डॉ. जयप्रकाश तिवारी

 आषाढ़ का एक दिन: संदर्भ पुराने, अर्थ नए

 

आया आषाढ़ बढ़ गया ताप

उठी हवाएँ गगन मे तेज तेज

मन मे हलचल उससे भी तेज

घिर आई घटाएँ चहुं ओर से

स्मृति पटल छाये घनघोर मेघ,

मन कितना चंचल मनचला है

जा पहुंचा अतीत की उस घड़ी में

जहां भीगे थे हम दोनों आषाढ़ में

बादलों की जलधारा में ही नहीं

भावों की वर्षा, शब्द फुहारों में।

बसी थी कितनी ही मोहक कल्पनाएं

संवेदनाओं की बलखाती लहरों में ॥

 

दशकों बाद...

 

इन स्मृतियों ने इतनी हलचल मचाई

अब लौट आया अतीत से वर्तमान में 

रिमझिम फुहारें बड़ी बूंदों मे बदल गयी

बरसात ने पकड़ लिया जोर और मैं

भीग गया पूरा ही आषाढ़ की बरसात में,

ठीक उसी तरह जिस तरह भीगे थे तब

हो गया था तन-मन गीला हमारा

तब उस समय भी, और आज अब भी।

हाथ में मेरे वर्षा से बचाव का अस्त्र

यही कलम तब भी थी... अब भी है

लेकिन कलम वर्षा से बचाती कहाँ है

यह तो और भिगो देती है, अंदर तक॥

सहसा बिजली जोर से कौंधी-कड़की

इस चमक मे मुझे साया सी दिखी

वो साया... तुम थी, भला भूलता कैसे ?

दौड़कर तुझे पकड़ लिया, तू भाग न पाई

कृशकाय-बदन, धँसी-आँखें, पिचके कपोल

कुछ कहो या न कहो, खोल दी सारी पोल

एक अलगाव ने कितना बदल दिया तुम्हें

पूछने पर कुछ बताती नहीं, हो गयी हो मौन

ऊपर से दिखता नहीं, कोई घाव-चोट-मरहम

हैरान हूँ, विस्मित भी, कैसी हो गयी हो तुम

अब न तुझे वर्षा भिगो पाती, न ही कलम

यह कलम तो मदहोश थी तुम्हें लिखने में

कब सोचा इसने, देखने की तुम्हें वास्तव में ?

 

तुम्हें ‘मल्लिका’ का किरदार बहुत पसंद था

और समय ने सचमुच मल्लिका बना दिया

मैं मातृगुप्त बनकर राज-सुख भोगता रहा

मेघदूत’ और ‘ऋतुसंहार’... ही लिखता रहा

कभी सुना था- इतिहास अपने को दुहराता है

सचमुच इतिहास अपने को दुहराता है...

ऐतिहासिक मातृगुप्त निभा नहीं पाया था

न राज-धर्म, न प्रिय-धर्म, न प्रेयसि-धर्म

लेकिन यह मातृगुप्त विधिवत निभाएगा

राज-धर्म भी, प्रिय-धर्म भी, प्रेयसि-धर्म भी

आज इतिहास अब ...एकदम बदल जाएगा  

जब ऐश्वर्य की सिंदूरी रेखा माँग सजाएगा

और कभी अट्टहास करने वाला यही समय

अब भांति-भांति के मंगल गीत गाएगा॥

 & dr.jptiwari@gmail.com


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