प्रो. गिरीश्वर मिश्र

 एक बेहतर दुनिया के लिए

लगभग डेढ़ शताब्दी 1750 से 1900 के बीच पूंजीवाद और प्रौद्योगिकी ने एक नई तरह की सभ्यता का आगाज किया था। इन विचारों का जिस तरह वैश्विक स्तर  पर फैलाव हुआ और वह सभी क्षेत्रों, वर्गों और संस्कृतियों पहुंचा उसने औद्योगिक क्रान्ति को जन्म दिया। पूंजीवाद के इस विस्तार ने ज्ञान का अर्थ ही बदल दिया। ज्ञान जो पहले मनुष्य के  अस्तित्व से जुड़ा  था अब वह कर्म  में प्रयुक्त हो गया। यह एक साधन और उपयोगी वस्तु हो गया। कभी जो ज्ञान निजी था वह सार्वजनिक हो गया। ज्ञान को उपकरणों, प्रक्रियाओं और उत्पादों में प्रयुक्त किया जाने लगा। इसने औद्योगिक क्रान्ति को जन्म दिया। साथ ही इसने अलगाव को भी खूब बढ़ाया। फिर हमने यह भी देखा कि वर्ग संघर्ष के साथ साम्यवाद आया। ज्ञान के उपयोग के साथ उत्पादकता की क्रान्ति हुई। उत्पादकता क्रान्ति ने वर्ग संघर्ष और और साम्यवाद को हरा दिया। अंतिम दौर दूसरे विश्व युद्ध के बाद शुरू हुआ। अब ज्ञान का उपयोग ज्ञान के लिए शुरू हुआ। इससे प्रबंधन क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। पूंजी  और श्रम को किनारे कर ज्ञान उत्पादन का एक कारक हो गया। हमारा समाज ज्ञानकेन्द्रित तो नहीं हुआ है पर अर्थव्यवस्था जरूर ज्ञानकेन्द्रित  हो चुकी है।
     अब आर्थिक समृद्धि परवान चढने लगी और सुख की इच्छा भी तीव्र होती गई। पृथ्वी, जल और अंतरिक्ष समेत सारी सृष्टि के अधिकाधिक दोहन कर विकास के नए प्रतिमान स्थापित होते गए। विश्व में आर्थिक प्रगति की दृष्टि से ध्रुवीकरण होता गया और पहली, दूसरी और तीसरी दुनिया के बीच देशों को बांटा जाने लगा। विकास का पैमाना विकसित देशों से लिया गया और सभी देशों को उससे नापने की व्यवस्था की गई। वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को महामंत्र मानकर सारी क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विविधताओं को किनारे रख पिछड़े देशों को कर्जदार बनाकर एक विलक्षण आर्थिक प्रगति का एकहरा मॉडल आरोपित किया गया। इसके परिणाम मिश्रित हैं। अनचाही प्रतिस्पर्धा, हिंसा और प्राकृतिक संसाधनों का का अनियंत्रित दोहन प्रकृति के स्वाभाविक चक्र को ही खंडित कर रहा है। विकास की दौड़ विनाश जैसी लगने लगी है। सभी सकते में हैं और धरती और पूरा पर्यावरण जोखिम की गिरफ्त में है। इस पूरी कहानी के अंजाम को लेकर सभी चिंतित हैं। विकल्प की  तलाश में हमारा ध्यान महात्मा  है जो गांधी की दृष्टि पर जाता है। उनके  सादगी और अहिंसा के विचार मानव कर्तृत्व की एक सहज  व्यवस्था में स्थापित हैं। वह संतुष्टि की अर्थ व्यवस्था की ओर ले चलते हैं। न कि वृद्धि की अर्थ व्यवस्था की ओर। यह उस उत्पादन- उपभोग की प्रधानता वाली शैली के विपरीत है, जिसमें  असमानता और गरीबी दोनों ही मजबूती के साथ आज भी  टिके हुए हैं।
      सादगी और अहिंसा के विचार परस्पर जुड़े हुए हैं। पश्चिमी तार्किक निगमन से भिन्न गांधी जी प्रज्ञा और सत्य के साक्षात अनुभव वाली आध्यात्मिक परम्परा से जुड़े हुए थे। अहिंसा का विचार पीड़ा न पहुँचाने के भाव से जुड़ा हुआ  है। इसमें नकारात्मक भाव के बदले में न केवल  हिंसा का त्याग निहित है बल्कि  एक सकारात्मक स्थिति है जिसमें सभी प्राणियों के साथ तादात्म्य स्थापित करना प्रमुख है। ऐसी स्थिति में आदमी प्यार के भाव से कार्य करता है। अपने और दूसरे दोनों के हित-साधन के भाव से कार्य करता है। साथ ही हर संभव पीड़ा के प्रति सतर्कता भी रहती है। जैन मुनि स्वच्छता  का विशेष ध्यान रखते हैं और मुंह पर मास्क लगाते हैं। हर कार्य प्रीतिबर्धक हो जाता है। ऐसे ही सादगी विश्व के प्रति प्यार का रूप ले लेती  है। जब निजी सुख को त्यागने की बात आती है। प्लास्टिक के झोले हम उपयोग में लाते हैं, यदि सारी दुनिया के साथ तादात्म्य हो जाय तो धरती की चिंता होगी और उपभोक्ता  का भाव बदल जायगा. गांधी जी अपने को अैतवादी कहते हैं और सभी के बीच एक  अनिवार्य एका देखते हैं। उनका विश्वास था की एक आदमी की आध्यात्मिकता से सकल विश्व लाभ पाता है। 
