अमित कुमार पाण्डेय

भारत के निर्माण के आलोक में नई शिक्षा नीति

प्रत्येक राष्ट्र अपनी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप, अपने नागरिकों के जिन गुणों, कौशलों और योग्यताओं को आवश्यक समझता है उसके अनुरूप शिक्षा व्यवस्था के संचालन हेतु नीतियों का निर्माण करता है। शिक्षा का स्वरूप क्या होगा? आदर्श क्या होंगे ? किन विषयों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होगी, जिससे कि वर्तमान की चुनौतियों एवं भविष्य की आकांक्षाओं पर खरा उतरने के साथ वैश्विक जगत से कंधे से कंधा मिलाकर उस देश के नागरिक चल सके इत्यादि सभी महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विस्तार पूर्वक शिक्षा नीति में विचार किया जाता है। सरकारों की यह विशेष जिम्मेदारी है कि अपने नागरिकों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध कराएं, क्योंकि यह उनका मौलिक अधिकार है और इससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता है। शिक्षा की सर्व सुलभता एवं शैक्षिक अवसरों की समानता की संवैधानिक प्रतिबद्धता की भावना से ओतप्रोत शिक्षा नीति सरकार का वह नीतिगत दस्तावेज है, जिसके माध्यम से सरकार प्रजातांत्रिक मूल्यों का अपने नागरिकों में रोपण करते हुए, अपने अतीत की संस्कृति, परंपराओं, आकांक्षाओं को वर्तमान एवं भविष्य के मध्य सामंजस्य का प्रतिबिंबित स्वरूप प्रस्तुत करती है। यह राष्ट्र की आवश्यकताओं का सम्यक विवेचन होता है।
    1959 तक भारत में कोई शिक्षा नीति नही थी। आजादी के उपरांत ही आचार्य विनोबा भावे ने प्रचलित शिक्षा पद्धति पर प्रश्नचिह्न उठाते हुए 1951 में हरिजन पत्रिका के लेख में कहा था कि, ‘यदि पुरानी शिक्षा पद्धति अब भी आरंभ रहती है तो इसका अर्थ होगा कि कुछ भी परिवर्तित नहीं हुआ है। मात्र विदेशी शासन को हमने हटाया है।’ कोठारी आयोग 1964-66 की अनुशंसा के आधार पर 1968 में प्रथम भारतीय शिक्षा नीति आई इसके बाद 1986 में दूसरी और 1992 में इसमें कुछ संशोधन प्रस्तुत किया गया। 1986 के बाद 2020 में 34 वर्षों के अंतराल के बाद ढाई लाख ग्राम पंचायतों, 66100 ब्लॉक और 650 जिलों के साथ-साथ शिक्षाविदों, अध्यापकों, जनप्रतिनिधियों एवं छात्रों सहित आम जनमानस के सुझावों के पुंज के रूप में प्रस्तुत की गई है। इस शिक्षा नीति को चरणबद्ध ढंग के संपूर्ण देश में लागू किया जाना है, क्योंकि शिक्षा केंद्र व राज्य दोनों के अधिकार क्षेत्र में आता है। यह समवर्ती सूची का विषय है। इसके लगभग 75 प्रतिशत प्रावधान 2024 तक और शेष प्रावधान चरणबद्ध ढंग से 2035 तक लागू किए जाने हैं। शिक्षा मंत्रालय को मानव संसाधन विकास मंत्रालय करने और अब उसे पुनः शिक्षा मंत्रालय करने का फायदा तभी मिलेगा जब यह शिक्षा नीति भारतीय युवाओं को शिक्षा के समान अवसर, रोजगार के साधन उपलब्ध कराते हुए एक आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में अपना योगदान दे। जिससे अखिल विश्व में भारतीय मेधा-शक्ति का दबदबा कायम हो एवं भारत विश्व-गुरु की संज्ञा से विभूषित हो सके। शिक्षा नीति तभी सफल कहलायेगी जब यह भारत को और अधिक रचनात्मक, बुद्धिमान एवं प्रगतिशील तथा आत्मनिर्भर बनाये।
