अनिल कुमार पाण्डेय

सुंदरी 

‘‘हमार बिटिया के ऊपर हवइ। जेसी मर्जी बोलइ, जेकरे साथे रहइ के मन करे रहइद्य हम कभउ न रोकब। जेका नीति सिखावे के होइ उ आपन नियति बदलइद्य जमाना बदलि गवा हवइ। लडकन जब घूमथेन तब त नाइ केहू रोकै बिना आवत हइ? हम अपने लडकिन के कभउ न रोकै आउब। केहू के अच्छा लगै चाहे बुरा...हमरे लुवाठे से....’’ गुस्से में तमतमाते हुए सुंदरी ने कहा। सामने बैठे तमाम लोग बस उसे सुने जा रहे थे। बोलने की हिम्मत किसी की न पड़ी। 
आज कई दिन से वह लगातार अपनी लड़कियों के विषय में सुनती आई थीद्य कोई बदचलन कहता था तो कोई आवारा। चोरी-छिपे कहने वालों में कई लोग आज उसके सामने बैठे थे। जो कोई कुछ भी कहता था, देर-सबेर पता तो चल जाता था उसे, लेकिन प्रत्यक्ष किसी की हिम्मत नहीं होती थी कुछ कहने की। जिस नंगे यथार्थ का सामना सुंदरी ने अपने जीवन में किया, उसके सामने किसी नैतिकता में इतनी क्षमता कहाँ होती कि वह आँख दिखा सके।
लोगों की दृष्टि में और खुद सुंदरी की नजर में भी उसका जीवन अराजक ही रहा था शुरू से। सामाजिक मर्यादा जैसे शब्द उसे परेशान करते थे। वह नहीं मानती थी कोई बंदिश। नैतिकता के नाम पर जो त्यौरियां चढ़ाती कि सामने वाले कई बार मुश्किल में पड़ जाते। मुक्त ख्याल की औरत थी। पति के रहते हुए भी एक-दो प्रेमियों से सम्पर्क बनाए रखना उसका अपना स्वभाव था। मायके में तो यह आम बात थी, इधर ससुराल में भी यही स्थिति बन गयी थी उसकी।
युवाओं से लेकर बुजुर्गों तक की निगाह रहती थी उस पर। देखने में बला की खूबसूरत थी। लोग तो कहते हैं कि जवानी का जोश इश्क में भीगने के बाद स्थायित्व पाता है, लेकिन सुंदरी के सन्दर्भ में ऐसा नहीं था। इसलिए भी क्योंकि वियोग-अवस्था को कभी झेला नहीं उसने। फिल्मों में दिखाए जा रहे प्रेम-मिलन के दृश्य उसे रुचिकर लगते, लेकिन वियोग-दृश्य उसे बनावटी लगते थे। प्रेम में उसने हर समय बसंत ही देखा, पतझड़ कभी आसपास भी नहीं फटका।
आज जब सब पर अपना क्रोध निकाल रही थी तो ऐसे ही नहीं डांट रही थी वह। अनुभव यदि स्वयं को परिपक्व बनाता है तो परिवेश में इज्जत भी देता है। यही इज्जत सबको सुनने के लिए विवश कर रही थी। नीति, नियति और चरित्र से कहीं अधिक जरूरी होता है संघर्ष। समाज में रहते चरित्र का कितना भी गिरा कोई क्यों न हो, लेकिन यदि अनुभव के माने में हर घाट का भुक्तभोगी हो तो उसकी इज्जत बुरे तो करते ही हैं, भले भी करने के लिए विवश हो जाते हैं। एक तो आसपास के लोगों के विषय में, कौन किस क्रिया में माहिर है या लिप्त है, अच्छी जानकारी थी सुंदरी को। दूसरे, मुक्त-जीवन को वह अपना अधिकार मानकर चलती थी। क्या पहनना है? कैसे रहना है? किसके साथ रहना है और किन शर्तों पर रहना है? इन विषयों पर कभी किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया था सुंदरी ने।
 
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प्रेम मुक्त होता है तो होता है, सुंदरी का यही मानना था। न उम्र से कोई मतलब न जाति की कोई चिंता। एकदम दिल का मामला। किसी पर आ गया तो आ गया। आता भी एकदम निराले अंदाज में है। सुंदरी की नजर में प्रेम में होना मायने रखता है, कोई क्या है इससे मतलब नहीं होता। ‘है’ यही सबसे बड़ी बात होती है।
इधर सुंदरी ने अपने ही परिवेश के बीस वर्षीय लड़के को मौके-बेमौके ताकना-झांकना शुरू कर दिया है। सुंदर नाम का युवक है। उसके घर से कोई दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर रहता है। है तो स्वजातीय ही, न भी होता तो कोई दिक्कत न थी, क्योंकि मामला दिल का है। उस दिल का, जो बुजुर्ग होने के बाद भी युवा बने रहना उचित मानता है। लड़का वैसे तो कुछ नहीं करता है लेकिन गाँव में होने वाले कबड्डी का जुनूनी खिलाड़ी है। वह जिस समय मैदान में उतरता है, अच्छे-अच्छों का ठिकाना लगना तय माना जाता है। देखने और निहारने के लिए दूर जाने की जरूरत भी नहीं होती है। सुंदरी के देवर की दांत-काटी दोस्ती है उसके साथ। घर का आवारा जरूर है, लेकिन दिल का बहुत साफ है।
सुंदरी के प्रेम में होने का एहसास सुंदर को कई अवसरों पर हुआ, लेकिन समझते हुए भी न समझने का खेल खेलता रहा। उसने कहीं सुन रखा था कि प्रेम में पड़ी स्त्री को जितना अधिक उपेक्षित करोगे, उसका आकर्षण भावी प्रेमी पर उतना ही मजबूत होगा। वह सुंदरी से जैसे और जितना ओझल होकर रहने का प्रयास करता, सुंदरी उतना ही सुंदर के सामने होने कि कोशिश करती। यह खेल चलता रहा। कई मौके आए जब सुंदरी उसे कह सकती थी प्रेम में होने की बात, लेकिन सुंदर की उदासीनता उसे बदनामी को लेकर डराती थी। कई ऐसे भी मौके आए जब सुंदर सुंदरी को अपनाने का अभिनय कर सकता था, लेकिन भविष्य के प्रेम की मजबूती के प्रति आशंकित सुंदर ऐसा करने से रोकता रहा स्वयं को। 
सुंदरी अपनी सारी कोशिशों में असफल रही तो सुंदर सफल। अब सुंदर का अगला गेम प्लान था सुंदरी को तड़पाते हुए उसके प्रेम में होना। इस प्लान को सफल बनाने के लिए कुछ दिन आना भी छोड़ दिया सुंदर ने उसके घर के आसपास। सुंदरी हताश और परेशान होकर अपने पड़ोस की ही दो लड़कियों, गुजरी और सुमित्रा, से संपर्क साधना शुरू किया। यह मामला इक्कीसवीं सदी के पहले दशक का था तो चिट्ठी-पत्री के दिन अभी गए नहीं थे। पूरे प्रचालन में थे। गुजरी को चिट्ठी लिखना आता था। सुमित्रा के पास प्रेम का अपना अनुभव था। 