       आधुनिक उत्पादन-उपभोग की प्रणाली सबके साथ तादात्म्य की बात नहीं करती है। इसका परिणाम गरीबी और असमानता ही नहीं पर्यावरण का दोहन भी है। प्रजातियाँ तक लुप्त हो रही हैं। संपत्ति का अधिकार आज की वैश्विक अर्थ व्यवस्था में अति उत्पादन और अति उप भोग को जन्म दे रहे हैं। इसका परिणाम पारिस्थितिक असंतुलन और वैश्विक असमानता है। वैश्विक संस्थाएं बड़े गरीब देशों में गरीबी और पीड़ा को जन्म देती  हैं। स्वास्थ्य और स्वच्छता की चुनौतियां, धर्म, भाषा कला विज्ञान आदि का क्षेत्र जो संस्कृति में आता है। वह भी कारण है. पर इन आलोचनाओंमें सब के साथ तादात्मीकरण का भाव नहीं लाते हैं। भौतिक दृष्टि से परे एक सर्वातिक्रामी नजरिये की जरूरत है ताकि धरती की सीमा में ही उत्पादन और उपभोग हो। एक बिलियन भूखे और कुपोषित हैं जो दूसरे हैं। गांधी का नुस्खा विश्व की जरूरतों का समता के आधार पर और बिना किसी टकराव के समाधान कर सकते हैं। 
      आज की कानूनी व्यवस्था में इस बात पर बहुत कम विचार हुआ है कि वे वैश्विक दुःख और गैर टिकाऊ के पक्ष में कैसे काम करती हैं। उत्पादन-उपभोग के प्रारूप के अंतर्गत। संपत्ति का विचार और उसका बहुराष्ट्रीय स्वरूप की समीक्षा नहीं होती है। ऐसी  सारी कम्पिनियाँ अपने उत्पादन के क्रम में हानि पहुंचाती हैं, संपत्ति के ऐसे उपयोग को देखें तो गांधी जी की आधुनिक सभ्यता की आलोचना याद आ जाती है। गुजराती में सभ्यता सुधारु है। गांधी ने बड़ी प्रखरता से कहा था कि सभ्यता तभी टिकाऊ और शान्ति ला सकेगी यदि संसाधनों और व्यक्तियों के साथ सम्बंधों के बारे में वह पश्चिमी  विचारों को बदल नहीं देती है। आज की उपभोग की आदतें कहाँ ले जा रही हैं यह विचार का प्रश्न है। गांधी जी से किसी पत्रकार ने जीवन के रहस्य को तीन शब्दों में व्यक्त करने को कहा तो ईशावास्योपनिषद को उद्धरित करते हुए कहा कि त्याग करो और आनंद करो। कुछ न चाहकर वास्तविक स्वतंत्रता मिलाती है। अनंत उपभोग की पक्षधर संस्कृति किसी स्थायी सुख की उपलब्धि नहीं करा सकती। इस तरह की व्यवस्था में भौतिकता प्रधान समाज दूसरों पर दब दबा बनाते हैं और अस्थाई और क्षण-भंगुर संतुष्टि ही देते हैं। एक घोर अंतर्विरोध है आनंद उपभोग में है और उपभोग अनंत है।
     आज अध्ययन यह बता रहे हैं की सुख पर भौतिक समृद्धि का रिश्ता डिमिनिशिंग रेतुर्न का है। एक विन्दु पर धन की वृद्धि अपना महत्त्व खो देता है। मूल आवश्यकताओं की पूर्ति होने के बाद समृद्धि का असर उतना नहीं होता है। डेनियल कॉमन के हिसाब से 75000 हजार डालर तक तो वार्षिक आय और खुशहाली बढ़ाते हैं, पर उसके ऊपर समाप्ति और सुख के बीच कोई रिश्ता नहीं रह जाता। अत्यधिक भौतिक समृद्धि और सुख के बीच के कमजोर रिश्ते की बात वैज्ञानिक शोध से पुष्ट हो रही है। एक हेदानिक त्रदेमिल है। अनुकूलन के बाद और भौतिक सुख चाहते हैं। गरीबी से मुक्त के बाद तोड़ा सुख पर्याप्त है। इसी तरह अत्यधिक उपभोग अस्थाई है और लोगों को हेदोनिक त्रद्मिल में बझाए रखता है विश्व के अधिकाधिक संसाधन के उपभोग की चाहत रहती है। 
