भारतीय
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ के यशस्वी साहित्यकार प्रो. उडुपी
राजगोपालाचार्य अनंतमूर्ति का जन्म कर्नाटक के शिमोग जिले के तीर्थहल्ली नगर में 1932
में हुआ। मैसूर विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद 1956 में वहीं
पर अंग्रेज़ी विभाग में अध्यापन-कार्य आरंभ किया। बाद में बर्मिंघम युनिवर्सिटी
(यू.के) से पी-एच.डी. की उपाधि पाई। 1980 में मैसूर विश्वविद्यालय में अंग्रजी के
प्रोफेसर, 1982
में शिवाजी विश्वविद्यालय में तथा 1975 में लोवा विश्वविद्यालय में विजिटिंग
प्रोफेसर रहे। महात्मा गांधी विश्वविद्यालय,
कोट्टयम के उपकुलपति और नेशनल बुक ट्रस्ट, नयी
दिल्ली के अध्यक्ष रहे हैं।
प्रमुख
कृतियाँ : अनंतमूर्ति की 20 से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें
'भव', 'संस्कार', 'भारतीपुर', 'अवस्थे' शीर्षक
उपन्यासों के अलावा पाँच समीक्षा-ग्रंथ हैं। अनंतमूर्ति की कृतियाँ विभिन्न भारतीय
भाषाओं के अतिरिक्त फ्रेंच,
रूसी,
जर्मन,
बुलगेरियन और अंग्रेज़ी आदि विश्व की प्रमुख
भाषाओं में भी अनूदित हो चुकी हैं। 1970 में 'संस्कार' पर
आधारित कन्नड़ फिल्म कथानक की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ घोषित हुई।
रात
होते ही ख़ूँख़ार जानवर घूमने लगते थे। फिर भी उस क्रूर माँ ने बच्चे के पूरी रोटी
के लिए ज़िद करने पर उसे आँगन में धकेल दिया। चिटकनी लगाकर फिर रोटी सेंकने…”
“माँ, कहानी
सुनाते समय तुम ऐसे क्यों रोने लगती हो?”
“नहीं
बेटा, रो
नहीं रही हूँ…।”
पास
सोया हुआ बेटा लाख समझाने पर सुनता नहीं। माँ पर जवाब देने के लिए लगातार ज़ोर दे
रहा है। लाख जतन करने पर भी सो नहीं रहा है! भला अब्बक्का कहानी सुनाकर कैसे उसे
सांत्वना दे सकती है?
“लो, अब
बहुत रात हो गई। कहानी सुनते-सुनते सो जाओ,
बेटा! उस बच्चे को बड़ा डर…”
नहीं, शीनू
कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है। साड़ी के पल्लू से अब्बक्का आँसू पोंछकर बेटे की
पीठ सहलाते हुए फुसफुसाते हुए बोली,
“ज़ोर से मत बोल, बेटा!
पालने में सोया छोटू जाग जाएगा। अब कहानी सुनो। उस बच्चे के इतनी ज़ोर से रोने पर
भी पापी माँ…।”
“नहीं, मैं
कहानी नहीं सुनना चाहता। यह बताओ कि सुबह से तुम लगातार ऐसे क्यों रोए जा रही हो?”
आठ
साल का होने पर भी यह बच्चा बड़ा समझदार है। उसे माँ से बहुत प्यार है।
‘हरेक
को छाती-जाँघ दिखाए बिना जीना मुश्किल है।’ जन्म देने वाली अब्बक्का का मन रो रहा
था। भला शीनू को यह सब क्यों न बता दिया जाए!
बताया
जा सकता है—पर कैसे?
“तेरा
एक बड़ा भय्या था, बेटा…
आज उसका जन्म-दिन है।”
“कहाँ
है भैया, माँ?”
अब
अब्बक्का इसका उत्तर क्या दे?
जितना ही सोचती, उसके
दिल में अमावस का अँधेरा घर करने लगता है।
भैया
कहाँ गया, क्या
वह बता सकती है? लाम
पर गया है? कहीं
दूर के होटल में नौकरी करने चला गया है?
कारख़ाने में काम करने गया है? बाज़ार
में दूसरों का सामान ढोने के लिए कुली के काम में लग गया है? या
अनाथ की तरह उसने कहीं प्राण छोड़ दिए हैं?
माँ द्वारा त्यागने वाले बच्चे को क्या सुख
मिलता है? क्या
दुख है, वह
क्या बता सकती है?
उसे
देखे आठ वर्ष बीत गए हैं,
पर आज भी माँ उसे पहचान सकती है।
उसका
नाम चेलुवा (सुन्दर) था। जैसा नाम वैसा रूप। देखने वालों की उसे नज़र लग जाती थी, ऐसा
सुन्दर था!
