रजनी शर्मा

चिंदी

नीम का पेड़ आज लहरा उठा। आज नियत समय पर सोमारु अपने लंगर-लश्कर के साथ उसकी छांव तले जा पहुंचा  था। धूप में दिनभर बैठने के कारण तांबई हो चली त्वचा, सुरती (तंबाकू) से पीले रंग के हो चुके दांत, लगभग छहफुटिया कद। संतुलित पर पुष्ट कद काठी। एक प्लास्टिक की चप्पल और आदम जमाने की सिलाई मशीन। कतरनों से भरा झोला। कुल जमा इतनी ही पूंजी उसके पास थी। या यूं कहिए विरासत में उसे इतना ही मिला था। 
नीम की शाखों ने मानो अपनी बांहें फैलाकर अपने आप को हैंगर के रूप में सोमारू के सामने प्रस्तुत कर दिया  था। सोमारू ने झोला जो करतनों से भरा था और तुमा (पात्र) के टोडरा (गर्दन) नीम की शाखों पर अटका दिया। सिलाई मशीन जमीन पर रखी। आसपास की जगह को साफ किया और स्वयं भी मशीन लेकर बैठ गया। नीम के नीचे बिना दीवारों वाली टेलरिंग की दुकान अब सज चुकी थी।
सोमारू का जीवन मशीन के चक्कों ऊपर ही चलता था। आड़ी तिरछी सिलाई करके वह रोज के पसिया भात व नोन (नमक) के लिए ही पैसे जुटा पाता था। क्या पता वह सिलाई करता था या बस्तर के ग्रामीण महिलाओं के सपने सिलता था। या फिर पुराने हो चुके आकांक्षाओं डूबी उम्मीदों वाले डोकरा-डोकरी, बुजुर्गों के सपनों की कथड़ी (पुराने कपड़ों से बना बिछावन ओढ़ावन) सिलता था।
मड़ई की घोषणा हो चुकी थी पिछले हफ्ते सोनारपाल की मड़ई में। कोतवाल ने तेतर रुख खाल्है (इमली के पेड़ के नीचे) मुनादी कर दी थी कि आगामी मड़ई में मेटगुड़ा में होगी। नीम भी आज किलक रहा था...। मुफ्त में ठंडी हवा बांट रहा था। आखिर उसकी छांव तले लोग जो आते हैं कुछ सिलवाने के लिए। सोमारू के आस-पास के गांव में दर्जी सोमारू की तूती बोलती थी।
कोयलू ने पास आकर अपनी फटी धोती सोमारू को देते हुए कहा- ‘ऐके खिंडिक सुजी मारून देस।’ (इसे जरा सिलाई कर दो)। गोया कि सोमारू कपड़ों का डॉक्टर हुआ।
पूरे मड़ई में बाजा, पोंगा बज रहा था। बाजू में कुछ घंटों को रखकर कढ़ाई चढ़ चुकी थी। गुड़िया खाजा बह बन रहा था। इतनी मीठी मीठी खुशबू आ रही है। अहा.... नीम की पत्तियां भी लरज जा रही थी। उन्हें भी अपने कड़वी पत्तियों के स्वाद से ऊब होने लगी थी। अब वे भी मीठी-मीठी बास अपने नथुने सरंध्र से अवशोषित करना चाह रहे थे। धूप चढ़ आई थी। आखिर नीम का पेड़ सोमारु को कब तक बचाता। चमड़ी तपने लगी थी। आतें कुलबुलाने लगी थीं। बोबो खाने को मन ललचा रहा था। पर पैसे अभी खर्च हो गए तो आगामी मड़ई तक गुजारा कैसे होगा ?
