन्हें शुरू से ही मिलती रहीं। ऐसे पायेदार शायरों के साथ ही इनका सफर शुरू हुआ। भुसावल के उस मुशायरे में कृष्णबिहारी ‘नूर’, निहाल ताबाँ, ताबाँ झाँसवी, खुमार साहब, कैफ भोपाली वगैरह शामिल थे। अपनी टूटी-फूटी तरन्नुम के साथ राहत साहब भी थे। तरन्नुम के शायर के रूप में थोड़ी-बहुत पहचान बन चुकी थी। उस मुशायरे के सफर के दौरान ही राहत साहब ने एक गजल कही, लेकिन उसका कोई तरन्नुम नहीं था। ‘तरन्नुम नहीं था’ का मतलब है कि राहत साहब उस अल्हड़पन के दौर में भी कभी गजल गुनागुनाकर नहीं कहते थे। शेर के मिस्रे उनके जेहन में तहत में उतरते थे और बाद में वे उसका तरन्नुम निकालते थे।
गजल हो गयी और वक्त कम होने के कारण तरन्नुम नहीं सेट हो पाया था। राहत साहब कृष्णबिहारी ‘नूर’ के पास पहुँचे और कहा- ‘‘सर मैंने एक गजल कही है, उसके कुछ शेर आपको सुनाना चाहता हूँ।’’ नूर साहब सोचे कि अभी ये तरन्नुम में ही सुनायेगा। राहत साहब ने तहत में ही वो गजल उन्हें सुनायी और उन्होंने बहुत दाद दी, बड़ी तारीफ की। नूर साहब ने कहा- ‘‘राहत आज सुनाओ इसे मुशायरे में।’’ राहत साहब बोले- ‘‘जरूर सुनाऊँगा, लेकिन अभी इसकी तरन्नुम नहीं सेट हो पायी है।’’ नूर साहब बोले कि- ‘‘ये गजल ऐसी है कि इसके लिए तरन्नुम की जरूरत नहीं है, तुम इसे तहत में ही सुनाओ। इस गजल के शेर ऐसे हैं कि इसमें गाने की गुंजाइश ही नहीं हैं।’’ उस गजल का एक शे'र था-
जिन चरागों से तअस्सुब का धुआँ उठता है।
उन चरागों को बुझा दो तो उजाले होंगे।।
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मुशायरों की परम्परा में बेशुमार पेचो-खम हैं। गजल पर जितना काम पिछले चार-पाँच सौ बरसों में हुआ है उतना हिन्दी-उर्दू मिलाकर किसी अन्य विधा पर नहीं हुआ। गजल पर हुए बेशुमार कामों ने इसमें इतनी चमक पैदा की है कि उर्दू की अन्य विधाएँ (अस्नाफ)इसके सामने फीकी पड़ जाती हैं। ‘अदब’ का एक मतलब ‘लिहाज’ भी होता है। मुशायरों में ‘अदब’ की हिफाजत होती थी, यानी ‘लिहाज’ की भी हिफाजत होती थी। एक मिसाल राहत साहब ने सुनायी- 
किसी शेरी महफिल में जिगर मुरादाबादी और असगर गोंडवी मौजूद थे। जिगर मुरादाबादी असगर साहब को अपना उस्ताद मानते थे। असगर साहब कोई गजल पढ़ने लगे तो एक कीड़ा जिगर साहब की शेरवानी में घुस गया। उसने  जख्म बनाना शुरू किया, लेकिन जिगर साहब टस-से-मस नहीं हुए। इसमें उस्ताद की बेहुर्मती थी। आखिरकार जब असगर साहब ने मक्ता पढ़ा तब जिगर साहब उठकर दूर गये और किसी तरह उस कीड़े को निकाला। तब तक वो काफी बड़ा जख्म बना चुका था। इसी तरह पहले के मुशायरों में नये शायरों को दाद देने तक की इजाजत नहीं रहती थी। उनसे ये उम्मीद की जाती थी कि पहले वो ठीक से सुनना सीखें, फिर उसे समझना सीखें तब दाद देने की कोशिश करें। पहले के मुशायरों में कोई नया शायर जिस तरह बैठ जाता था उसी तरह घंटों बैठा रहता था। बार-बार हाथ-पाँव इधर-उधर फैलाना-सिकोड़ना बेअदबी माना जाता था और कहा जाता था कि फलाँ साहब को तो महफिल में बैठने की भी तमीज नहीं, बार-बार पहलू बदलते रहते हैं। राहत साहब भी मुशायरों की हर रिवायत को जितना मुमकिन