गेहुँआ
रंग, लम्बा
क़द । लम्बा चेहरा, नीम
के पत्ते जैसी भौंहें, गोदना
गुदा लम्बा माथा। तीखी झुकी नाक। शिव के त्रिशूल-सी चमकती छोटी-छोटी गोल-गोल
आँखें! ज़रा गम्भीरता और ज़रा गर्व से भरे मोटे होंठ। सिर पर घने घुँघराले बाल।
अचानक नींद से उठकर कोई चल दे,
वैसी धीमी चाल।
वह
आज भी अब्बक्का की आँखों के सामने साक्षात खड़ा है। जिसे बारह साल आँखों की पुतली
के समान पाला—उस बेटे को वह कैसे भूल सकती है?
“बताओ
न माँ, अब
भैया कहाँ हैं?”
“तेरी
माँ पर ग़ुस्सा करके कहीं… दूर चला गया है।”
इससे
ज़्यादा अब्बक्का बता नहीं पाती। अगर बताए भी तो उस बच्चे की समझ में कैसे आ सकता
है?
“तुमने
उसे जाने से मना क्यों नहीं किया,
माँ?”
यह
बात अब्बक्का के दिल में छुरी की तरह चुभती है। अगर उसे यह पता होता कि वह इस तरह
नाराज़ होकर अपनी ज़िद में चला जाएगा तो अब्बक्का दामन फैलाकर प्रार्थना करती। यह
सच है कि उसने कमबख़्त ग़ुस्से में आकर उससे चार कड़वी बातें कह दी थीं। पर क्या इसी
पर…!
“बापू
ने उसे क्यों नहीं रोका,
माँ?”
शीनू
के ऐसा पूछने पर बताए बिना कोई चारा नहीं था। कितने दिन तक वह यह बात उस बच्चे से
छिपाकर रख सकती है?
“तेरा
बापू दूसरा है। उसका बापू दूसरा था। उसके बापू के मर जाने के बाद…”
अब्बक्का
दूसरे मर्द के साथ रहने लगी थी। उसका बाप उसके पैदा होते समय ही मर गया था। बाद
में तेरह साल मजूरी करके उसने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया। बाद में इस मर्द के साथ
बैठ गई।… इसी बात पर माँ और बेटे में मन-मुटाव शुरू हो गया।
बताने
पर भी इन बातों को यह बच्चा शीनू कैसे समझेगा?… बच्चे की समझ में
कुछ भी न आया। वह आँखें फाड़े चुपचाप देखे जा रहा था।
बाद
में अकेला जीना कठिन हो गया था। नए मोह में फँसकर…। शायद मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए
था।
पर
उसकी जाति में क्या ऐसा नहीं होता?
सीतू ने क्या दूसरा नहीं कर लिया था?
अक्कू
एक के बाद एक तीन मर्दो के साथ नहीं बैठी थी?
पाँच बच्चों की माँ मीटी ने हाल ही में ऐसा
नहीं किया है क्या? ऐसी
स्थिति में मेरा ही क्या दोष?
पर
तेरह वर्ष के बेटे के मना करने पर भी उसकी बात को टालकर दूसरा मर्द करना…?
तो
क्या चेलुवा को दूसरों के उकसाने पर मुझसे ज़बान लड़ानी चाहिए थी? ख़ैर, वह
भी छोड़ दें तो क्या उसे अपनी माँ पर हाथ उठाना चाहिए था? माँ
ने ग़ुस्से में आकर कुछ कह दिया तो क्या उसे घर छोड़कर चला जाना चाहिए था? क्या
बेटे के लिए यही उचित रास्ता था?
अरे, माँ
को न समझ पाने वाला चेलुवा,
माँ के प्यार को न समझ पाने वाला बच्चा
जवानी आते ही, जन्म
देने और पाल-पोसने वाली माँ को छोड़कर…।
…आठ-नौ
साल हो गए। वह एक बार भी इस तरफ़ नहीं आया। दीये में तेल डालकर बैठी इंतज़ार करने
वाली माँ को उसने एक चिट्ठी तक नहीं लिखी।
क्या
बेटे के मन में एक बार भी माँ का मुख देखने की इच्छा नहीं जागी?
“माँ…
घाट पर से बापू कब आएँगे?
वे आ जाएँ तो तुम्हें ऐसे नहीं रोने देंगे।”
यह
बच्चा शीनू कितने प्यार से बातें करता है! इसका कहना भी झूठ नहीं। मुझसे प्यार
करके हाथ पकड़ने वाला भी ऐसा ही है। नहीं तो क्या मैं उसका हाथ पकड़ती?