एक दिन गुजरी बैठी कुछ विचार कर रही थी, तभी सुंदरी का प्रवेश होता है उसके घर। 
‘‘आवा दी! आजकल एकदम व्यस्त हो गई बाटू, लागत है?’’ गुजरी ने प्रश्न भरी निगाहों से देखते हुए बोला तो सुंदरी एक क्षण के लिए सोच में पड़ गयी और फिर स्थिति स्पष्ट करते हुए बोली, ‘‘नाहीं बहिनी, कहाँ व्यस्त होबे हम? तोहर भैया बाहर गवा आहेन ता तनी अनमन से जियरा भा बा।’’ 
‘‘अरे ता अनमन काहें के? बाकी ता बटबे करेन?’’ गुजरी ने छेड़ते हुए पूछा। 
‘‘बाकी सब उफ्फरि परे गयें। आजकल कवनों नहीं हैं गुजरी।’’ धीरे-धीरे बैठते हुए सुंदरी ने अपने मन में उठने वाले भावों को रखते हुए कहा। 
कुछ देर चर्चा-परिचर्चा चलती रही गाँव-घर के खबरों को लेकर। 
सुंदरी ने आसपास देखा, कोई नहीं था तो अपने मन की बात कहना उचित समझा गुजरी से ‘‘गुजरी! तोका पता बा, सुंदर के चाहइ लगी हयी। पर उ मुँहझौंसा कब्जे में नहीं आवत। कुछ करो गुजरी हमरे खातिर! हमका उ बहुत अच्छा लागत हइ।’’ 
‘‘अरे त यह्मा करे के का बा? एक पत्र लिखि देहे से तो ऊ चक्कर काटे लगिहैं बचऊ। इजाजत द्या दी। अबहीं शुरू करी?’’ बड़े आत्मविश्वास से कहा गुजरी ने तो सुंदरी भी स्वयं को रोक न सकी। 
प्रेम-पत्र तैयार होने लगा। कुल दो घंटे लग गए पूरे चिट्ठी तैयार होने में। अब समस्या आई कि सुंदर के पास चिट्ठी लेकर कौन जाए? दोनों ने तय किया कि इसके लिए सुमित्रा को चुना जाए। सुमित्रा पहले तो ना-नुकुर करती रही लेकिन बात सुंदरी की थी, तो टाल न सकी। ले देकर पत्र पहुंचाया गया सुंदर के पास। सुंदर ने पहले तो पत्र को गंभीरता से लिया नहीं, लेकिन जब सुमित्रा चली गयी तो वह पत्र में बहुत देर तक खोया रहा। इतना कि उसे यह भी नहीं पता चला कि वह कहाँ पड़ा हुआ है?    
 
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पहले प्रेम का अंकुरण जब हृदय में होता है तो बहुत देर तक हलचल मचाए रखता है हृदय में। पैर जमीन पर नहीं रहते यह तो सबको पता है लेकिन आसमान भी उस समय छोटा हो जाता है, यह वही जानता है जो प्रेम में होता है। सुंदर की स्थिति इस समय यही थी। दिशा-मैदान जाते समय स्वप्नों में खोया सुंदर खाना खाते समय भी सुंदरी के चेहरे को अपने मस्तिष्क में उठने वाले उफान से अलग न कर सका। रात सोने के समय तकिया भींचे स्वप्नों में खोया तो पता नहीं कब खुली आँखों देखते स्वप्न से साक्षात स्वप्न-दर्शन तक पहुँच गया।
सूरज की किरणें प्रभावी होकर खिड़की से जब सुंदर के चेहरों पर पड़ीं तब उसकी नींद खुली। उठने के बाद काफी देर तक सोचता रहा कि ऐसा क्या था जिसके लिए कल की रात हर रातों से अलग और हसीन हो गयी थी? यह सोच ही रहा था कि सामने बिस्तर पर उसे वह प्रेम-पत्र दिखाई दिया। पहले तो उसे लेकर चूमा और फिर कहीं छुपाकर रखना उचित समझा। गंवई परिवेश में प्रेम में होना तो सरल है लेकिन वर्तमान रहते हुए उमंग में रहना किसी जोखिम से कम नहीं है, सुंदर को यह भी पता था। घर का कोई सदस्य देख ले तो लेनी-देनी पड़ जाए। 
कल रात की तरह आज के दिन को भी सुंदर के लिए और हसीन होना था। प्रेम में डूबा सुंदर अब सुंदरी को करीब से देखना चाहता था। जागते आँखों वाले स्वप्न में खोया सुंदर घर से निकल पड़ाद्य दोपहर का समय थाद्य धूप अधिक थीद्य चकाचौंध भरे वातावरण में सुंदरी के चेहरे की आकृति धुंधली-धुंधली-सी प्रतीत हो रही थीं उसे। प्रेम में होने से पहले जिस चेहरे में झुर्रियां और लक्षण के दाग थे, अब उसी चेहरे में करिश्मा और शिल्पा शेट्टी के रूप नजर आ रहे थे। अपनत्व का भाव जहाँ होता है वहां हर चीज सुंदर हो जाती है यह अब सुंदर को और गहरे में महसूस होने लगा था।
इधर सुंदर घर से निकल चुका था सुंदरी से मिलने के लिए और उधर सुंदरी प्रेम-पत्र भेजने के अपराधबोध में पश्चाताप कर रही थी। यह एहसास सुंदरी को था कि प्रेम-प्रस्ताव उसका असफल नहीं जाएगा, लेकिन डर भी था कि कहीं सुंदर यह बात बस्ती में न बिखेर दे? रात से लेकर दोपहर तक कम से कम तीन-चार बार वह गुजरी और सुमित्रा से मिली। बार-बार उसने प्रेम-पत्र का जिक्र किया। सुमित्रा से हर बार वह यही जानने की कोशिश करती रही कि ‘‘सुंदर के मूड कइसन रहा सुमित्रा? कहीं ऊ गुस्सा जइसन त नाइ दिखत रहा?’’ सुंदरी का इस तरह परेशान होना स्वाभाविक भी था। ऐसे समय यदि अपने किसी प्रिय की सांत्वना मिल जाए तो व्याकुलता में संजीवनी का कार्य करता है। सुमित्रा उसे ढांढस बँधाना उचित समझती और कहती भी, ‘‘चिंता न करा दी! तोहें तो पता हवइ पहले से कि प्रेम में इतना त परेशानी झेले के पड़े। हमार जवाब मिलै में त अक्सर महीना लग जात है।’’ 
‘‘हाँ ऊ त है सुमित्रा! पर तोहरे प्रेम में अउर हमरे प्रेम में बड़ा अंतर बाद्य तोहार प्रेम लड़िकाई के प्रेम हवे, अउर हमार प्रेम आधी बीते के प्रेम हवे। तोहार जवाब मिले के पूरी आशा रहे हमार जवाब डूबे की पूरी सम्भावना। बस इही के चिंता बा बाकी त जवन होए देखी जाए।’’ आशंका और भय के बीच गहरी सांस लेते हुए सुंदरी ने जवाब दिया सुंदरी को। 
सुमित्रा ने अपनी मूक सहमति देना उचित समझा था उस समय। चिंता, स्वाभाविकता और व्यावहारिकता में उलझा मन घर की तरफ मुड़ता तो चाल में विचलन की स्थिति साफ नजर आती। 
अभी-अभी उधर से गुजरी और सुमित्रा से मिलकर आ ही रही थी सुंदरी कि आसपास सुंदर की हँसी उसे सुनाई दी। हँसी में उन्मुक्तता होने से जो भय था वह लगभग जाता रहा। विवाद में बोझिलपन होता है न कि उन्मुक्तता यही सोचकर सुंदरी अंदर से खिलखिला उठी। यह खिलखिलाना खिलना भी था एकदम कली की तरह। पहली बार इस तरह से कब खिली थी सुंदरी यह तो उसे याद नहीं, लेकिन पहले प्यार की रोमानियत उस पर जरूर छा गयी, ऐसा आभास उसे हो गया।