सोमारू उस नीम के पेड़ पर टंगे तुमा को निकालकर मड़िया पेज दोनों में रखकर सड़प सड़प गटक गया। आंतें शांत हुई।
दिन के दो  बज गए थे। अभी तक दो-तीन ग्राहक ही आए थे। सोमारू ने सिर उचकाकर देखा भीड़ में उन्माद छाया हुआ था। मुर्गा लड़ाई जो चल रही थी। मुर्गा लड़ाई में दो पक्ष होते हैं। दोनों अपने-अपने मुर्गों सको सल्फी (मध) मिला दाना खिला-खिला कर उकसा रहे थे। मानो यह मुर्गा लड़ाई भी एक प्रकार का टेलरिंग हो। जहां पर सही नाप जोख है तो उसे बिगाड़ने की भी कला का प्रदर्शन भी है। भीड़ जुटाने और भीड़ को तितर-बितर कर दो अलग-अलग गुटों में विभक्त करने का भी धंधा गांव का सरपंच सोनाधर ने चला रखा था। मुर्गा लड़ाई के स्पांसर के रूप में सोनाधर की लगभग सभी मड़ई में तूती बोलती थी। बाजार पर कब्जा उसी का था। किसका मुर्गा दांव पर लगेगा, किसके पक्ष में भीड़ का जयकारा लगेगा। यह सब सोनाधर के ‘भीड़ टेलरिंग’ के हुनर के हाथों नियंत्रित होता था। मुर्गा लड़ाई देखने आई लेकियों (लड़कियों) की टोलियां स्थानीय लुंगी में अपना मुंह छुपाकर देख रही थी। पर कनेर की आंखों के एक-एक भाव का नाप-जोख सोनाधर पिछले कई दिनों से रख रहा था। 
कनेर पनारा कुल की कन्या थी। गोरा रंग उस पर ठुड्डी में गोदने के चित्र पर मोरपंखिया गोदना उसके बस्तरिया सौंदर्य को और भी गमका जाते थे। कनेर अपने नाम के अनुरूप चट्ट पीला ब्लाउज पहने घुटने के ऊपर बंधी साड़ी और जंगली टेसू से लाल ओंठ। अभी तो कनेर और सेवती ने मिलकर बजरिया पान खरीदकर खाया था। खाया कम था उन दोनों ने। उनकी  पूरी कोशिश यह की थी कि पान की लाली होठों के अभेध किले के भीतर ही सुरक्षित रहे। चगल-चगल कर दोनों ने अपने-अपने होठों को सरई पान के पिहुन पाहुन पाना के भीतर जैसे पान की लोई को रख रहे थे। और अंगारों से सुर्ख रंगे  होठों को देखकर दोनों कठ्ठल गये (हँस पड़े)।
सोनाधर आज सल्फी के सुरूर में बार-बार कनेर के पीछे जा रहा था। पिछले कई मड़ई में कनेर में सोमारू के पास पोलका (ब्लाउज) सिलवाया था। गांव में जहां सदियों से नैसर्गिक अनावृत कंधों का सौंदर्य बस्तर के चप्पे-चप्पे में बिखरा रहता था। वहां अब शहरिया बेलाऊज (ब्लाउज) वाली संस्कृति भी पनपने लगी थी।
बस्तर बाला के नैसर्गिक सौंदर्य को  रैपरर पहनाने की विकृत संस्कृति ने भी पैर जमाने शुरू कर दिए थे। इसके पहले हाथ की बुनी मात्र एक साड़ी मेहनतकश बस्तर बालाओं के कसे सौंदर्य को ढ़कने के लिए पर्याप्त हुआ करती थी। और यह जिम्मेदारी उनके अनावृत कंधों ने उठा रखा  होता था। जो पूरे समय साड़ियों की गांठ को अपने ऊपर टिकाए रखते थे। मजाल है कि एक सूत भी सरक जाए।
कनेर ने अब कुछ-कुछ डिजाइनों की फरमाइश शुरू कर दी थी। ए बीती डारुन देस (ऐसा बना दो वैसा बना दो)। कपड़े सीते-सीते नेह का तानाबाना भी बुना जाने लगा था। कनेर और सोमारू के बीच। अब तो लगभग सभी मडई में एक नया बेलाउज। अब तो कनेर और खूबसूरत लगने लगी थी। क्या पता यह सोमारू के नेह की लुनाई थी या फिर रंग-बिरंगे क कतरनों से बने ब्लाउज का कमाल था।
नीम का पेड़ अब कसमसाने  लगा था। उसकी  छांव के अब अनेक हिस्सेदार होने लगे थे। पर सोमारू को कोई एतराज नही था। उसे तो नीम की छांव से अच्छी नजर बचाकर आती हुई धूप बहुत भाती थी। सच ही तो है कि तपती दोपहरी में जब मड़ई नही होता था। तब सोमारू गांव के किसी नीम के पेड़ के नीचे ही अपनी दुकान सजाए घंटों बैठे रहता था। तपती दोपहरी में जब लोग छांव की चोरी करते थे। वह धूप बटोर कर खुश रहता था। उसे भला क्या पता कि विटामिन बी कंपलेक्स विटामिन सी से भी ज्यादा जरूरी है। सोमारू ही क्या बस्तर के आदिवासियों की मजबूत कद काठी का राज भी यह धूप बटोरना ही था। जो आठ आठ घंटे तक धूप में काम करते हों वह भला धूप से धनवान ना हो ऐसा कभी हो सकता है क्या ? पता नहीं अब  गांव और गांव के जंगलों में भी अब शहरों की तरह धूप की भी चोरी होने लगे। अगर सोनाधर का बस चले तो वह तो पूरे धूप पर भी उगाही शुरू कर दे।
आज कनेर ने सोमारू से पूछ ही लिया- ‘तुम्हारे झूले में क्या है ?’ 