उसकी
वह बँटी हुई मूँछे। पान खाने के कारण सदा लाल-लाल मुसकराते होंठ। पगड़ी के बीच से
झाँकते लम्बे बाल। चमकते कनफूल। कुलियों के बीच मेट की शान से चलने का रोब।
वह
तो भगवान जैसा आदमी है…।
मेरी
माँ धान कूटते समय अपने गीत में सदा ऐसे ही पुरुष का वर्णन करती थी।
“बिस्तर
बिछाओ, कहा
फूल
पहन लो, कहा
मन
न हो तो प्रिये सो जाओ,
कहा।
उसने
मुझे देखकर कहा, मन
न हो तो प्रिये सो जाओ…।”
मायके
को ही क्या, सारी
दुनिया को भुलवा देने वाला रसिक है। हाँ,
भरी जवानी में सब भूल जाना मेरे लिए कोई
आश्चर्य की बात नहीं थी। उस मोह में एक क्षण के लिए बेटे का प्यार भी भूल गया होगा।
तभी तो कभी जल्दीबाज़ी न करने वाली मैं उस दिन ऐसा कर बैठी। प्यारे बेटे को
धिक्कारकर अपने से दूर कर दिया। अपने सुख के आड़े आने वाले चेलुवा को धिक्कार
दिया।
हाय!
मैं क्या पापी नहीं हूँ?
ऐसा भी कैसा मोह? किसी
माँ ने ऐसा नहीं किया होगा। तब चार लोगों के मुँह से निकलने वाली बात की तरह क्या
मैंने एक वेश्या से बदतर व्यवहार नहीं किया?
मुझे
प्यार करने वाला बड़ा सभ्य है। पर उस कमबख़्त मोह के कारण बेटा ही हाथ से छूट गया
न!
पता
नहीं, वह
कहाँ गया? शेर
का शिकार बन गया क्या? पता
नहीं, किन
चोर-उचक्कों के हाथ लग गया?
किस नदी में दुख सहन करने के कारण कूद पड़ा
हो? पता
नहीं, कहाँ
अकेला भूखा-प्यासा भटक रहा है?
माँ के होते हुए भी अनाथ हो गया।
आज
उसका जन्मदिन है। आज पास होता तो बाईस साल का हो गया होता। बहू घर लाकर पोता
खिलाने के मेरे भाग्य कहाँ?
क्या मैं माँ हूँ?… नहीं, पिशाचिनी
हूँ, महान
पापी…!
“माँ, मत
रो। मेरी बात नहीं मानोगी?”
“तुझे
अब तक नींद नहीं आयी, बेटे?”
“तुम
रो रही हो तो मैं कैसे सो जाऊँ?”
“नहीं
रोती, बेटा…
तू सो जा।”
“तुम्हें
छोड़कर जाने में भैया की ही ग़लती है।… तुम क्यों रोती हो, माँ?… जाने
दो, बताओ
वह कहानी आगे क्या हुई?…
जब वह बच्चा रो रहा था…।”
“…रोते
रहने पर भी मेरे जैसी कठोर माँ को दया नहीं आयी। तभी बाँसों के झुंड में सर्र-सर्र
की-सी आवाज़ हुई। बच्चा अपनी छोटी-छोटी आँखें फैलाकर उस ओर देखने लगा तो वहाँ एक
बब्बर शेर खड़ा था।
बच्चा
काँप उठा। अपने छोटे-छोटे हाथों से उसने दरवाज़ा थपथपाया और प्यारी-प्यारी आवाज़
में कहा, ‘माँ, आधी
रोटी ही ठीक है। दरवाज़ा खोल दे।’ वह गिड़गिड़ा रहा था।
बेचारे
बच्चे का ‘शेर है’ कहने के लिए मुँह नहीं खुल पा रहा था। उस मेरी जैसी क्रूर माँ
का चीख़ने वाले बच्चे की ओर ध्यान नहीं गया।
‘आधी
रोटी बहुत है, माँ…
दरवाज़ा खोलो, माँ…
आँखें बड़ी-बड़ी… पूँछ चट-पट…’
उसका
रोना बन्द हो गया। अब उसने अपनी ज़िद छोड़ दी होगी, सोचकर रोटी खाती
हुई माँ ने दरवाज़ा खोलकर बाहर देखा…।
वहाँ
छोटा बच्चा कहाँ था?… वह
तो कभी का शेर का शिकार हो चुका था।
नीच
माँ के कारण, पापी
माँ के कारण, दुष्ट
माँ के कारण बच्चा… हाथ आया हुआ बच्चा शेर के मुँह का कौर बन गया था।”
शेर
के मुँह का?