इधर बात करते हुए बार-बार सुंदर उस तरफ देख रहा था जहाँ से अक्सर सुंदरी उसे देखा करती थी। सुंदरी को अभी तक सामने न पाकर वह विचलित जरूर हुआ लेकिन चेहरे पर विचलन के उस भाव को बिलकुल न आने दिया। उसके दोस्तों में कबड्डी को लेकर कोई योजना चल रही थी। इस योजना में पूरी सहभागिता दिखाते हुए ताकने-झाँकने की रश्म बीच-बीच में वह अदा करता रहा। कई बार न पाने से कुछ परेशान होता हुआ अबकी बार जब उसने देखा तो सामने मुस्कराते हुए सुंदरी अपने साड़ी के आँचल को मरोड़ते हुए निहार रही थी सुंदर को।
सुंदर की निगाहें एक बार गईं सुंदरी की तरफ वहीं रुकी रहीं। दोनों ने एक दूसरे को एकदम शांत होकर देखा, परखा और फिर आँखें दूसरी तरफ मोड़ते हुए मुस्कराने का प्रदर्शन करने लगे। ये प्रदर्शन इतना प्यारा और आत्मीय था कि दोनों एक दूसरे पर मुग्ध हो गए तो बहुत देर तक हुए रहे। देखने और मुस्कराने का यह क्रम उस दिन काफी देर तक चलता रहा, लेकिन मिलन का सौभाग्य न प्राप्त हुआ। इधर सुंदर दोस्तों से घिरा था तो सुंदरी उधर अपने घर के कामों में। सुंदरी गेहूँ में कंकर निकालने के लिए अंदर गयी तो बहुत देर तक बाहर न आई। फिर, सांझ होने से मिलन की चाह लिए सुंदर भी अपने घर की तरफ मुड़ गया। 
 
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जब तक प्रेम की प्रक्रिया में होता है व्यक्ति, सार्वजनिक होता है, बाद उसके एकांत ढूँढता है। वह हो, साथी हो और हो प्रेम, इसके अतिरिक्त किसी तीसरे की उपस्थिति से बचता है वह। तन्हाई तक को नहीं आने देता आसपास। जो सुंदर कभी आते ही घर के अन्य सदस्यों से मिलना उचित समझता था वही सुंदर इधर सीधे सुंदरी की तलाश में रहने लगा। हर समय ऐसे एकांत की खोज करता जहाँ सुंदरी मात्र की उपस्थिति हो। सुंदरी के आसपास रहते हुए तो वह भूल ही जाता था सबके बीच में होने की स्थिति को, इधर सुंदरी से दूर रहने की प्रक्रिया में भी सुंदरी के आसपास रहते हुए पाने लगा वह। घर वाले हैरान थे कि खेलता-खाता सुंदर अचानक गुमसुम कैसे रहने लगा? बहकी-बहकी बातें करना और एकांत न होने की स्थिति में खीझ उठना सुंदर के लिए सामान्य-व्यवहार होता जा रहा था। सुंदर ने कई बार अपनी यथास्थिति का कारण जानना चाहा, लेकिन असफल रहा।
यही स्थिति इधर सुंदरी की थी। प्रेम तो कई लोगों से हुआ उसे और कई बार हुआ, लेकिन ऐसी दीवानगी कभी न जगी उसके मन में। जब भी अपने बच्चों को नहलाने-धुलाने से फुर्सत मिलती वह सोच में पड़ जाती। कई बार जिस समय वह मिलन-स्वप्न में होती सास और पति की तरफ से कोई कार्य कह दिया जाता, तो वह गुस्सा हो जाती। कल्पना सुख से बड़ा कोई और सुख कहाँ हो सकता है... यह अब सुंदरी को लगने लगा था। कई बार करना कुछ होता था कर कुछ जाती थी। कहा कुछ जाता था सुन कुछ लेती थी। प्रेम में आने के बाद व्यक्ति इतना विक्षिप्त क्यों रहने लगता है? क्यों सब कुछ भूलकर मात्र प्रेमी के क्रिया-कलाप पर रीझने लगता है दिल? अपना बेगाना और बेगाना अपना बन हृदय के तार झंकृत करता रहता है, ऐसा क्यों होता है आखिर? ऐसे बहुत-सारे प्रश्न पूरी मासूमियत लिए सुंदरी के दिमाग में चल रहे थे।   
प्रेम में दोनों दो धारा होते हुए भी एक थे। एक-सी स्थिति में बहना और एक स्थिति में स्थायित्व पाना, दोनों के स्वभाव में शामिल होने लगा था। इधर बहना तो सीख लिया था दोनों ने लेकिन कोई ऐसा स्थल अभी तक चयनित न किया जा सका था जहाँ दोनों कुछ देर बैठकर एक-दूसरे को निहार सकें। नयन-सुख में डूबे प्रेमी-मन को अब मिलन-सुख की जरूरत महसूस हो रही थी। हालाँकि दोनों ने अपनी तरह से एक-दूसरे को उत्तेजित और विचलित करने की कोशिश की, लेकिन इस कोशिश में अब दोनों को ही अपनी हानि होती नजर आई। सुंदर सुमित्रा की सहायता लेना चाहता था, लेकिन सुमित्रा स्वयं सुंदर की चाह में दीवानी बनी घूम रही थी। जोखिम उठाना ठीक नहीं था इस समय। सुंदरी ने भी कई बार सोचा कि मिलन के लिए गुजरी और सुमित्रा का इस्तेमाल कर ले, लेकिन ऐसा करने की हिम्मत उसकी भी नहीं पड़ी। किसी के प्रेम में जब तक न हों तब तक उसे रिझाने के लिए किसी की भी सिफारिश चल जाती है। प्रेम में होने के बाद खोने का डर बना रहता है और यही डर किसी तीसरे के हस्तक्षेप से रोकता है। यही स्थिति इस समय सुंदर और सुंदरी की थी।
संकोच और मिलन की स्वाभाविक स्थिति में ले-देकर गर्मी का महीना जाने लगा। शरद ऋतु का आगमन हो ही रहा था कि दोनों की नजदीकियां बढ़ने लगीं। यही अवसर होता है जब गाँव में छोटे-छोटे मेले लगने शुरू होते हैं। दोनों ने विचार बना लिया था कि इस मेले का भरपूर फायदा उठाया जाएगा। कई दिनों के बाद सुंदरी घर में अकेली थी। मेले में जाने के उद्देश्य से सुंदर अपने दोस्तों को साथ लेकर जाने आया तो कोई नहीं था घर पर। सुंदरी का हृदय सुंदर को देखते ही धड़कने लगा। पहली बार सुंदर सुंदरी के इतने नजदीक हुआ था। पहला ही अवसर था जब वह किसी स्त्री-शरीर को इतने नजदीक से महसूस कर पाया था। दोनों की साँसें तेज होने लगीं तो पैर डगमगाने लगे। 
सुंदरी एकदम करीब आते हुए बोली सुंदर से, ‘‘कइसन हो जानू? प्रेम-पत्र दिहे के बाद ता हमार हालत बिगड़त चला गवा और तूँ... इतना निर्दयी कि कभौं मिलबौ न उचित समझ्या?’’
