विश्वविद्यालयीय असंतोष और युवा संघर्ष का सजीव दस्तावेज़: अपना मोर्चा



 अपना मोर्चा (उपन्यास): काशीनाथ सिंह  

राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली | संस्करण: 2014 | मूल्य: 125 रुपए पृष्ठ: 127   


काशीनाथ सिंह का उपन्यास अपना मोर्चा हिन्दी साहित्य की समृद्ध परंपरा में एक विशिष्ट और गहन महत्व का दस्तावेज़ है। यह रचना विश्वविद्यालयीन जीवन की जटिलताओं, युवा वर्ग के अंतर्निहित संघर्षों तथा सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में व्याप्त असंतोष की बारीकियों को अत्यंत संवेदनशीलता और तीव्र व्याख्यात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करती है। 1967 में उत्तर भारत में हुए भाषा-आंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित यह उपन्यास न केवल उस युग के छात्र आंदोलनों का सजीव और प्रमाणिक प्रतिबिंब है, बल्कि नवलेखन के उस युग की शैलीगत नवाचारों तथा वैचारिक विमर्श की गूढ़ताओं का भी सूक्ष्म और प्रभावशाली प्रतिनिधित्व करता है। यह उपन्यास पारंपरिक कथानक संरचना से अलग, जीवन की जटिल सामाजिक परिस्थितियों और मानवीय संवेदनाओं के अंतःस्थ अध्ययनों के माध्यम से एक नया उपन्यासिक रूप प्रस्तुत करता है। अपना मोर्चा का साहित्यिक महत्व केवल इसकी कथावस्तु में ही नहीं, अपितु उसकी भाषा, संवाद और चरित्र चित्रण की नवीनता में भी निहित है, जो पाठक को विश्वविद्यालयीन जीवन की आंतरिक विसंगतियों तथा समाज के व्यापक संघर्षों के प्रति जागरूक करता है।

            काशीनाथ सिंह का यह उपन्यास एक युगदृष्टि साहित्यिक कृति के रूप में उभरता है, जो न केवल तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों का सशक्त दर्पण है, बल्कि हिन्दी साहित्य में नवलेखन की दिशा में एक नई परंपरा स्थापित करने में भी सफल रहा है। अपना मोर्चा को 'नया उपन्यास' कहना न केवल उपयुक्त है, बल्कि अपरिहार्य भी है, क्योंकि यह परंपरागत उपन्यास विधा से गहराई और स्वरूप दोनों ही दृष्टियों से भिन्न एवं पृथक् है। जहाँ पारंपरिक उपन्यासों में स्पष्ट, रेखीय कथानक और संपूर्ण विकसित चरित्र-निर्माण की अपेक्षा होती है, वहीं अपना मोर्चा अपने कथानक को किसी सुस्पष्ट रेखा पर आधारित करने के स्थान पर जीवन की विसंगतियों, द्विविधा एवं सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में व्याप्त विभाजन और द्वंद्वों के माध्यम से गढ़ता है।

            यह उपन्यास विश्वविद्यालयीन जीवन की अनेक जटिलताओं, विद्वानों की अकर्मण्यता, छात्र राजनीति के अंदर छिपे हुए संघर्ष और व्यवस्था के प्रति चाटुकारिता के विस्तृत और जटिल ताने-बाने पर निर्मित है। अपना मोर्चा केवल एक काल्पनिक या मिथकात्मक कथानक का संकलन नहीं है, बल्कि यथार्थ की कठोर, सच्ची और तीव्र झलक प्रस्तुत करता है, जो समाज की कुरीतियों और विडम्बनाओं को बेबाकी से उद्घाटित करता है। यह उपन्यास न केवल साहित्यिक नवाचार का परिचायक है, बल्कि सामाजिक यथार्थ की जटिलताओं को समझने और व्यक्त करने का एक नया माध्यम भी बनकर उभरा है। इसका कथ्य और संरचना पाठक को एक वास्तविक और कड़वी सच्चाई से अवगत कराते हुए परंपरागत उपन्यास की सीमाओं से परे जाकर जीवन की विसंगतियों पर विचार-विमर्श के लिए प्रेरित करता है।

