जयश्री बिरमी

स्वाभिमानिनी

शादी होते ही मीना ससुराल पहुंच गई सिमटी सी शर्माती हुई गृहप्रवेश की रीत पूरी की और घर के  दिवानखंड में बैठी थी। लाल सुर्ख जोड़ा पहने और हाथों में कंगन चूड़ियां, पावों में पायल बिच्छुएं, हाथों में अंगूठियां और पांचागला (पंचफुल) बाजूबंद गले में तीन छोटे बड़े हार माथे पर टीका शिंका आदि गहनों से लदी शर्म से सर जुकाए बैठी थी और घर का मुआयना कर रही थी। जहां बैठी थी वहां सामने डाइनिंग टेबल थी, जिसके पर बेसलीके से तितर-बितर मिठाईयों के डिब्बे लदे हुए थे। कुछ फालतू चीजें भी पड़ी थी। उसके आगे रसोईघर था सिर्फ बंद गैस पर रखे कुकर और पतीले पड़े थे। वैसे कहें तो शादी वाले घर में जितनी भी अफरा तफरी हो सकती थी, सभी वहां मौजूद थी। थोड़ी देर में ही सब फ्रेश होने चले गए तो मीना की ननद आई और उसे उनके कमरे में ले गई। वह अपने कमरे में पहुंची तो वहां उसके समान में से अपना बैग अलग कर कपड़े निकाले और इधर-उधर देख रही थी तो उसकी ननंद ने उसे हंसी के साथ हाथ पकड़ बाथरूम तक ले गई।
नहा-धोकर एकदम ताजा महसूस कर रही थी अपने आप को। नजर के सामने से पिछले कुछ दिन चलचित्र की भांति गुजर रहे थे। कैसे अमरीका से आए मनोज का रिश्ता आया तो घर में सब ही खुश हो गए कि वह इतने विकसित देश में ब्याह  जायेगी, लेकिन उसे इस बात में जरा भी गुरूर नहीं था उसे तो अपने देश में भी रहना अच्छा लगता था। जब वे लोग पहली बार घर आएं तो मनोज के माता-पिता और चाची भी थी। दोनों ओर से बातचीत हुई और थोड़ा सकारात्मक वातावरण हुआ तो उन दोनों को मिलने का समय मिला। दोनों ने कुछ सामान्य-सी बातें की और एक-दूसरे के बारे में थोड़ी जानकारी भी ली। अंततः दोनों और से हां होने पर रोका हो गया। हालाकि मीना कुछ ज्यादा स्पष्ट नहीं थी रिश्ते के बारे में, लेकिन कभी न कभी तो शादी करनी ही हैं, और आगे जा कर इससे अच्छा रिश्ता नहीं मिला तो... ये सोच हामी भर दी। लेकिन एकदम  प्रसन्नता से स्वीकार नहीं किया था मीना ने।  
सगाई और शादी एक महीने के अंदर ही हो गई। आज वह ससुराल में बैठी ये सब सोच रही है। बहुत ही थोड़े वक्त में रोका, सगाई और शादी होना... सब स्वप्न सा लग रहा था उसे। ये पहला दिन था ससुराल में। चौके चढ़ने की रस्म थी। घर की सभी महिलाएं रसोई में एकत्रित हो उसे घेरे खड़ी थीं। वैसे उसकी माँ ने सभी सामग्री के साथ उसे समझाया था कि कैसे बनता हैं हलवा। आखिर उसने अपनी रसोई कला दिखाते हुए हलवा बनाया। वैसे बना तो अच्छा था, किंतु नई बहू  के मान में वह एक विलक्षण स्वादिष्ट हलवा बन गया था। जिसे देखो वही हलवे के गुण गा रहा था और उसकी झोली में शगुन के रुपए आते जा रहे थे। सभी खुश थे और वह भी अभी अच्छा महसूस कर रही थी। याद तो आ रही थी माँ और पिताजी की, लेकिन मन मना लिया था उसने।