सुंदर चुप रहा। एकटक देखता रहा सुंदरी को। क्या बोले यह उसकी समझ के बाहर था। सुंदर कुछ बोलने की स्थिति में हो ही रहा था कि उसके कंधे पर जोर डालते हुए सुंदरी ने कहा, ‘‘जवान बाट्या, सुंदर बाट्या, त ई संकोच कइसन? दूध पियत बच्चा त हया नाइ कि सब तोहें बताई? अब तक शादी भा होते ता...’’
इसके आगे कुछ बोलती सुंदरी, सुंदर से बोले बिना रहे न गया, ‘‘ता का होइ जात? तोहरे याद में तीन महीना से बुरा हाल होत जात बा। कुछ अच्छा नाइ लागत जब तक तोहका देखि न लेई।’’
‘‘प्रेम में ऐसेइ होत ह सुंदर...हमसे पूछा...हमार का हाल बा हमहिंन जान सकित हा।’’ सुंदरी लंबी आहें भरते हुए सुंदर को एकटक निहारते हुए बोली।
‘‘तोहार हाल का होए...दूसरे के बदहाल कइके खुद ऐश करत       बाटू....हमरे ठिन कुँवारी होतू ता पता चलत।’’ प्रश्न भरी नजरों से प्रतिउत्तर में सुंदर बोला ही था कि सुंदरी का चेहरा लटक गया।
एकदम उदास होते हुए उसने जब कहा कि ‘‘इहै त दुःख बा सुंदर कि हम तोहरी कि नाइ नाइं बाटी। चार-चार लड़िकन के पाले-पोसे में जवानी कहाँ गायब होई गई आज तक नहीं पता चला। ऊपर से नशेड़ी पति, मुँह झौंसा प्यार कइसन होत ह अबे तक ओके नाइं पता चल सका। हमरी कि नाइं होत्या त पता चलि जात....’’
सुंदर से सुंदरी की ये मायूसी सही न गयी और वह एकदम विक्षिप्त होते हुए बोला, ‘‘नाहीं सुंदरी, तूँ अबौ जवान हऊ। के कहत ह कि तू बुढाई गई बाटू? दिल अउ मन जवान होई के चाही जवन तोहरे में अच्छे से बा।’’ संकेतों में देखते हुए जब सुंदर ने यह बात सुंदरी से कही तो सुंदरी स्वयं में सिमटते हुए लिपट गयी सुंदर से।
सुंदरी का ऐसे लिपटना सुंदर को असहज जरूर कर गया, लेकिन इसका तनिक भी बुरा उसने न माना। जिस शरीर के आकर्षण ने दोनों को मतवाला बना विक्षिप्त अवस्था में लाकर खड़ा कर दिया था, आज वही शरीर गौण हो गया और दोनों एक-दूसरे में मिलन-सुख से रोमांचित हो लिए। काफी देर तक दोनों ने एक दूसरे को स्पर्श करते, मुस्कराते, एक-दूसरे के साथ बिताया, बाद उसके दोनों के घर से बराबर की दूरी पर मौजूद एक छोटे-से तालाब की लताओं की ओट में मिलने का वायदा करते हुए एक-दूसरे से विदा होने का मन बनाया। दिन, समय और जिम्मेदारियाँ निर्धारित की गयीं। इन दोनों की वर्तमान स्थिति ऐसी थी जैसे हजारों वर्षों से जुदा हृदय मिला था, जैसे हजारों वर्ष के लिए फिर जुदा हो रहा था।        
 
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एक तरफ रोमानियत का ज्वार था तो दूसरी तरफ स्थायित्व की लहर। सुंदर जहाँ सुंदरी में रोमांस ढूंढ रहा था, सुंदरी वहीं सुंदर में स्थायित्व तलाशने लगी थी। हैसियत और रुतबे को लेकर व्यावहारिक जीवन में दोनों एक-से थे। अंतर बस इतना था दोनों में कि सुंदरी पर जहाँ परिवार की जिम्मेदारी थी, सुंदर वहीं अभी उस जिम्मेदारी में आने की तैयारी कर रहा था। दोनों के स्वप्न अलग थे, राहें अलग थीं और विश्वास भी अलग था। एक था तो एक-दूसरे से मिलने-जुलने की ख्वाहिश का होना।
पहली मुलाकात में वह बहुत कुछ हो गया था, जिसकी एक प्रेमी-प्रेमिका चाह रखते हैं। दूसरी मुलाकात एकदम नजदीक थी। सुंदरी पहले पहुँच चुकी थी। लतापात के झाँखड में घुसते हुए एक बार तो डरी सुंदरी कि कहीं कोई देख न रहा हो, लेकिन बाद में निर्द्वंद होकर बैठ गयी एक जगह। उधर से सुंदर भी भागा चला आया। मिलन की उत्कंठा में डर की गुंजाईश हो तो भय बना रहता है। हर्ष और भय के मिले-जुले प्रभाव में सुंदर का चेहरा तमतमाया हुआ था। सुंदर जब सुंदरी के पास आया तो उस तमतमाए चेहरे में सौंदर्य की झलक साफ दिखाई दे रही थी सुंदरी को। सुंदरी उठने को हुई कि सुंदर ने मना कर दिया और उसकी गोदी में सिर डालकर लेट गया। ममत्त्व के साथ-साथ प्रेम-हृदय पुलकित हो उठा था उसका, क्योंकि ऐसा बहुत दिन बाद हुआ था जब कोई उसकी गोदी में अपना सिर देकर निर्द्वंद्व दिखाई दिया हो। सिर पर हाथ फेरते हुए सुंदरी ने कहा, ‘‘देखा सुंदर! आज सब कुछ कितना सुंदर लगत बा न? का कभौं हम सोचे रहे कि एक दिन हम अउर तूँ एक-दूसरे से एक प्रेमी-प्रेमिका के रूप में मिलब!’’