    देश के प्रख्यात वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में गठित 9 सदस्यीय कमेटी द्वारा 31 मई, 2019 को सौंपी गई अनुशंसा के आधार पर घोषित यह नीति भारत लोकाचार में निहित, एक वैश्विक सर्वश्रेष्ठ शिक्षा प्रणाली के निर्माण की परिकल्पना करती है, जिसका लक्ष्य भारत को एक विज्ञान की महाशक्ति बनाना है। हम जानते हैं कि भारतीय शिक्षा प्रणाली दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी शिक्षा प्रणाली है जिसमें 1028 विश्वविद्यालय, 45000 कॉलेज, 14 लाख स्कूल तथा 33 करोड़ विद्यार्थी सम्मिलित हैं। अभी जीडीपी का 4.3 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जा रहा है इसे बढ़ाकर 6 प्रतिशत करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। नई शिक्षा नीति 2020 के महत्वपूर्ण स्तंभों को निम्नलिखित क्रम में समझने का प्रयास किया जा सकता है-
शैक्षिक संरचना: प्रस्तावित शिक्षा नीति वर्तमान प्रचलित 10़2 ढांचे के स्थान पर 5़3़3़4 उम्र वर्ग क्रमशः 3-8, 8-11, 11-14 तथा 14-18 प्रतिमान प्रस्तुत कर रही है। 3 वर्ष आंगनवाड़ी के साथ पहली तथा दूसरी कक्षा को रखा गया है, इसके बाद कक्षा 3, 4, 5 अगले चरण में कक्षा 6, 7, 8 और अंतिम चरण में 9, 10, 11, 12।
 मातृभाषा को प्रोत्साहन एवं शिक्षा का माध्यम मातृभाषा: शिक्षा का माध्यम मातृभाषा का होना एक शुभ संकेत है और पांचवी तक की पढ़ाई मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा में होगी।
 त्रिभाषा सूत्र: त्रिभाषा सूत्र को भी लचीला बनाया जा रहा है। भाषा चुनने का अधिकार राज्यों को होगा इससे गैर हिंदी भाषी राज्यों को लाभ मिलने की संभावना है। 
 उच्च शिक्षा: वर्तमान नामांकन 26.3 प्रतिशत को 2035 तक 50 प्रतिशत पहुंचाने के साथ-साथ 3.5 करोड़ नई सीटों को जोड़ने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। यूजीसी, एआईसीटीई, भारतीय वास्तु कला परिषद, फार्मेसी परिषद तथा छब्ज्म् को एक नियामक आयोग के अंतर्गत लाया जाएगा। केवल चिकित्सा शिक्षा एवं विधि के लिए स्वतंत्र आयोग रहेगा। कालेजों को क्रेडिट स्वायत्तता देकर विश्वविद्यालयों की संबद्धता प्रक्रिया से 15 वर्ष में खत्म किया जाना है। 
 शोध कार्य: एमफिल कोर्स को बंद करने के साथ शोध के इच्छुक छात्रों के लिए 4 वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम की शुरुआत की जा रही है (3 वर्षीय ठ। एवं 1 वर्ष ड।)। इसके उपरांत वे सीधे शोध कर सकेंगे। जो नौकरी करना चाहे वे 3 वर्षीय बीए कर सकते हैं। एक शीर्ष निकाय की स्थापना की जा रही है जिसका नामकरण नेशनल रिसर्च फाउंडेशन छत्थ् होगा। 
 बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों का ध्यान: मल्टीपल एंट्री और एग्जिट सिस्टम द्वारा किन्ही कारणों व पाठ्यक्रम पूरा न कर पाने वालों का ध्यान रखा जा रहा है। एक वर्ष के बाद सर्टिफिकेट, 2 वर्ष पूर्ण करने के उपरांत डिप्लोमा एवं तीन अथवा 4 वर्ष पूर्ण करने पर डिग्री मिलेगी। छात्र अपना वर्तमान कोर्स बदल कर दूसरा कोर्स भी चुन सकेंगे। पाठ्यक्रम को क्रेडिट के आधार पर रखा जाएगा। 
 रोजगार एवं कौशलपरक पाठ्यक्रम: छठी कक्षा से ही वोकेशनल पाठ्यक्रम की शुरुआत की जा रही है। सामुदायिक सेवा, कला-शिल्प खेल, योग इत्यादि विषयों को पाठ्यक्रम में जोड़ा जा रहा है। कक्षा 6 से 8 तक के बच्चे 10 दिन बिना स्कूली बैग के विद्यालय जाएंगे। इन दिनों वे इंटर्नशिप पर कार्य की बारीकियां सीखेंगे जिसमें स्थानीय शिल्प एवं उद्योगों की प्रमुखता होगी। स्थानीय कलाकारों को भी विद्यालय में बुलाया जाएगा। 