तीन दिन बाद उसके पिताजी पग फेरे के लिए लेने आ गए। उनकी भी खूब अवभागत की गई और वह पहुंच गई अपने घर, कुछ दिनों के लिए ही सही किंतु बहुत अच्छा लगा अपनों से मिलकर। वही घर, वही कमरे और उसका अपना कमरा जिसे वह बड़े ही चाव से सजाया करती थी। माँ का प्यार तो उमड़ पड़ा था उसे दहलीज पर पाके, खूब प्यार से गले मिलते ही आंखे बरसने लगी थी उनकी। अपने कमरे में लेटकर एक सकून मिला था उसे, अपनेपन वाला। 
तीन दिन कहां बीत गए पता ही नहीं चला और मनोज अपने छोटे भाई के साथ उसे लिवाने आ गए। दोनों की आगता-स्वागता के बाद सब बैठ इधर-उधर की बातें करते रहे। मनोज की बातों  में पहली बार अमेरिका में रहने का और अपनी ऊँचे ओहदे की जॉब का अहंकार दिखा जो सब को थोड़ा बुरा लगा। वह अमेरिका के  साथ भारत की तुलना कर अपने ही देश की हेठी करने पर तुला था। लेकिन मनोज जवांई था, इसलिए बुरा लगने के बावजूद कोई कुछ भी नहीं बोला। उसी दिन वह अपना घर छोड़ अपने पति और ढेर सारे तोहफों के साथ अपने ससुराल लौट आई। 
दोनों हनीमून पर गए। तीन-चार दिन में भी उतनी नजदीकियां नहीं आईं, जो नवविवाहितों में आ जाती हैं। वैसे सबकुछ ठीक था। कुछ भी ऐसा नहीं था, जो नहीं होना चाहिए। लेकिन कुछ तो था जो उन दोनों के बीच एक महीन-सी लकीर खींचें हुए था। दोनों घर वापस आ गए। दूरियां थोड़ी दूर तो हुई थी। पति-पत्नी बने अब दो हफ्ते हो चुके थे। शादी को रजिस्टर ऑफिस में करवाया गया, ताकि यूएस जाके मीना के पेपर्स फाइल करने में आसानी हो जाए। सब कागजी कार्यवाही करने में एक महीना हो गया और मनोज के जाने की तारीख नजदीक आने लगी। मीना कुछ उदास और असुरक्षित सी महसूस कर रही थी। मनोज के जाने के बाद उसके ससुराल वाले न जाने कैसा व्यवहार करेंगे और कैसी होगी उसकी आगे की जिंदगी... ये चिंता उसे होने लगी थी। उसने अपनी माँ से भी अपनी चिंता के बारे में बात की थी, पर माएं तो हमेशा ही सकारात्मक ही होती हैं, अपने बच्चों के मामलों में वैसे ही वह कुछ ज्यादा ही होती हैं।
मनोज के विदेश गमन का दिन नजदीक आ रहा था तो मीना ने पूछ ही लिया कि वहां जाकर भूल तो नहीं जायेगा वह मीना को! और चाहे मजाक ही में सही उसने कहा था कि ‘शायद’। और फिर मीना को असुरक्षा की भावना ने और अधिक घेर लिया था।
अब वो दिन भी आ गया जब वह चला भी गया। दुःख तो हुआ मीना को भी, लेकिन असुरक्षा ने फिर उसे घेर लिया। 
वह उदास रहने लगी तो उसकी सास ने उसे खुश करने के लिए उसे मायके जाकर थोड़े दिन रह के आने की सलाह दी। वह भी जा के माँ की गोदी में सर रख सकून पाने चली गई। एक महीना माँ और पिताजी के साथ कैसे निकल गया पता ही नहीं चला। लेकिन कुछ दिनों से मन ठीक नहीं था, शायद उदासी की वजह से ऐसा लग रहा था। 