            काशीनाथ सिंह ने अपना मोर्चा उपन्यास में विश्वविद्यालय को केवल एक शिक्षा का स्थल नहीं, बल्कि देश के बहुसंख्यक शिक्षण संस्थानों की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था का सूक्ष्म और प्रतिनिधि प्रतीक रूप में उकेरा है। उन्होंने इस माध्यम से उस व्यवस्था की जटिलताओं, अंतर्विरोधों और विडम्बनाओं को बड़े यथार्थवादी एवं सशक्त भावों के साथ प्रस्तुत किया है। उपन्यास में चित्रित छात्र आंदोलन केवल एक अस्थायी विद्रोह नहीं, बल्कि जीवन का अभिन्न अंग बनकर उभरता है, जहाँ राजनीतिक सक्रियता और व्यक्तिगत संघर्ष गहरे अंतर्संबंधों में समाहित होते हैं। इस संदर्भ में उपन्यास के संवाद और दृष्टांत अत्यंत प्रभावशाली हैं, जो न केवल विश्वविद्यालयीन व्यवस्था की घोर विडम्बनाओं को उद्घाटित करते हैं, बल्कि समाज की व्यापक त्रासदियों, सामाजिक कुरीतियों और सत्ता-संघर्ष की कठोर वास्तविकताओं को भी पाठक के समक्ष निर्विघ्न रूप से प्रस्तुत करते हैं। उदाहरणतः छात्र और प्राध्यापक वर्ग के बीच संवाद में विद्वत्ता की कमी, अकर्मण्यता तथा चाटुकारिता की कटु सच्चाई बड़ी तीव्रता से उजागर होती है, जहाँ प्राध्यापक वर्ग की उपेक्षा और बहुलता का मार्मिक चित्रण इस प्रकार होता है— "महाशय, आप बहुत अच्छे हैं लेकिन चुप रहिए... हम महीने की हर पहली तारीख को आपके मुंह में हजार रुपये की गड्डी ठूंस दिया करें..." (पृ. 27) यह संवाद उस सांस्कृतिक और शैक्षणिक उपेक्षा की व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति है, जो विश्वविद्यालयों में विद्यमान नीतिगत और नैतिक पतन की सच्चाई को बखूबी परिलक्षित करता है। काशीनाथ सिंह ने इस उपन्यास के माध्यम से न केवल विश्वविद्यालयीन जीवन की यथार्थवादी छवि खींची है, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों का मार्मिक चित्र भी प्रस्तुत किया है, जो आज भी प्रासंगिक और चिंतनशील बना हुआ है।

            इसके अतिरिक्त, अपना मोर्चा में छात्रों के भीतर व्याप्त उलझन और उद्देश्यहीनता की त्रासदी उपन्यास की केंद्रीय थीम के रूप में गहराई से उभरती है। काशीनाथ सिंह ने इस समस्या को न केवल समाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में, बल्कि व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक संघर्षों की तह तक जाकर संवेदनशीलता के साथ उद्घाटित किया है। उपन्यास में यह संवाद विशेष रूप से इस विडंबना को स्पष्ट करता है— "झुंझलाकर मैं पूछता हूँ कि मित्र! आखिर आप क्यों पढ़ रहे हैं? ...कोई तो बताए कि वे क्यों पढ़ रहे हैं?" (पृ. 29-30) यह प्रश्न केवल एक सतही जिज्ञासा नहीं, बल्कि उस खोखली ‘पढ़ाई’ की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है, जो शिक्षा के औपचारिक ढांचे के भीतर भीतर अपने अर्थ और उद्देश्य को खो चुकी है। यहां ‘पढ़ाई’ की प्रक्रिया न तो ज्ञानार्जन का माध्यम रह गई है और न ही जीवन के लक्ष्य तक पहुंचने का साधन, बल्कि एक अधूरी, निरर्थक और द्विविधा से भरी प्रक्रिया बनकर रह गई है, जो युवाओं के सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में गहरे टकराव और असमंजस को जन्म देती है। इस संदर्भ में उपन्यास युवा मनोविज्ञान का तीव्र और सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जहाँ विद्यार्थी अपने अस्तित्व और उद्देश्य की खोज में स्वयं ही खोए हुए हैं। काशीनाथ सिंह की भाषा शैली इस विषय को अभिव्यक्त करने में अत्यंत प्रभावी है; उसकी सरलता, प्रवाहशीलता और संवादप्रधान स्वरूप सीधे पाठक के हृदय को छू जाता है तथा उसे उपन्यास के यथार्थ से सहज रूप से जोड़ता है।