‘‘नाहीं सुंदरी! कभौं नाइ सोचे रहे। यहिं गोदी में कितना सुकून बा सुंदरी? हमार त मन करत बा कि पूरा जीवन इहीं गोदी में पड़ा रही...’’ आँखों में आँख डालते हुए सुंदर ने जवाब दिया। 
‘‘सुंदर! ए सुंदर! ई गोदिन नाइ यार! सब कुछ तोहरे अहइ। ई पूरा शरीर सुकून के खजाना हवै जान।’’ शर्म और अधिकार के मिले-जुले भाव में बोलते हुए सुंदरी ने सुंदर को आश्वस्त करना चाहा। 
साँझ ढल रही थी। सूर्य धीरे-धीरे ओझल रहा था नजरों से। दोनों के शरीर पर ओंस की बूँदों का प्रभाव स्पष्ट नजर आ रहा था। अब तक वातावरण एकदम शांत हो चुका था। दोनों में हलचल की कमी फिलहाल नहीं थी। दोनों एक-दूसरे के इतने करीब थे कि दूर होने का नाम नहीं ले रहे थे। दोनों को जाना तो था घर, लेकिन एक-दूसरे के आकर्षण में उलझे देखते हुए ऐसा लग रहा था जैसे वही उनका अपना घर हो। 
सुंदर को बाहों में कसते और बालों में अपनी उँगलियों को उलझाते हुए सुंदरी ने कहा, ‘‘सुंदर! ओस पड़े लगी। देखत अह्या कि नाइ?’’ 
‘‘हाँ यार! देखत त बाटी। लेकिन सुंदरी! ई ओस के बूँद पता नाहीं हमका कैसन लगत बाटइ।’’ चिंता भरे स्वर में सुंदर ने कहा तो अपनी बाहों का घेरा ढीला करते हुए सुंदरी बोली, ‘‘कैसन लागत बा?’’
‘‘जइसे ओंस के बूँद न होइके हमार तोहार आँसू के बूँद होई। जितना हम यहिं बूँदन से तरल होत अही लागत बाटइ एक दूसरे के आँसू से भीगत अही।’’ अपनी बात भावुकता में कहते चला गया सुंदर। 
‘‘नाहीं सुंदर! अबहीं त हम एक-दूसरे के भये हन। बहुत जीवन बा अबे। तोहका लेके हमरे मन में बहुत कुछ बा सुंदर! अइसन काहें कहत बाट्या?’’ सुंदरी ने लगभग अधीरता में बोलते हुए प्रश्न भरी निगाहों से पूछा सुंदर से।
सुंदर के पास कोई स्थाई जवाब तो था नहीं कि वह सुंदरी को संतुष्ट कर सकताद्य फिर भी अपनी बात स्पष्ट करने की कोशिश करता हुआ बोला, ‘‘सुंदरी हर प्रेम के इहै हश्र होत हइ। सबसे अच्छा उहै हवेन जे प्रेम में नाइं बाटेन। का पता कल हमार बिछुड़न के दिन आवै, अउर इहै आँसू आधार बनै जिए खातिर.....’’
‘‘नाहीं सुंदर! अइसन कुछ न होए। अच्छा उठा अब चला जाई। ओसे में ज्यादा रहे ठीक नाइं होतै सुंदर। भविष्य के का पता? हम आज यहिं झुरमुट में बैठे बाटी का पता कल कौनों महल में रही?’’ सांत्वना देते हुए सुंदरी ने सुंदर से कहा तो सुंदर आसमान की तरफ ताकते हुए उठने की कोशिश में बोला, ‘‘देखा जाएगा सुंदरी! केकरे भाग्य में का लिखा बा ई त समये बताई, अबहीं हमन के प्रेम-रंग में रंगे रहन दिया जाए। क्यों सुंदरी, है न...’’ सुंदर के मुख से ये बातें सुनकर सुंदरी उससे लिपट गयी तो दोनों बहुत देर तक एक-दूसरे में खोए रहे। यह खोना सुंदरी के लिए जहाँ अतीत से छुटकारा पाने का पूर्वाभास था तो सुंदर के लिए उज्ज्वल भविष्य के लिए एक आशियाना। दोनों के अपने स्वप्न थे तो यथार्थ भी उनके अपने थे, जिनसे अनजान बनने की कोशिश तो थी लेकिन सफल होने के आसार कम थे। शाम के धुंधलके में दोनों ने जब अपने-अपने घर की तरफ कदम बढ़ाया तो यह आभास होते देर नहीं लगा कि आने वाले दिन ऐसा हो कि हम अलग दिशा में न जाकर एक दिशा की तरफ एक साथ बढ़ें!
 
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जहाँ आने से लोग अक्सर डरते हैं वही स्थान किसी के जीवन का अहम् हिस्सा बन जाता है। इधर लगभग सात-आठ महीने से तालाब के लतापात के झुरमुट सुंदर और सुंदरी के रहने के आशियाने बने हुए थे। घर की भीड़ से निकलकर जिस एकांत की तलाश होती दोनों को, वह यहीं आकर पूरी होती। अब तक गाँव के कुछ लोग इस प्रेम-प्रसंग के हिस्सा बन गए थे। गुजरी और सुमित्रा के लिए यह प्रेम नफे और नुकसान के समीकरण पर आधारित एक गेम था तो कईयों के लिए दिल का मामला। मामला इतना बढ़ गया था कि सुंदरी और सुंदर के बीच की तीसरे की उपस्थिति भी हो गयी थी। आज सुंदरी यही खबर लेकर आई थी सुंदर के लिए कि उसकी बगिया में एक पुष्प-कली की परिकल्पना साकार रूप लेने वाली है। जितना सुंदर देर कर रहा था, सुंदरी उतनी ही अधिक रोमांचित और गर्वित महसूस कर रही थी स्वयं को। 
सुंदर अपना एक अलग बाग लगाना चाहता था, जिसके लिए नए वृक्ष की व्यवस्था हो गयी थी। कल उसको देखने वाले आ रहे थे। सुंदर यह खबर आज जल्दी ही सुंदरी को दे देना चाहता था ताकि सुंदर और सुंदरी के बीच के प्रेम-प्रसंग को अब विराम दिया जा सके। जो सुंदरी एक अप्सरा की तरह प्रतीत होती थी सुंदर को, आज वह उम्र-दराज बूढ़ी लग रही थी और जो सुंदर बच्चा लग रहा था सुंदरी को, आज वह प्रौढ़ जिम्मेदार साथी। समय का पहिया जब करवट लेता है तो ऐसे विरोधाभासी वातावरण का सृजन होता है।
सुंदर ने जब तालाब में प्रवेश किया तो उसकी चाल में पहले जैसी तत्परता नहीं थी। सुंदरी पहले से कहीं अधिक व्याकुल होकर मिली सुंदर से। डर तो सुंदरी को भी था कि कहीं सुंदर इस पुष्प-कली को उजाड़ने की सलाह न देने लगे? डर सुंदर को भी था कि कहीं सुंदरी को मेरी सगाई की खबर अच्छी न लगे? डर के केंद्र में समाधिस्थ दोनों ने एक-दूसरे को अपनी हाल-खबर कहने के लिए प्रेरित किया तो मौन ने दोनों में अपनी उपस्थिति बनाए रखी। प्रेम में पड़ने के बाद यह पहला अवसर था जब दोनों चुप थे, मौन थे। 
‘‘सुंदर! बोला न...आज इतना चुप चुप काहें बाट्या?’’ सुंदरी ने जैसे जगाते हुए कहा सुंदर को।
  ‘‘नाहीं यार, कहाँ चुप हई....? का बोली....? तुहीं बोला न कुछ?’’ प्रश्न-मुद्रा में निहारते हुए सुंदर ने सुंदरी को प्रस्तावित किया। 
‘‘सुंदर....!” इतना कहते हुए सुंदरी ने सुंदर के सीने में अपना मुँह छिपा लिया।
कुछ देर के लिए सुंदर डर गया कि कहीं किसी को कुछ पता तो नहीं चला गाँव मेंद्य, ‘‘क्या हुआ...? किसी को कोई खबर लगी क्या हमारे बारे    में...बोला सुंदरी! बोला.....का भवा...’’ एकदम चिंता में डूबते हुए प्रश्न पूछने लगा सुंदर। 
‘‘नाहीं जान! पता केके चली? चलिन जाई त केउ का करि लेई? प्यार किहे बाटी हम पचे, कौनों चोरी थोरिकऊ न कहे बाटी....?’’ सुंदरी गंभीर होते हुए बोली। 
‘‘ऊ त ठीक बा सुंदरी, पर....’’ जुबान को गले में फँसाते हुए सुंदर कुछ कहना चाहा लेकिन बात को काटते हुए सुंदरी बोलने लगी, ‘‘पर का   सुंदर...अब हमे पंचन के डरि के रहे के कौनों जरूरत नाइ बाद्य देखा जान! हमन के साल भर से लुकाछिपी मिलत हई, अब बात आगे बढ़ गवा बा। तोहे पता बा सुंदर....?’’ सुंदरी ने सुंदर की आँखों में आँखें डालते हुए पूछा तो बहुत अधिक विक्षिप्त होते हुए सुंदर बोला, ‘‘सुंदरी पता बा। कल हमार देखुवार आवत आहेन। पिता जी आजुवइ संदेश दिहेन हं। घर में सब तैयारी करत बाटेन।’’
सुंदर के मुख से यह सब सुनते ही सुंदरी अवाक् रह गयी। उसके पैर से तो जमीं ही खिसक गयी। आँखों में आंसू का सैलाब भरे हुए वह फफककर रो पड़ी, ‘‘नाहीं सुंदर, अइसन न करा जान....हम तोहरे बिना कैसे जियब बतावा....? सब कुछ तो सौंप दिहे तोहका....ई शरीर के जर्रा-जर्रा तो तोहर होई गवा बा सुंदर...अउर तोहका का चाहे?’’ 
