1
मकाँ होकर भी वो ठहरा नहीं है।
अकेला है मगर तन्हा नहीं है।
सितारे खूब उसके दरमियाँ हैं,
कोई उससे मगर मिलता नहीं है।
जहाँ को मिल रही है रोशनी सब,
वहाँ अब तक कोई पहुँचा नहीं है।
मुसाफिर है वो अपने आसमाँ का,
वो लगता है मगर चलता नहीं है।
बसाया है उसे कब, दूर किसने,
नजर ने ये कभी पूछा नहीं है।
2
सुनकर जिससे हल निकलेगा।
फिकरा वो ही चल निकलेगा।
जब भीतर की गाँठ खुलेगी,
तब बाहर का सल निकलेगा।
आज बिताया हमनें जैसा,
वैसा अपना कल निकलेगा।
टकसालें जो सूरत देगी,
सिक्का वैसा ढल निकलेगा।
खून-पसीना, काम के जरिए,
अक्सर मीठा फल निकलेगा।
रस्सी आखिर जल जाएगी,
फिर भी उसमें बल निकलेगा।
भूली-बिसरी यादों के संग,
कैसे लम्हा-पल निकलेगा ।
3
मन में जो पलता रहता है।
चेहरे पर चलता रहता है।
मन को जो भी रास न आया,
आँखों को खलता रहता है।
मिट्टी से रिश्ता है उसका,
अक्सर जो फलता रहता है।
चाँद, सितारे रात सजायें,
सूरज जब ढलता रहता है।
हो किस्मत का साथ नहीं तो,
मौका हर टलता रहता है।
हाल-वक़्त पर चूका फिर वो,
हाथों को मलता रहता है।
4
जितने हैं समझाने वाले।
थोड़े हैं अपनाने वाले।
सुनते हैं बस कानों तक,
बातों को झुठलाने वाले।
कैसे मंजिल तक जायेंगे,
रस्ते भर सुस्ताने वाले।
मिलते हैं अपने मतलब से,
कितने आज जमाने वाले।
सा रे गा मा पर अटके हैं,
ऊँचे सुर में गाने वाले।
औरों का फन क्या समझेंगे,
अपने गाल बजाने वाले।
5
ये दिलदारी पहले से है।
फन से यारी पहले से है।
आग लगाने वाली तन में,
ये चिंगारी पहले से है।
हम-आपस के व्यवहारों में,
दुनियादारी पहले से है।
आज रही मजबूरी थोड़ी,
कुछ लाचारी पहले से है।
दिखती है जो सबमें हमको,
वो अय्यारी पहले से है।
वो ही है सबसे आखिर में,
जिसकी बारी पहले से है।
बोझ किसी के अहसानों का,
सिर पर भारी पहले से है।
मंजिल तक तो इन राहों की,
सब दुश्वारी पहले से है।
आज निभाई जितनी हमनें,
जिम्मेदारी पहले से है।
6
जो बातों के सच्चे हैं।
चुप्पी साधे बैठे हैं ।
बड़ बोली आदत वाले,
बिन सोचे सब कहते हैं।
ये बतलाना मुश्किल है,
ऐसे हैं या वैसे हैं ।
धोखें हैं सब आँखों के,
जो राहों पर देखे हैं।
तन हैं भीगे-भीगे पर,
मन तो रीते-रीते हैं।
नीम चढ़े मीठे फल भी,
लगते थोड़े कडुवे हैं।
दिखलावे और झुठलावे,
सबने उनसे सीखे हैं।
-नवीन माथुर पंचोली, अमझेरा, धार, म.प्र. 454441 (मो. 9893119724)
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