       भौतिक इच्छाओं से स्थायी सुख पाया जा सकता है। शाश्वत उपभोग की इच्छा के वश में पद कर वस्तुतः सतत असंतुष्टि को खरीदते हैं। नाखुशी और उपभोग के बीच का रिश्ता उन उद्योगों में देखा जा सकता है जो आत्म-संवर्धन से जुड़ी हैं। उपभोग की  संस्कृति में पले बढे़ लोग तत्काल संतुष्टि की सोचते हैं। यह सतत बाजारीकरण का परिणाम है। बीसवीं सदी के आरम्भ में विज्ञापन का दौर शुरू हुआ था। उसने उपभोक्ताओं में असुरक्षा का भाव पैदा किया और उसकी तरकीबें भी ईजाद कीं। जनता को जितना ही ज्यादा असंतुष्ट रखा जाय यानी खरीददार असंतुष्ट रहे तो रोजगार में ज्यादा नफा होगा। अतरू उपभोक्ता का दिमाग काबू में कर उत्पादों के लिए इच्छा पैदा करना स्वयं में एक धंधा बन गया।  यह मान कर कि सामाजिक संस्थाएं व्यक्ति की रक्षा करेंगी कानून के दायरे में किसी भी तरह व्यापार करने की छूट है। अवांछित उपभोग पर अंकुश लगाने वाली संस्थाओं के अभाव में उपभोक्ता पर उन संदेशों की भरमार होती गई कि खरीदो नाखुश रहकर उपभोग के लिए लालायित बने रहें और उपभोग करते रहें, न कि दीर्घकाल की संतुष्टि करें। अंतहीन उपभोग सुखी नहीं बनाता। 
      गांधी जी इसे आधुनिक जीवन की कमी मानते थे। गाँव की अपेक्षा शहर की तेज रफ्तार जिन्दगी में बिना संतुष्टि की आदमी भागते-दौड़ते रहते हैं, भौतिकता की ललक को लक्ष्य बना कर प्रगति के मार्ग पर नीचे गिरते हैं। सड़कों पर कारें धक्कामुक्की भौतिक प्रतीक हो रहे हैं, पर इनसे खुशी बहुत कम मिलाती है। ऐसे व्याकुल आधुनिक भारतीय के लिए यम का देसी विचार आत्म नियंत्रण और चरित्र निर्माण की और ध्यान आकृष्ट करता है। इन नैतिक अभ्यासों का पालन आतंरिक शान्ति और सामाजिक समरसता मिलती है। गांधी जी दीर्घजीवी खुशी आवश्यक जरूरर्तों (नीड) से जुड़ी होती है, न की चाहों या इच्छाओं (वांट) से। जीने के लिए अहिंसा जरूरी है। अहिंसा और अपरिग्रह सीमाएं बनाते हैं। अभौतिक लक्ष्यों पर भी विचार करना होगा। आनंद का स्रोत तो अन्दर है। बड़े आकार की तेज रफ्तार कार, बड़ा घर अधिक फैशन की वेश भूषा से उपजाने वाला सुख घटती बढ़ती रहेगी। अतृप्त ही रहने वाली कामनाओं की पूर्ति करना इनाके अस्थाई स्वभाव को न समझने के कारण है। उच्च स्तर का सोचना उच्च विचार  जटिल भौतिक जीवन के साथ संभव नहीं है. मूल मानवीय जरूरतें सरल थीं। यदि हम यह मानें की हमारा भौतिक अस्तित्व परिवर्तनशील है और हम साधनों को सीमित अवधि के लिए ही रख सकते हैं तो उस अप्रिसम्पत्ति को जाने देंगे। तब हेदोनिक ट्रेडमिल की बढ़ती इच्छाओं की समस्या खत्म हो जायगी।
       अर्थाशास्त्रीगण भौतिक उपलब्धि को ही अंतिम लक्ष्य माना कर चलते हैं। वे उपभोग को मात्रा में देखते हैं। खर्च कैसे करते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि हर तरह का खर्च एक-सा ही होता है। महात्मा गांधी टिकाऊ उपभोग के लक्ष्य के लिए गुणात्मक परिवर्तन चाहते हैं। अतः जीवन में सर्वप्रथम आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था होती है फिर गृहस्थी जमाने की। उसके बाद मानवता के लिए सोचना चाहिए। ऐसा करते हुए संसाधन का दबाब कम होगा और वैश्विक सुख और शान्ति आ सकेगी। अतः अपरिग्रह आवश्यक है और खुशी एक मानसिक दशा है। मनुष्य खुश या नाखुश गरीबी के कारण ही नहीं होता। धनी लोग भी नाखुश होते हैं। खुशी की अर्थव्यवस्था से समाज में शान्ति और निश्चिंतता बढ़ती है। गांधी जी ने नैतिकता को आर्थिक प्रगति से जोड़ा। स्वदेशी के विचार  के साथ उन्होंने यह भी माना था कि हम अंश के रूप में ब्रह्माण्ड के हिस्से हैं, और हमें उससे जुड़ा दायित्व निभाना चाहिए।

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