‘‘सुंदरी तोहार भरा-पूरा परिवार बा तूँ ओकर ख्याल दा। प्यार मौज-मस्ती बिना होत ह शादी बिना थोड़ी न। फिर कितना उमर बा तोहार? सब का कहिहैं हमका कभौं इहौ त सोचे होतु...’’ कौन कहे सांत्वना देने के लिए सुंदर उलटे कोसने लगा सुंदरी को।
‘‘सुना सुंदर! सुना जान! हम तोहार बच्चा के माई बने वाली बाटी। देखा अबहीं इहै खबर आज हम तोहका देवे आई रहे...सुंदर हम अब घर ना जाई सकब। जाबो करब त कल के निकालि उठब सुंदर....सुंदर अइसन न करा जान....’’ सुंदरी रोये जा रही थी तो रोये जा रही थी। 
रो तो सुंदर भी रहा था, लेकिन सुंदरी की स्थिति पर नहीं अपने भाग्य या दुर्भाग्य पर। वह नहीं जानता था कि बचपने की दिल्लगी इतनी बड़ी जिम्मेदारी में बदल जाएगी और न ही तो सुंदरी को भविष्य के इस आघात का कुछ पता था कि हँसते-खेलते युवा के साथ बिताए दिन पहाड़ बनकर टूट पड़ेंगे उस पर। 
दोनों ने एक-दूसरे को समझाया। दोनों ने एक-दूसरे को संभालने की कोशिश की। बात जितनी बननी थी, उससे कहीं अधिक बिगड़ती गयी। सैकड़ों रातों को हसीन बनाने वाला तालाब आज दोनों के अस्तित्व पर हँस रहा था और लतापात के पेड़ मुस्करा रहे थे। दोनों रो रहे थे। ओस की बूंदे गिरने लगीं थीं। आज इन बूँदों से बचने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। उपाय आया भी तो दोनों एक दूसरे पर बरसकर टूट पड़े थे। जिन हाथों और बाहों से प्रेम की बारिस होती थी रोज, आज उन्हीं हाथों के बाहों से दोनों एक-दूसरे को क्षत-विक्षत करने पर तुले थे। बहुत देर तक लड़ाई होती रही। चोट दोनों को लगी। शरीर पर लगने वाली चोट ने उतना अधिक परेशान नहीं किया, जितना परेशान हृदय पर लगने वाले चोट ने किया।
चलते-चलते सुंदरी की सुंदर के लिए चेतावनी थी, ‘‘देखा सुंदर! अगर तूँ शादी के इनकार न किह्या त देखि लिह्या कल वहीं भरी समाज में तोहार इज्जत उतारब हम...हमार त जवन जाई के रहा गवा अब कुछ बचावे के रहि नाइ गवा बा लेकिन तोहऊँ के हम बचे न रहे देब...बर्बाद कै देब बच्चू राम...हलके में लिह्बौ न किह्या हमका....।’’ 
‘‘अगर आसौ-पास दिखाई दिहू तूँ त समझि लिहू...मामूली हमहूँ के न समझू...हम इतनौ नाइं अँधा अही कि तोहे जैसन रंडी-पतुरिया के जाल में फंसि जाब...समझी लिहू...।’’ एकदम आक्रोश में और हाँफते हुए बोला सुंदर। 
मामला अब इतना बिगड़ चुका था कि दोनों ने अपने-अपने घर की तरफ रुख किया, लेकिन एक होकर नहीं खण्ड-खण्ड बंटकर। यह बँटना महज अलग होना नहीं था, होते हुए भी इस जमीं पर न होने के समान था।    
 
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सुंदर ने आज रात खाना नहीं खाया। घर पर परिवार के सदस्यों से भी लड़-झगड़ लिया बात-बात में। सबने सोचा क्या पता शादी को लेकर कुछ दिमाग में आया हो, इसलिए खीझा हुआ है। यह किसी को नहीं पता था कि सुंदरी मेन वजह है इन सब बातों के पीछे। सुंदर जब एक बार लेटा तो फिर दुबारा एक बार भी नहीं उठा रात में। बीच-बीच में कई बार जागकर बड़बड़ाते हुए जरूर सुना गया उसे।
इधर अपमान और तिरस्कार से बुरी तरह टूट चुकी सुंदरी ने बच्चों को खिलाने-पिलाने के बाद खाट का सहारा लिया तो देर रात तक नींद नहीं आई। अब वह अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित थी। पति बिलकुल उससे बात नहीं करता था तो बच्चे ने भी एक-दो दिन से भला-बुरा कहना शुरू कर दिया था। सास-श्वसुर का शक भी अब विश्वास में बदलता जा रहा था। क्या करे और क्या न करे पूरी रात सुंदरी को यह चिंता सताती रही। अंत में उसने निर्णय लिया कि सुंदर की शादी वह नहीं होने देगी। जल्दी सुबह उठकर वह सुमित्रा के पास गयी। गुजरी को बुलवाकर एक पत्र लिखवाया और उसमें यह संदेश भिजवा दिया कि आज जब देखुआर आएँगे तो वह भी वहीं तांडव मचाएगी।
सुमित्रा ने जिस समय सुंदर को पत्र दिया, उस समय सुंदर किसी सदमें में पड़ा पश्चाताप की अग्नि में जल रहा था। पत्र देखते ही उसने झट से खोला तो चेतावनी देख उसके पैरों तले से जमीं खिसक गई। वह आसमान की तरफ देखते हुए जमीं पर धम से बैठ जाता है। उसके बैठने में कितनी पीड़ा और तड़प कितनी थी, इसे सुमित्रा ने गहरे में महसूस किया था। 
बाजे बज रहे हैं। बच्चे नाच रहे हैं। घर के सभी सदस्य तैयार होने में व्यस्त हैं तो सुंदर सुमित्रा के माध्यम से सुंदरी को मानने में। दोपहर बारह बजे के आसपास देखुआर की गाड़ी आने की खबर लगी तो घर के लोग बहुत खुश हुए। चाय-नाश्ता-पानी का इंतजाम होने लगा। किसी भी रूप में सुंदरी के न समझौता करने की शर्त पर सुंदर हताश और परेशान हो गया। अंततः उसने अपने परिवार वालों के पास जाकर सुंदरी से संबंधित सारे वाकया की जानकारी देना उचित समझा।