पता
नहीं, किस
जंगल में?
किस
नदी की शरण में?
पता
नहीं कहाँ…
हाय
राम! हाय भगवान!
आएगा
वह या नहीं आएगा?
वह
मेरा बड़ा बेटा, मेरी
आँखों का तारा, वह
चेलुवा, मैंने
ही उसे अपने हाथों से धकेल दिया। वह प्यारा मुन्ना!
वह
आएगा या नहीं आएगा?
उसकी
बाट जोहते-जोहते थक गई है अब्बक्का।… उसके आँगन के सामने फैले पहाड़ों और जंगलों
में दूर जाकर खो जाने वाली बल खाती उस पगडंडी पर से बेटे के लौटने की प्रतीक्षा
में माँ आँसू बहाती रही।
आएगा
वह या नहीं आएगा?
आए
तो खाने के लिए रखी कटहल की चटनी देगी,
पहनने को अच्छे कपड़े देगी। जोड़कर रखे
चाँदी के तीन सौ रुपये ख़र्च करके उसकी शादी करेगी। चाहे वह घर में ही बैठा रहे, लेकिन
पति के मुँह से कोई कठोर बात उसे नहीं सुनने देगी। वह बेटे को इस प्रकार सम्भालेगी।
पर वह चेलुवा…।
आएगा
या नहीं आएगा?
वह
मेरा प्यारा मुन्ना…!
आएगा
या नहीं आएगा? आ…
ए… गा?
यह
किसकी आवाज़ है?
माँ…
माँ… माँ…!
…किसकी
ध्वनि?
दोपहर
की तपती धूप के कारण थकी ध्वनि। मृदु और कोमल… प्रिय… थकी ध्वनि… जैसे किसी ने माँ
कहा हो।
“अरे
दरवाज़ा खोलने से पहले ही दिल ऐसा क्यों?”
…अहा!
तू आ गया, बेटा!
आख़िर इतने दिन के बाद आ गया न! अपनी माँ की ग़लती को माफ़ कर दिया…!
बैठो
बेटा, कितने
दुबले हो गए हो…!
प्यासे
हो? भूखे
हो? कहाँ-कहाँ
अनाथ की तरह भटकते रहे,
मेरे बेटे! मेरे मुन्ने…!
तेल
मलकर तुझे नहलाऊँगी, बेटे!
अब मुझे छोड़कर कहीं भी मत जाना…। माँ के पेट पर लात मारकर नहीं जाना। समझ ले, तेरे
बिना मैं अब ज़िन्दा नहीं रह सकती।
हाय…
हाय!
यह
क्या, बेटे? अब
कहाँ चले? माँ
को छोड़कर क्यों जा रहे हो?
ऐसा क्यों? दूर-दूर… ओस की
तरह धीरे-धीरे अदृश्य हो रहे हो,
चेलुवा? तुझे माँ नहीं
चाहिए क्या?
तुम्हारी
आँखों में ऐसा तिरस्कार क्यों?
नहीं ऐसे आँखें फाड़कर मत देख, बेटे!
तुम्हारे लिए उन्हें… अपने प्राणों से प्यारे उन्हें भी त्याग दूँगी। पर यह… ये दो
बच्चे भी मेरे पेट से पैदा हुए हैं। तेरे समान ही वे मेरे बेटे हैं। तेरे छोटे भाई
हैं, चेलुवा…!
तुझे अपना बड़ा भाई मानकर प्यार करेंगे। बेटे, बहुत-बहुत प्यार
करेंगे। उन्हें भी मैं किसी प्रकार त्याग नहीं सकती। बेटा, मेरे
लिए… तेरे पाँव पड़ती हूँ।
मेरे
लिए रुक जा, बेटे…
मेरी क़सम… रुक जा, रुक
जा, चेलुवा!…
चेलु…!
“माँ…
माँ… माँ… नींद में ऐसे क्यों बड़बड़ा रही हो? तुम्हें क्या हो
गया है?”
पास
ही सोया शीनू अभी सोयी माँ को हिलाकर पूछता है। पालने में पड़ा शिशु माँ के दूध के
लिए रोने लगता है।
अब्बक्का
उमड़ते आँसुओं को साड़ी के पल्लू से पोंछने का यत्न करती हुई बच्चे को स्तन पिलाती
है।
उस
नीरव, गम्भीर
अँधेरे में बच्चा दुखी तप्त हृदय का दूध चूसता है, मीठा दूध।
परन्तु
माँ की आँखों से उमड़ रहा है खारा पानी।
अन्तहीन…।
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