            अपना मोर्चान केवल सामाजिक यथार्थ की मार्मिक छाया प्रस्तुत करता है, बल्कि भाषा और शैली के माध्यम से भी पाठक को गहरे चिंतन और अनुभूति के क्षितिज पर ले जाता है, जिससे यह कृति हिन्दी साहित्य में अपनी विशिष्टता और समृद्धि का द्योतक बनती है। अपना मोर्चाकेवल छात्र आंदोलन का वृत्तांत नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय में व्याप्त गहन वर्गीय, भाषाई एवं सांस्कृतिक टकरावों का सूक्ष्म प्रतिबिंब भी है। यह उपन्यास सामाजिक और राजनीतिक विमर्श की उन जटिलताओं को उकेरता है, जो केवल एक संस्थान तक सीमित नहीं रहकर पूरे समाज की मनःस्थिति और संघर्षों का दर्पण बन जाती हैं। उपन्यास की एक प्रभावशाली पंक्ति कहती है— "भाषा का अर्थ है जीने की पद्धति, जीने का ढंग। भाषा यानी जनतंत्र की भाषा, जनतांत्रिक अधिकारों की भाषा, आजादी और सुखी जिंदगी के हक की भाषा।" (पृ. 100) यह वाक्य न केवल भाषा की गरिमा और उसकी व्यापक सामाजिक भूमिका को उद्घाटित करता है, बल्कि यह स्पष्ट करता है कि भाषा संवाद का साधन मात्र नहीं, अपितु अस्तित्व की लड़ाई और पहचान की एक निर्णायक धार भी है। उपन्यास में भाषा के माध्यम से सामाजिक असमानता, अधिकारों के संघर्ष और पहचान की जटिलताओं को भावपूर्ण रूप से प्रस्तुत किया गया है।

            सिर्फ विश्वविद्यालयीन राजनीति की ही बात नहीं, बल्कि इस उपन्यास में मध्यवर्गीय जीवन की जटिलताएँ, उसके आंतरिक संघर्ष और आत्म-खोज की पीड़ा भी मार्मिक और प्रामाणिक ढंग से चित्रित की गई है। यह दृष्टि पाठक को केवल अपने निजी अनुभव की सीमाओं से बाहर निकालकर समाज की व्यापक सामूहिक पीड़ा, सामाजिक अन्याय और वर्गीय विभाजनों के प्रति सजग करती है। अपना मोर्चान केवल एक काल्पनिक कथानक है, बल्कि एक व्यापक सामाजिक दस्तावेज है, जो भाषा, वर्ग, राजनीति और संस्कृति के समकालीन संघर्षों को अभिव्यक्त करते हुए हिन्दी साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाता है। अपना मोर्चाकेवल एक काल्पनिक कथा नहीं, अपितु अपने युग की सामाजिक-राजनीतिक जटिलताओं का एक सजीव और सशक्त दस्तावेज है। यह उपन्यास न केवल उस समय की विश्वविद्यालयीन परिस्थितियों और युवा संघर्षों की सूक्ष्म झलक प्रस्तुत करता है, बल्कि पाठकों को अपने परिवेश और व्यवस्था की कठोर वास्तविकताओं का सामना करने के लिए भी जागरूक करता है। काशीनाथ सिंह ने इस कृति के माध्यम से केवल विसंगतियों का उद्घाटन ही नहीं किया, बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने तथा सामाजिक बदलाव के प्रति सशक्त प्रतिबद्धता का निमंत्रण भी दिया है। अपना मोर्चासाहित्य की उस नई परंपरा का प्रतिनिधि है जिसने पारंपरिक कथानक और संरचनाओं को तोड़कर यथार्थ की विविध परतों को उभारने का साहस किया। इस उपन्यास ने विश्वविद्यालयीन जीवन की तमाम विसंगतियों, द्वंद्वों और राजनीति की सजीव प्रस्तुति के साथ हिंदी साहित्य में नवलेखन की एक नवीन दिशा निर्धारित की, जो आज भी अपनी प्रासंगिकता और प्रभावशीलता में अटल बनी हुई है।

            अपना मोर्चान केवल साहित्यिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, बल्कि सामाजिक चेतना और परिवर्तन के संदर्भ में भी यह एक प्रेरक एवं संवादात्मक कृति के रूप में विद्यमान है। निष्कर्षतः, अपना मोर्चा उन दुर्लभ कृतियों में सम्मिलित है जो केवल सामाजिक यथार्थ की छाया प्रस्तुत करने तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि साहित्य के माध्यम से समाज में परिवर्तन की प्रबल ज्वाला भी प्रज्वलित करती हैं। यह उपन्यास अपने यथार्थवादी दृष्टिकोण, गहन सामाजिक आलोचना और समकालीन विसंगतियों के विवेचन के कारण विद्यार्थियों, शिक्षकों तथा समस्त सामाजिक एवं राजनीतिक विमर्श में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए अत्यंत आवश्यक और प्रेरणादायक पठन सामग्री बन जाता है। काशीनाथ सिंह की यह रचना न केवल हिंदी साहित्य की नवलेखन परंपरा को समृद्ध करती है, बल्कि सामाजिक जागरूकता और परिवर्तन की दिशा में भी एक सशक्त प्रेरक के रूप में कार्य करती है। इसलिए अपना मोर्चा को न केवल साहित्यिक दृष्टि से, बल्कि सामाजिक एवं राजनीतिक संदर्भों में भी अत्यंत प्रासंगिक और महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह कृति पाठक को चिंतन, संवाद और सक्रियता के लिए आवाहन करती है, जो वर्तमान युग के लिए नितांत आवश्यक है।

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