उधर से देखुआरों की गाड़ी आई और इधर से सुंदरी बोरिया-बिस्तर लेकर धमक पड़ी। सुंदर के बताए किस्से को सुनकर परिवार वालों का खून पहले ही खौल रहा था, जैसे ही सुंदरी को देखा तो खींचकर एक कमरे में बंद कर दिया। इधर देखुआरी की रस्म-अदायगी हो रही थी तो उधर सुंदरी की पिटाई।
‘‘हमार लड़का के जीवन बर्बाद कई दिहू तू भातारकाटी! अब का लेवे आई बाटू राण? बच्चा हवइ ऊद्य ओका बख्शि द हे चुड़ैलियऊ?’’ सुंदर माँ ने सुंदरी को मारते हुए चीखकर बोली तो लगा जैसे खा जाएगी सुंदरी को। 
‘‘हम ओकर जीवन नाइ बर्बाद केहे हे छिनार हरे....! अरे मोरी माई...हमका का मारत अहू...अपने पिलौनउ से पूछे होतू.....अरे मोरे माई.....अरे माई रे.....अरे बाप्पा हो......अरे माई रे माई रे माई...’’ सुंदरी दहाड़ मार कर रोए जा रही थी और सुंदर के घर वाले उसे निर्दयता से पीटे जा रहे थे। सुंदरी का प्रतिरोध कम होने का नाम नहीं ले रहा था। 
यातना में जिद और बढ़ती है और यही हो रहा था सुंदरी के साथद्य वह पूरे दम से चीखते हुए बोली, ‘‘हम काहें बर्बाद करी ओकर जीवन? ऊ त हमहिन के लूटेस ह। सब त लूटि लिहेस मुँहझौंसा रे....! हे रणऊ हरे.....! हे बेटवा चबउनिउ हरे...! ऊ दहिजरा कहाँ मरि गवा रे.......अरे माई रे माई....अरे बप्पा रे.....’’ 
सुंदरी चीख रही थी, चिल्ला रही थी, सुंदर को बुला रही थी, बार-बार बुला रही थी लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। ध्यान दिया तो बस इस बात पर कि किसी तरह वह अंततः बोल दे कि सुंदर से कोई संबंध नहीं रखेगी। सुंदरी ने ऐसा नहीं बोला तो अंत तक नहीं बोला।  
सुंदर के घरवालों द्वारा इतनी बुरी तरह और निर्दयता से मारा-पीटा गया सुंदरी को कि उसने कोख में पल रहा चार महीने का बच्चा खो दिया। दर्द और पीड़ा से बिलबिला उठी सुंदरी, फिर भी किसी ने उसकी यथास्थिति पर ध्यान नहीं दिया। दो दिन से बगैर कुछ खाए-पिए सुंदरी जब तक पिटकर उनके चंगुल से मुक्त होती तब तक देखुआरों की गाड़ी जा चुकी थी। गाँव वालों को भी इस बात की भनक न लगने पाई। दर्द से कराहते और बेहोश पड़ी सुंदरी रात के धुंधलके में घर से बाहर निकाल दी गयी। जिस समय उसे मारकर भगाया जा रहा था, अपना गिरा हुआ बच्चा उठाना वह नहीं भूली।
 
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रात के तीन बज रहे हैं और सड़क के किनारे लगे एक बगीचे में खून से लथपथ सुंदरी कराह रही है। दो दिन से बगैर कुछ खाए-पिए तो आदमी वैसे ही अचेत हो जाता है, सुंदरी के साथ तो पूरी की पूरी यातना घटी हुई है। सुबह पांच-छह बजे तक किसी ने आते-जाते उसके ऊपर एक कथरी (कंबल जैसा) डाल दिया है, उसी में लिपटी अपने खोए हुए चार महीने के बच्चे को बगल में रखे दर्द से तड़प रही है सुंदरी। सुबह हुई तो दिशा-मैदान के लिए लोगों का आना जाना शुरू हुआ। औरतें पहले तो डर कर भागीं, लेकिन जब कराहती और रोती औरत की आवाज पड़ी उनके कान में तो एक-एककर आने लगीं सहायता के लिए।
अगर किसी पुरुष का सीधा हस्तक्षेप न हो तो पुरुषों की अपेक्षा औरतों में सहयोग की भावना कुछ अधिक होती है। जो बागीचा अभी तक सुंदरी के उजड़े जीवन की दास्ताँ लिए मुर्दाघाट-सा प्रतीत हो रहा था, सुंदरी के लिए वही बगीचा अब संवेदना का लोक-आचार बन चुका था। दूर-दूर तक खबर फैलती गयी। किसी ने ‘कुछ सुना, कुछ और उड़ा दिया’ की तर्ज पर खबर को फैलाया तो किसी ने अलग से कुछ और कहानियाँ चिपकाकर पूरे गाँव में ढिंढोरा पीट दिया।
सुंदरी के घर खबर दी गयी तो किसी ने भी आने से मन कर दिया। पति ने एकदम से अपने बच्चों को रोका तो सास-श्वसुर ने जीभर गालियाँ दी। देवरों ने लज्जा से कुछ न बोलना ही उचित समझा। लोगों की निगाह में यह महज सुंदरी का मामला नहीं था, अपितु पूरे परिवार और खानदान के इज्जत का सवाल था। कोई भले न गया सुंदरी के पास, लेकिन सास से न रहा गया। वह खबर सुनते ही सबके चोरी साल ओढ़े पहुँच गयी। देखते ही पहले तो दसियों गाली सुंदर और उसके परिवार को दिया फिर सुंदरी को गाली देते हुए कहा, ‘‘का जरूरत रही रणऊ तोहका ई सब करे के? अबे तक अघानि नाइं रहू हरिजइयऊ? भरि गा तोहार मन, होई गऊ मस्त नाक कटवाइ के? मरि काहें नाइ गऊ कुलबोरनी?’’ 