जब ससुराल में आई तब कुछ ज्यादा तबियत बिगड़ी लग रही थी। सासू माँ ने डॉक्टर को बुलाया। वैसे उसकी माहवारी आने के ऊपर 15 दिन होने को थे, किंतु उस ओर उसका ध्यान ही नहीं था। डॉक्टर महिला होने के नाते कुछ ज्यादा ही पूछताछ कर रही थी और जब उसकी सेहत के बारे में पूछा तो उसने अपनी माहवारी की तारीख बता दी तो स्पष्ट हुआ कि उसे गर्भधान हुए को आज डेढ़ महीना हो चुका था। घर में सब बहुत खुश हुए, किंतु मीना खुश होने की बजाय आशंका से भर गई। पढ़ी-लिखी होने के बावजूद उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा था उसके साथ। मनोज का फोन रोज ही आता था, लेकिन एक अपनेपन की कमी ज्यादा थी, एक व्यावहारिक संबंध में जैसे बात होती हैं वैसी ही बात करता था। और जब उसे कहा गया कि वह बाप बनने वाला था तो खुश नहीं हुआ। बधाई दी उसे और फोन बंद कर दिया। अपने पेट में पल रहे बच्चे को पाल रही मीना अब अपने और अपने बच्चे के भविष्य के बारे में चिंता में व्यग्र रहने लगी। मनोज के फोन आना अब एक व्यवहारू-सी बात थी। प्यार या लगाव पहले जो दिखावे का ही था... वह भी धीरे-धीरे गायब होने लगा। जब उसकी माँ से बात हो रही थी तो उन्होंने मीना को यूएस ले के जाने की बात की तो ‘प्रसूति के बाद ही संभव होगा’, ऐसा बोल बात टाल गया था मनोज।
मीना ने अपना पूरा ध्यान अपने और होने वाले बच्चे की सेहत का ख्याल रखने में लगा रहने लगा। सास भी काम में वह मदद करे, ऐसा कई बार जता चुकी थी और मीना भी जितना हो सके उससे ज्यादा ही मदद कर देती थी। खाना बनाने से लेकर झाड़पोंछ तक के बाकी काम के लिए तो कामवाली बाई आती ही थी। ऐसे ही कब नौ महीने निकल गए पता ही नहीं लगा, और उसकी प्रस्तावित तारीख को कुछ दिन ही रह गए थे। उसका शरीर खूब फुल गया था... खास कर पेट और पीछे का हिस्सा, सब कयास लगाते थे कि लड़की होगी उसे तो वह खुश होती कि अपनी प्रतिकृति पाएगी वह। गुड़िया के प्यार में वह अभी से ही दीवानी हुई जा रही थी। और आ गया वह दिन! रात में उसे खूब दर्द उठा तो उसने सास को बताया तो सब तैयार हो अस्पताल पहुंचे और उसे भ र्ती करवाया फिर उसकी माँ और पिताजी को भी खबर कर दी तो वो लोग भी दौड़े-दौड़े आए। सब राह देख बैठे थे कि कब खबर आए नए मेहमान के आने की। और आई खबर, दाई बड़े ही नटखट अंदाज में हँस के बोली- ‘नेग दो जी लड़का हुआ है।’ लड़के का संदेश सुन सभी की खुशी से बांछे खिल गई। उसकी सास ने उसे दो हजार रुपए निकाल कर दिए तो वह और माँग रही थी तो उसने वचन दिया कि अस्पताल से जाते वक्त उसे खुश कर देंगे तो वह चली गई। कुछ देर बाद जब मीना को कमरे में लाये तो सब एक-एक कर कमरे में जा बच्चे को देख आए। सुंदर-सा, छोटा-सा राजकुमार लग रहा था वह सफेद चादर में लिपटा लेता हुआ था पलने में। दो दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई।