हो सका निभाते आये हैं। अपने से बड़े शायरों का उन्होंने हमेशा खयाल रखा। अगर किसी मुशायरे में सामईन सीटी बजाने लगते तो राहत साहब फौरन उन्हें टोक देते और तरह-तरह की नसीहतें देकर उन्हें कायल करते। अगर सामईन सीनियर शायरों को बिना सुने जाने लगते तो राहत साहब खड़े होकर अपील करते और सामईन को कुछ देर और रोक लेते थे। जब तक हालात ऐसे नहीं हुए कि इन्हें पहली सफ में आकर बैठना पड़े तब तक बुजुर्गों के एहतराम में पिछली सफों में बैठना ही मुनासिब समझा। अभी ऊपर राहत साहब के एक शेर का जिक्र आया है-
जिन चरागों से तअस्सुब का धुआँ उठता है
उन चरागों को बुझा दो तो उजाले होंगे
इस शे’र पर राहत साहब को इतनी जियादा तारीफ क्यूँ मिली, इस बात पर गौर करना जरूरी है। बजाहिर तो दूसरे मिस्रे में ‘चरागों को बुझाने पर उजाला’ होने की बात की जा रही है, जो कि फित्री तौर पर बिल्कुल सही नहीं है। इस शेर की तहें इसके हवालों (सन्दर्भों) में हैं और उन हवालों की तरफ तरन्नुम से इशारा नहीं किया जा सकता। इस शेर का एक राजनीतिक अर्थ (सियासी मानी) भी है इसलिए उस अर्थ का गला गलेबाजी करके नहीं घोटा जा सकता। मुझे इस शेर के अर्थ की तरफ शब्बीर कुरैशी साहब ने इशारा किया था जो कि राहत साहब के करीबी दोस्त हैं।
जो लोग भारतीय जनता पार्टी का इतिहास जानते हैं, उन्हें पता है कि इसकी उत्पत्ति मूलतरू भारतीय जनसंघ (जिसे जनसंघ भी कहते हैं) से हुई। इस पार्टी की स्थापना (1951) श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने की। 1952 के संसदीय चुनाव में इसे दो या तीन सीटें मिली थीं। 1975-1976 में कांग्रेस सरकार द्वारा लागू किये गये आपातकाल के बाद भारत के अन्य राजनैतिक दलों और इस जनसंघ को मिलाकर जनता पार्टी बनी। 
जनसंघ अपनी स्थापना के दिनों से ही साम्प्रदायिक विचारोंवाली पार्टी थी। फिलहाल, उन सब बातों का लम्बा इतिहास है, जिसकी यहाँ अभी जरूरत नहीं है। इसी जनसंघ पार्टी का चुनाव चिह्न था ‘जलता हुआ दीपक’ या ‘दिया’। चूँकि ये ‘जलता हुआ दिया’ था, इसलिए इसमें से धुआँ उठने की बात प्राकृतिक रूप से तर्कसंगत लगती है। इस पार्टी की साम्प्रदायिक मानसिकता को देखते हुए ‘तअस्सुब’ (धार्मिक पक्षपात, बेजा तरफदारी) लफ्ज का इस्तेमाल भी एकदम सटीक ढंग से हुआ था। इन सब हालात के खुलकर सामने आने से अब दूसरे मिस्रे में चरागों को बुझाने पर उजाला होने की उलटबाँसी भी तर्कसंगत लग रही। काँग्रेस पार्टी के लोग अपने कार्यक्रमों में राहत साहब के इस शेर का बहुत जोरदार ढंग से प्रयोग करने लगे। यहाँ तक कि इसी शेर से उनके कार्यक्रमों, चुनावी सभाओं और रैलियों की शुरूआत भी होने लगी थी। कांग्रेसवाले पहले भी जनसंघ के चुनाव चिह्न को लेकर कई नारे लगाया करते थेदृ जनसंघ के दीप में तेल नहीं, सत्ता चलाना कोई खेल नहीं। या इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं।
जहाँ इस तरह के घिसे-पिटे तुकबंदीवाले नारे लगाये जाते थे, वहाँ राहत साहब का शेर बहुत प्रतीकात्मक था। अब जरा सोचिए कि इस शेर को पढ़ने पर जनसंघ के विपक्षियों में किस प्रकार की शोरअंगेजी होती रही होगी। एक बात इस सिल्सिले में साफ करना और जरूरी हैदृ राहत साहब ने जानबूझकर ये शेर जनसंघ पर नहीं कहा था। शेर की आमद हो गयी तो खयाल इस तरफ भी गया।