प्रश्नों और गालियों की बौछार में सुंदरी ने दर्द और दुःख के दबाव में इतना भर कहते हुए आँख मूँद लिया कि ‘‘मरि त तोहऊँ के जाई के रहा, काहें जियत बाटू? तूँ काहें कटाए रहू नाक? का हम जाने रहे मुँहझौंसा के....’’ दर्द की कराह से सुंदरी का गला रुंधा जा रहा था। बहुत मुश्किल से वह देख पा रही थी सबको और उससे कहीं अधिक मुश्किल से कुछ बोलने में समर्थ हो पा रही थी।
सुंदरी की हालात को देखते हुए किसी ने सलाह दी एक डॉक्टर को बुलाने की ताकि जल्दी उसे आराम हो सके। गाँव का ही हरिहर दौड़ा-दौड़ा सड़क पर गया तो डॉक्टर ने आने से यह कहते हुए मना कर दिया कि ‘‘बदचलन के दवा हम न देबे। जा बोलि द्या, अउर फिर यहर ना आया।’’ 
हरिहर को डॉक्टर का यह कहना उचित न लगा। उसने तुरंत प्रतिवाद करते हुए कहा, ‘‘भूलि गया का डॉक्टर, जब आशिकी के चक्कर में खदेरा गवा रह्या गाँव से? हमहिन रहे जवन तोहका बचाए रहे?’’ हरिहर का गुस्सा और प्रतिवाद का जवाब डॉक्टर के पास नहीं था तो उसने पीछे-पीछे होना ही उचित समझा। 
सुखी वर्तमान के दायरे में रहते हुए हम अक्सर अपने दयनीय अतीत को भूल जाते हैं। इस समय जितने भी लोग गाँव के आए थे सुंदरी को देखने या कोसने उनमें से अधिकांश किसी न किसी रूप में ऐसे कांड कर चुके थे। इधर डॉक्टर दवा दे रहा था तो उधर से एक बुढ़िया की आवाज ऐसी सुनाई दी सबको जिसका अपना अतीत सुंदरी के वर्तमान से किसी मायने में कम न था, ‘‘अरे मारा हरजाई के...नाक कटाई देहेस...सोन जैसन बच्चन के जिनगी खराब कै दिहेस ई...एका दवाई नाइ जहर द्या जहर...।’’ हाँफते और गरियाते हुए जब वह आ रही थी तो उसके हमउम्र बुजुर्गों की निगाह उसी पर जाकर अटक गयी। लगभग के मुँह से यह कहते सुना गया कि ‘‘सुपवा बोले त बोले चलनियौ बोले, जेकरे बत्तीस छेद।’’
दवा लेने के बाद सुंदरी को कुछ आराम मिला। धीरे-धीरे भीड़ जाती रही और आती रही। जितने लोग जाते उतने लोग आ जाते। वह दिन इसी गहमागहमी में बीता। सुंदरी न घर गयी और न ही कहीं अन्य जगह। देर रात जब कोई नहीं था तो उसका पति उसके लिए खाना पकाकर लाया और उसे खिलाते हुए घर चलने के लिए निवेदन करने लगा। सुंदरी तैयार न हुई। बच्चों का वास्ता दिया और अपने पति को वापस जाने के लिए दबाव बनाती रही। 
 
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प्रेम जितना आनंद देता है, दुःख भी उतना ही देता है। संघर्ष के क्षणों में जो प्रेम किसी प्रेरणा और प्रोत्साहन से बढ़कर होता है, वही प्रेम अपनी दुर्गति में शरीर के सड़े हुए अंग के सामान हो जाता है। न काटकर अलग होते बनता है और न अपने शरीर से लगाए रखना उचित। आज जो घाव सुंदरी के हृदय में लगा है वह पूरे जीवन टीस बन सालता रहेगा उसे। प्रेम के उन्माद में एक-एक क्षण कितना व्यस्त था, सुंदरी उसे याद कर रही है। प्रेम में उजड़ने के बाद एक-एक पल कितना पहाड़ हो गया है, सुंदरी उसका एहसास कर रही है। याद और एहसास के बीच मन जिस तरह से त्रिशंकु बन झूल रहा है, दरअसल वही सुंदरी की यथास्थिति थी इस समय।  
वैसे भी व्यक्ति के पास जब कुछ नहीं रहता तो दो ही रास्ते बचते हैं- एक आत्महत्या का तो दूसरा नयी दुनिया-निर्माण में संघर्ष का। सुंदरी तो ऐसे मोड़ पर खड़ी थी जहाँ सारे रास्ते बंद थे। निर्माण के संघर्ष से कहीं अधिक लुभावनी होती है आत्महत्या की राह, सुंदरी को इस समय यही राह सबसे आसान और मुक्तिकामी प्रतीत हो रहा है। वह जितने कदम बढ़ रही है, उसे ऐसा लग रहा है जैसे मृत्यु उसे करीब से बुला रही हो। देस-दुनिया की रवायतों को देखते-झेलते कितना तो थक चुकी है वह। कितनी तो मायूस हो चुकी है लोगों में रहते-कुढ़ते। एक पल के लिए खड़े होकर सुंदरी सोच रही है कि प्रेम का अलाप नाहक लोग करते हैं। घृणा से कितने भरे हुए हैं लोग, पता तो पहले भी समय-समय पर चलता रहा है सुंदरी को लेकिन आज जो उदहारण उसे मिला सबसे अधिक बर्बर, क्रूर और निरंकुश समय में होने का एहसास दे गए।
सुंदरी फिर भी मृत्यु की तरफ नहीं जाना चाहती। ऐसे कितने ही क्षणों में उसने हिम्मत नहीं हारी और बार-बार उजड़ने के बाद भी दूब की मानिंद अपने जीवन को हरा-भरा करती रही। आज फिर उसने दबी जुबान ही सही जीवन के संघर्ष में आना उचित समझा।
लगभग एक हफ्ते बीत गए ऐसी दशा में रहते हुए। अब वह धीरे-धीरे सामान्य होने लगी। गाँव में जिसे जो कहना था कह चुका। पति सबसे यही कहता कि नहीं लाऊंगा उसे, लेकिन देर रात आकर उसे खाना खिलाता। बगल लेटे हुए उसकी सेवा करता और फिर देर रात ही वापस अपने घर आता। दस दिन बीतते-बीतते उसने सुंदरी को उसके मायके छोड़ दिया और आना-जाना लगाए रखा। 
 
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जीवन के नंगे यथार्थ को जो भोग चुका वह न तो दिखावटी आदर्श में विश्वास रखता है और न ही तो बनावटी वसूलों में आस्था। जब भी कोई नैतिकता और आदर्श की बात करता है उसके सामने वह भड़क उठती है। इन दिनों सुंदरी बच्चों को जीवन जीना सिखाने में व्यस्त है, नैतिकता की खाल ओढ़कर तिल-तिल मरना नहीं। इसीलिए उसने खुला परिवेश दे रखा है बच्चों को ताकि कोई इच्छा इसलिए न अधूरी रह जाए कि उसे अच्छा बनना है। अच्छे-अच्छों की नैतिकता रोज देख ही नहीं रही है सुंदरी, बल्कि दिखा भी रही है लोगों को!!

-सहायक प्राध्यापक, हिंदी-विभाग, लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, फगवाड़ा, पंजाब 

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