अब तो बस उस छोटे-से बच्चे की चाह और संभाल में ही अपना ध्यान लगाने वह लगाने लगी थी, किंतु सास थी कि उसे जली-कटी सुनाने से बाज नहीं आती थी कि उसके पति ने भी उसकी ही गलती से बेवफाई की थी, वह उसे प्यार नहीं दे पाई थी, इसीलिए वह दूसरी औरत की और आकर्षित हो उससे विमुख हो गया था। यही तानें सुनते-सुनते कान पक गए थे। लेकिन उसके पास कोई चारा भी न था। उसे अपने बेटे का नाम मनन रखना था, लेकिन सास ने उसका नाम उसकी अपनी मर्जी से विनय रख दिया था। बोली थी कि कुछ तो नम्र बनेगा, मीना जैसा ढीठ तो नहीं बनेगा। ऐसे ताने सुनते सुनते विनय सात महीने का हो गया, लेकिन उन लोगांे की जुबान न रुकती थी और न ही थकती थी। एक दिन बड़े दिनों से बंधा हुआ सब्र का बांध उसकी माँ के सामने टूट गया, जब वह मिलने आई थी और उनकी गोद में सिर रख कर वह बहुत रोई थी। अपने दिल का गुबार माँ के सामने रख दिया। उसकी माँ एक स्वाभिमानी औरत थी। वह उठी और उसकी सास के पास बैठक वाले कमरे में गई और मीना के साथ होने वाले सलूक की वजह पूछी तो मीना की सास ने उसे मनहूस कहा और बताया कि मीना की वजह से उन्होंने अपना बेटा खोया था। अब गुस्से में भरी मीना की माँ ने हमेशा के लिए मीना को अपने घर ले जा रही हैं ये बता दिया। पूछा नही, बताया। वह भी तैयार हो बेटे को गोदी में ले अपनी माँ के साथ चल दी। 
ससुराल को अलविदा तो कर दिया, लेकिन उससे नाता तो नहीं टूटा था, क्योंकि अभी भी वह मनोज से वैवाहिक बंधन से जुड़ी हुई थी। माँ के घर को मायका कहते हैं तो वह उसका कैसे हुआ। यह प्रश्न हमेशा ही परेशान करता था। वह सोचा करती थी, मायका माँ का घर, ससुराल सास का घर तो उसका अपना घर कौन-सा! अब उसे अपने घर की तलाश थी, और आरजू भी! 
कुछ दिन रहने के बाद उसने सोचा कि अब उसे कुछ काम करना चाहिए। काम तो वह उसकी माँ के साथ सब कर ही लेती थी, लेकिन आर्थिक प्रवृत्ति ही उसे कुछ पाने में मदद कर सकती हैं। कुछ बन जायेगी तो अपना घर बना लेगी और तब तक विनय भी कुछ बड़ा हो जायेगा तो वह उसे स्कूल भेज अपने काम पर भी जा सकेगी। वैसे भी विनय अब उसकी माँ से हिलमिल गया था। उन्हीं से नहाता और खाता भी था, सिर्फ सोने के लिए ही वह मीना के पास आता था। अब मीना ने सोच लिया कि वह कुछ कोर्स कर के नौकरी कर लेगी। उसने कंप्यूटर का कोर्स कर लिया और आईटी कंपनी में नौकरी मिल गई। तनख्वाह भी ठीक ठाक थी तो उसने स्वीकार कर ली। सुबह नौ बजे अपना नाश्ता खाकर, दोपहर का खाना बनाकर ले निकल जाती थी। अपनी काबिलियत से दफ्तर में उसकी बहुत ही इज्जत बढ़ गई थी। उसे खूब बढ़ती मिलती रही और कुछ साल में वह डायरेक्टर बन गई।
एक दिन उसके देवर का फोन आया और मिलने के लिए समय माँगा तो उसने रविवार के दिन घर पर बुला लिया। रविवार के दिन वैसे वह देर से उठती थी, लेकिन देवर आने वाला था तो जल्दी उठ तैयार होकर नाश्ता बनाकर वह विनय के साथ खेल रही थी। उसका देवर आया और नमस्ते कर बैठ गया। विनय के लिए चॉकलेट लाया था। वह देकर विनय के साथ कुछ औपचारिक बात जैसे कौन-से स्कूल में जाता है, कौन-सी क्लास में पढ़ता है आदि बातें कर मीना की और देखकर बोला कि उसके दस्तखत चाहिए उसे। मीना समझ गई उसने विनय को नानी की पास जाने के लिए बोला और जब वह चला गया तो उन कागजात को हाथ में ले दस्तखत करने लगी तो उसके देवर ने पढ़ने के लिए बोला तो वह बोली तलाक के कागजात हैं, ये वह जानती थी। दस्तखत कर उसने उसे लौटा दिए तो वह झट से उठा और चला गया। उस दीन एक बहुत बड़े बोझ से अपने आप को मुक्त पा रही थी। एक एहसास जिसने उसे थोड़ा सा हल्कापन महसूस करवाया, बोझ-मुक्त हो गई थी वह।
