मौन की उड़ान
उस पंछी के ‘पर’ दो हैं,
पर उड़ना उसने सीखा नहीं।
चहकती रहती मौन ही मौन,
पर बोलना उसके बस का नहीं।
सरल, सुशील, जटिल कभी,
और अंदर-बाहर मोह में फंसी।
कभी ऊचें सपनो की उड़ान भरे,
पर बदले उसके कौन त्याग करे।
मिली उसे एक नाम ‘स्त्री’
स्त्री की एक कपोत सखी,
पीड़ा उसकी भी एक जैसी।
एक मौन पिंजरे में कैद,
तो दूसरी स्वतंत्र नहीं।
छोड़कर पिंजर वो कैसे जाय,
जग के रस्म जब यहीं निभाय।
कहने को तो आधुनिक समय के साथ चले,
पिंजरे की खिड़की खोल खड़े।
दोनो की कुण्ठा क्यूँ एक-सी,
पूछे ये सवाल हर एक ‘स्त्री’।
-ssneha.di@gmail.com
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