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राहत साहब को सबसे अलहदा बनाती है, वो है इनके शेर पढ़ने का अंदाज। इनके शेर पढ़ने के अंदाज में संगीत का सहारा बिल्कुल नहीं है। शायरी की आंतरिक लय ही राहत साहब की लय है। तरन्नुम छोड़कर राहत साहब ने अपनी शायरी को तरन्नुम के दायरों से उठाकर बहसों-मुबाहिसों के दायरों में पहुँचा दिया। पढ़ने का अंदाज ही एक-एक शेर को सामईन के दिलो-दिमाग में पैवस्त कर देता है। जब से राहत साहब मंचों पर हैं तब से जाने कितने शोअरा आये और चले गये। पिछले पचास सालों में राहत साहब की आँखों के सामने एक युग की शुरूआत हुई और वो युग समाप्त भी हो गया, लेकिन वे आज भी उसी दमखम के साथ मंचों पर डटे हुए हैं। उनके लिए अब पैसा भी बहुत मायने नहीं रखता। बच्चे खुद सक्षम हैं कि वे अपना घर-परिवार चला सकें। पिछले कई सालों से राहत साहब ने शराब भी नहीं पी, लेकिन मुशायरों में बराबर जा रहे हैं। इससे ये भी सिद्ध होता है कि वे कभी शराब के मोहताज नहीं रहे। आज अगर राहत साहब मंचों पर डटे हैं, जमे हैं तो सिर्फ अपनी शायराना काविशों की बदौलत। शायरी ही सिर्फ एक जरीआ है, एक वसीला है जो उन्हें आज भी खराब तबीअत और खराब मौसम में इस मुशायरे से उस मुशायरे तक लेकर जा रही है। वे आजीवन शायरी को समर्पित शायर हैं। कभी उन्होंने दर-दर अपने इसी भटकने को लेकर कहा था-
तुम्हें  पता  ये  चले  घर की राहतें क्या हैं।
अगर हमारी तरह चार दिन  सफर में रहो।।
ऐसा नहीं है कि राहत साहब से पहले उर्दू-गजल में एहतेजाज या विरोध का कोई पहलू नहीं था। परम्परागत उर्दू-शायरी में इंसान की आजादी के लिए जितनी काविशें-कोशिशें हैं उनको दरकिनार करके अगर हम जदीद दौर के सियासी एहतेजाज की बात करें तो भी ऐसे शायरों की कमी नहीं है जिनके यहाँ विरोध ओर विद्रोह की आवाज बुलंद है। जोश, साहिर, फैसला, फराज वगैरह जैसे और भी कई शायर मौजूद हैं। राहत साहब की शायरी इन सबसे अलग है, या यूँ कहें कि राहत साहब की स्थिति इन सबसे अलग है। ‘संसद-भवन में आग लगा देनी चाहिए’ जैसे मिस्रे अगर राहत साहब ने कहे तो इसे रिसालों और किताबों में छपवाने के लिए नहीं कहे। इसे जिस झुँझलाहट, जिस झल्लाहट में कहा गया था, उसी झुँझलाहट और झल्लाहट से मुशायरों में पढ़ा भी गया। आज भी पढ़ा जाता है। मुशायरे इस बात का  जिन्दा सुबूत होते हैं कि शायर कितना  जिन्दा है। आज की शायरी में वो माहौल नहीं है कि शायर धर्म और मजहब के कर्मकांडों का विरोध करे और लोग उसे हँस-हँसकर दाद दें। हमारे दौर में नासेह, वाइज, शेख, काबा, बुतखाना, काफिर, शराब वगैरह के हवाले से प्रतीकात्मक शायरी करने पर युवा पीढ़ी के सामईन शायद ही कुछ समझ पायें, लेकिन ‘रवायतों की सफें तोड़कर बढ़ो वर्ना, जो तुमसे आगे हैं वो रास्ता नहीं देंगे’ जैसे मिस्रे सीधे-सीधे जेहन में उतर जाते हैं। राहत साहब का पूरा शब्दकोश ही अलग है।

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