अब विनय कॉलेज में आ गया था और वह भी उम्र के उस दौर में पहुंच चुकी थी, जहां थोड़ी सी थकान महसूस हो रही थी। वह अपनी शादीशुदा जिंदगी के हर पल, हर एहसास को भूल चुकी थी। एक दिन भूचाल आया.... जब मनोज ने उसके घर की घंटी बजाई। उसकी माँ ने दरवाजा खोला तो वह सीधा ही घर में आ गया और मीना के सामने खड़ा हो गया तो उसे देख वह भौचक्की-सी रह गई। मनोज की सारी हेकड़ी बैठ गई थी। जो गर्दन अकड़ी रहती थी, वह आज झुकी हुई थी। वह शान जो उसके कपड़े जो उसका गौरव थे वह एक दम सादा थे। शक्ल की सारी चमक गायब थी और एक सियाही सी फैल चुकी थी वहां। अब तो मीना की कनपट्टी पर भी थोड़ी सफेदी चमक रही थी, लेकिन उसकी शक्ल पर एक तेज था, आत्मविश्वास था जिससे उसकी शख्शियत को चार चांद लग रहे थे। दोनों एक-दूसरे को देख कुछ हैरानी में पड़ गए थे। आखिर में मनोज ने ही चुप्पी तोड़ उससे उसके हालचाल पूछे। उसने भी सादा-सा जवाब दिया कि वह ठीक है। इतने में उसकी माँ आई और उसने भी हाल पूछा। ऐसे काफी देर चला और मनोज असली मुद्दे पर आया और बोला की उसने जिससे शादी की थी, वह उसे छोड़कर चली गई थी और साथ मंे सारा बैंक बैलेंस ले गई। घर तो उसने पहले ही अपने नाम करवा लिया था तो अब न उसके पास घर था और न ही पैसा बचा था। बहुत परेशान था तो मीना से मिलने आ गया।
मीना भी काफी परिपक्व हो चुकी थी। अकेले ही दुनिया का सामना कर वह काफी समझदार भी हो गई थी। वह भावनावश हो कोई निर्णय नहीं लेना चाहती थी। उसने  मनोज की और देखा और बोली कि उन दोनों के बीच में कोई मधुर संस्मरण नहीं थे। न ही कोई प्यार के चरम का इतिहास था। अगर कुछ था तो वह धोखा था। एक शरीफ घर की लड़की को अपनी बातों में उलझकर शादी करना और फिर विदेशी लड़की से प्यार के नाम पर उसके साथ रह अपनी ब्याहता के साथ सामाजिक, धार्मिक, भावनात्मक और मानसिक अपराध ही किया था मनोज ने। ये उसे स्पष्ट बता उसकी ओर से किसी किस्म का लगाव या हमदर्दी की अपेक्षा नहीं कर सकता था वह। मनोज बुत बनकर देख रहा था उसे और उसने अपनी माँ से आवाज लगाकर चाय भेजने के लिए बोला। 
लेकिन तब तक मनोज उठ खड़ा हुआ, गीली आंखों से एक संदेश दे रहा था कि वह बड़ी आस ले कर आया था उसके पास और अब जा रहा हैं मायूस होकर। 
मीना ने तो अपने मन की बात बता ही दी थी। वह भी उठ खड़ी हुई मनोज को जाते हुए देख, स्वाभिमान से अपनी गर्दन ऊँची कर एक गौरवान्वित नजर से अपने सामने की दीवार पर टंगे आईने में अपने मुख को देख संतुष्टि का अनुभव कर रही थी।
 

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