 बोर्ड परीक्षाओं पर लचीला रुख: बोर्ड परीक्षाओं का स्वरूप बदला जा रहा है। कांसेप्ट और ज्ञान को महत्व दिया जाएगा। बोर्ड के भार को भी कर कम करने की बात कही जा रही है। वस्तुनिष्ठ और विषय आधारित परीक्षा ली जाएगी। रिपोर्ट कार्ड अब समग्र मूल्यांकन पर आधारित होगा।
 अध्यापक शिक्षा: शिक्षक बनने की योग्यता ठण्म्कण् होगी और यह 4 वर्षीय पाठ्यक्रम होगा जो कक्षा 12 के उपरांत ही उपलब्ध होगा। शिक्षकों को सेवाकालीन प्रशिक्षण भी समय-समय पर उपलब्ध कराए जाएंगे, जिससे वह स्वयं में नवीनता ला सके। पाठ्यक्रम एवं पुस्तकों में भी बदलाव लाया जाएगा। प्रयास यह रहेगा कि प्राथमिक विद्यालयों से लेकर उच्च शिक्षा तक बेहतर अध्यापक तैयार किए जाएं। 
 शिक्षा में तकनीकी: ऑनलाइन शिक्षा पर निर्भरता बढ़ाई जा रही है। छम्च् में ऑनलाइन टीचिंग, ऑनलाइन लर्निंग पर जोर दिया गया है। इस हेतु एमएचआरडी के अंतर्गत एक विंग की स्थापना की जाएगी।
      उपर्युक्त सुधारों एवं प्रयोगों के अतिरिक्त कुछ अन्य सुधार भी प्रस्तावित किए गए हैं। कुल मिलाकर शिक्षा नीति की यह मंशा होगी कि शिक्षा सर्व सुलभ बने, इसमें गुणवत्ता, वहनीयता, जवाबदेही विकसित की जा सके। 21वीं सदी की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने वाली यह शिक्षा नीति शिक्षा को और अधिक समग्र, लचीला, छात्र की निहित क्षमताओं को बाहर लाने वाली तथा भारत को सभ्य समाज में विकसित कर इसे वैश्विक महाशक्ति में बदलेगी। छात्रों में बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक समझ विकसित करने का लक्ष्य एक बेहतर प्रयोग सिद्ध हो सकता है। समान एवं समावेशी शिक्षा, लैंगिक समानता, छात्रवृत्ति, भारतीय भाषाओं में शिक्षा इत्यादि महत्वपूर्ण प्रस्ताव किए जा रहे हैं।
    इस प्रकार निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि, संपूर्ण शिक्षा जगत को इसकी त्रुटियों पर ज्यादा ध्यान न देकर इसका स्वागत करना चाहिए। यदि किसी स्तर पर कोई समस्या आएगी तो व्यवहार में आने के उपरांत उसे दूर करने की संभावना निरंतर बनी हुई है। यह इस नीति का लचीलापन है। हमें उम्मीद है कि यह शिक्षा नीति गुणवत्ता युक्त एवं रोजगार की गारंटी युक्त शिक्षा उपलब्ध कराने के साथ-साथ समय की माँग के अनुरूप आम-जन की आकांक्षाओं पर खरी उतरेगी इस से अमीर एवं गरीब के मध्य की खाई को पाटने में मदद मिल सकेगी और समाज का वंचित तबका भी शिक्षा के मुख्यधारा से जुड़ सकेगा।

संदर्भ ग्रंथ:
1. थापर, रोमिला, भारत का इतिहास (1000 से 1500ई) राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
2. दामोदरन, के, भारतीय चिंतन परंपरा, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, संस्करण 2001
3. डॉ. धर्मपाल, रमणीय वृक्ष
4. विद्यावाचस्पति, डॉ. आशापुरी, भारतीय मिथक कोष, नेशनल पब्लिशिंग नई दिल्ली
5. अखंड ज्योति, 1952 अंक

-शोध छात्र, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु, सिद्धार्थ नगर (उ.प्र.)

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