‘चिंदी।’
ना उसके आगे कनेर ने कुछ पूछा, ना ही सोमारू ने जवाब दिया। 
नेह की दुकान पर मनचाहे साथी के हाथों कैशौर्य के सपनों से कुछ सौगात का मिलना। चिंदी-चिंदी संसाधन पर भरपूर नेह...। नेह की कतरन से बुनी चादर जिसमें सोमारू और कनेर का नाम लिखा गया था। जिसमें उन दोनों के नेह के सूत से भविष्य के सपने  टांके जा रहे थे। अब उसे सोनाधर बलपूर्वक ओढ़ने जा रहा था। गांव में सरपंच का रुतबे ने कनेर के पिता के ऊपर धाक जमाना प्रारंभ कर दिया था। असर दिखना शुरू हो चुका था। कनेर बहुत रोई पर मात्र उस दर्जी सोमारू की भला क्या  बिसात जो सरपंच के रुतबे के आगे उस गांव में टिक पाता।
आज तेतर रुख इमली के पेड़ के नीचे सोनाधर और कनेर की मंगनी हो रही थी। कपड़ा सीते-सीते सुमारू के हाथों में सुई चुभ गई। क्या पता यह विवशता या फिर विछोह की चुभन थी। जो अब कनेर को सोमारू से दूर किये जाने का संकेत दे रही हो। नीम के पत्ते झरने लगे थे। मानो उसके कड़वे पत्ते सोमारू को समझा रहे हो कि मेरे पत्तों से भी कड़वी कुछ जीवन के गरल भी होते हैं।
सोनाधर मूछों पर ताव देता हुआ सोमारू के सामने शहर से लाए कपड़े का लठ्ठा लेकर खड़ा था। उसने कहा- ‘कीसिम कीसिम चो कुर्ता सिलून देस। मोचो का जे। (अलग-अलग डिजाइनों के कुर्ते मेरे लिए सी देना ब्याह है मेरा)। एकदम नुक्को असन। अच्छे से सीना।’ 
सोमारू का स्वर-यंत्र घरघराने लगा, आंखों के पानी में डूबते हौसलों के चक्के में तेल डाल दिया हो। नेह की डोरी बार-बार पहिए से उतरी जा रही थी। और सोनाधर की गर्विली विजयी मुस्कान की सुई से सोमारू का मन छलनी हुआ जा रहा था। ठीक ही तो है... कहां वह साधारण दर्जी और कहां सरपंच सोनाधर। नीम के पत्ते आज बेमन डोल रहे थे...।
ब्याह नजदीक आ गया था। ब्याह क्या वर-वधू सल्फी का दोन एक दूसरे के ऊपर उड़ेलेंगे, और ब्याह हो जाएगा। सरपंच आज अपने कुर्ते लेने आया था। वह चार की जगह तीन कुर्ते देखकर बिफर गया- ‘मैंने तो  चार कुर्तों का कपड़ा दिया था।’ 
सोमारू कुछ बोलता इसके पहले सल्फी के नशे में सोनाधर और उसके लठैत सोमारू के ऊपर पिल पड़े।
यह मात्र कपड़े की चोरी का आरोप नही था। यह तो खुन्नस थी। या खीज थी जिसने परास्त सोनाधर ने सोमारू के ऊपर उतारना शुरू कर दिया था। गांव का सबसे धनवान होने के बाद भी कनेर का सोनाधर के प्रति अनुराग। डंडों से पीटते पीटते सोनाधर कहने लगा चोर कहीं का...। 
सोमारू पस्त हो चुका था। पहले से ही वह मन से टूट चुका था। अब भला तन क्या चीज थी। मशीन एक और लुढ़क गई थी। नीम की पत्तियां बेतरतीब सी सरसरा रही थीं। मानो बिलख रहे हों।
चिंदियों के झोले से अचानक कई रंग बिरंगे बेलाउज (ब्लाऊज) बिखर गए। जिसमें सोनाधर के दिए गए कपड़ों से बची चिंदियां टंकीं थी। चिंदियां बिखर चुकी थी। पीली, गुलाबी, लाल, नीली, हरी....।

-बस्तरिया, सोनिया कुंज, रायपुर, छत्तीसगढ़ 492001
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें