संगीता पाण्डेय

स्त्रीवादी कविता 


कविता बदलने लगी अपना कलेवर,
अपना भाव अपने शब्द,
साथ ही बदलने लगी कवियों की मानसिकता।

स्त्रीवादी कविता के लिए होड़ लगी है स्त्रियों में ही
कितनी नग्नता परोस सकती हैं वो
खुद पर होने वाले शोषण को
लिखकर लेखनी के माध्यम से
शरीर के भूगोल और उच्चावच को मापने में भूल गयी
वो प्रदर्शनी नहीं, न ही बाजार में बिक रही वस्तु
भौंडे, अश्लील द्विअर्थी बातों से
नहीं बदल पाएगी सदियों से चली आ रही स्त्री दासता  
पुरुषों के द्वारा लिखा गया उनका भाग्य।

शरीर के अवयवों की प्रदर्शनी लगाने और 
उनकी उन्मुक्त परिभाषा से
स्त्रियां बस छली जाएंगी, और
और उन अबोध, अशिक्षित अबलाओं पर
बढ़ता जाएगा भार दासता और शोषण का।

समाज के सदियों से बंधे नियमों की जंजीर खोलने को
बनाना पड़ेगा एक हथौड़ा
जो बना होगा स्त्री के अधिकारों के अलख से
हथौड़े को बनाने के लिए 
जलानी पड़ेगी मशाल शिक्षा की
जिसकी रोशनी में सदियों से दबी कुचली स्त्रियों 
के हक की बात की जाएगी।

बनाओ मशाल जन जागृति की
पलीता लगाओ उसमे सदियों से एक ही बिंदु पर
रुक चुकी स्त्री की बंदिशों की, 
जब जलेगी आग उसमे शिक्षा की
इस नव अलख की मशाल 
जला देगी सदियों से स्त्रियों के लिए बनी ऊंची
कठोर नियमों के लकड़ी की बनी दहलीज 
टूट जाएंगी जीर्ण-शीर्ण परम्पराएं
खुली हवा में सांस लेंगी स्त्रियां
लैंगिग असमानता से परे
बस मनुष्यता होगी
प्रेम होगा, और होगी 
धवल, निर्मल, मुक्त 
स्नेह की सृष्टि।

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