उम्मीद की हथेलियाँ (काव्य-संग्रह), रचयिता: बलवेन्द्र सिंह
बिम्ब-प्रतिबिम्ब प्रकाशन, फगवाड़ा (पंजाब), संस्करण: 2023, मूल्य: 300/-, पृष्ठ: 148
बलवेन्द्र सिंह
समकालीन हिंदी साहित्य के ऐसे विशिष्ट कवि, आलोचक और शिक्षाविद् हैं जिन्होंने अपने बहुआयामी साहित्यिक
योगदान से हिंदी साहित्य के परिदृश्य को समृद्ध किया है। वे पारंपरिकता और
आधुनिकता के बीच एक सशक्त सेतु के रूप में कार्य करते हैं, जहाँ उनकी
कविताओं में जीवन के तात्त्विक सवालों के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक यथार्थों की
सूक्ष्म अभिव्यक्ति मिलती है।
आज के युग में
जहाँ भाषा, समाज और संस्कृति निरंतर परिवर्तित हो रही है, बलवेन्द्र सिंह की रचनाएँ उस बदलाव को न केवल प्रतिबिंबित
करती हैं, बल्कि उससे संवाद स्थापित कर नए विमर्शों का सृजन भी करती हैं। उनकी कविता में
लोकजीवन की सहजता और बोलचाल की भाषा का समावेश, समकालीन हिंदी साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने का एक सफल
प्रयास है। इस दृष्टि से वे उस परंपरा के संवाहक हैं जो साहित्य को केवल बौद्धिक
साधन न मानकर आम आदमी के जीवन की संवेदनाओं और आशाओं का दर्पण मानती है।
अनुवाद के
क्षेत्र में उनकी योग्यता ने साहित्य के अंतरराष्ट्रीय और बहुभाषीय आयामों को भी
समृद्ध किया है। पत्रकारिता एवं दूरदर्शन-आकाशवाणी जैसे मंचों पर उनकी सक्रिय
उपस्थिति, उन्हें साहित्य के संवादात्मक और सार्वजनिक पक्ष का प्रतिनिधि बनाती है। वे न
केवल एक रचनाकार हैं, बल्कि साहित्य की बहसों और विमर्शों को आगे बढ़ाने वाले समकालीन विचारक भी
हैं। विशेषकर हिंदी कविता में उनके बिम्ब और भाव की सजीवता, भाषा की
लयात्मकता, और जीवन के विविध अनुभवों का समावेश उन्हें समकालीन साहित्य में एक प्रभावशाली
कवि के रूप में स्थापित करता है। उनकी कविताएँ आमजन के जीवन, उनकी चिंताओं और
खुशियों को भाषा की लहरों पर सजीव करती हैं, जिससे हिंदी कविता का क्षेत्र विस्तृत और समृद्ध होता है।
बलवेन्द्र सिंह
द्वारा रचित काव्य-संग्रह ‘उम्मीद की
हथेलियाँ’ समकालीन हिंदी कविता के क्षेत्र में एक विशिष्ट
और महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति के रूप में उभर कर सामने आता है। यह केवल कविताओं और
ग़ज़लों का संग्रह मात्र नहीं है, बल्कि यह जीवन के विविध सामाजिक, सांस्कृतिक और
मानवीय पक्षों का सूक्ष्म, संवेदनशील एवं प्रभावशाली चित्रण प्रस्तुत करता है, जो पाठक को
अंतर्मन की गहराइयों तक ले जाता है। इस संग्रह में कुल साठ कविताएँ एवं पच्चीस ग़ज़लें सम्मिलित हैं, जो समृद्ध भाषाई
विविधता और संवेदनशीलता के समागम का प्रतिनिधित्व करती हैं। ‘उम्मीद की हथेलियाँ’ की सबसे बड़ी विशेषता इसकी भाषाई समृद्धि और बहुभाषीय सहजता है। कवि ने
पंजाबी, उर्दू एवं अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों को हिंदी भाषा में सलीके से समाहित कर
एक ऐसा साहित्यिक मंच तैयार किया है, जो भाषाई सीमा को पार कर एक व्यापक संवाद स्थापित करता है। यह
संग्रह भाषा की सरलता एवं स्वाभाविकता का उदाहरण है, जहाँ शब्द चयन ऐसा हुआ है कि वे आमजन की बोली और संवेदना के
निकट पहुँचते हैं। देशज एवं लोकजीवन से जुड़े शब्दों का समुचित प्रयोग इसे जन-जन की
भाषा और संस्कृति के साथ जोड़ता है, जिससे कविता न केवल पढ़ी जाती है बल्कि जियी भी जाती है।
काव्य संग्रह ‘उम्मीद की हथेलियाँ’ में जीवन के विविध पहलुओं की गहन संवेदना और
मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है। इस संग्रह की कविताओं में व्यक्तिगत भावनाओं से
लेकर सामाजिक यथार्थों तक, उम्मीद और निराशा के द्वंद्व से लेकर संघर्ष और प्रेम की
अनुभूतियों तक, साथ ही अस्तित्व के गूढ़ प्रश्नों तक को सजीव रूप से उद्घाटित किया गया है। कवि
ने अपनी कविताओं के माध्यम से मानव-जीवन की जटिलताओं और उसके विभिन्न रूपों को
बिम्बात्मक और भावात्मक भाषा में प्रस्तुत किया है। यह संग्रह पाठक को न केवल
मनोवैज्ञानिक परतों में झांकने का अवसर प्रदान करता है, बल्कि समाज और
जीवन के समकालीन मुद्दों पर चिंतन करने हेतु भी प्रेरित करता है। संग्रह की महत्वपूर्ण
कविता ‘भरोसा’ में कवि ने आधुनिक साहित्यिक परिदृश्य तथा अपने लेखन के
प्रति विश्वास को सशक्त रूप से अभिव्यक्त किया है। वे कहते हैं—
“उन्हें उम्मीद है उन कविताओं से
जो हर हफ़्ते-महीने, छठे-छमाहे
छपती हैं पत्र-पत्रिकाओं के
पिछले पन्नों पर।” (पृष्ठ 13)
यह पंक्तियाँ
समकालीन साहित्य की वास्तविकताओं को स्पष्ट करती हैं, जहाँ अनेक
उत्कृष्ट रचनाएँ अक्सर प्रकाशन के पृष्ठों के पीछे छुप जाती हैं या कम ध्यान
आकर्षित कर पाती हैं। इसके बावजूद कवि में अपनी रचनाओं के प्रति अटूट विश्वास और
निरंतरता की भावना विद्यमान है। यह आत्मविश्वास न केवल उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता
का परिचायक है, बल्कि हिंदी कविता की वह उम्मीद भी है जो निरंतरता और धैर्य से पोषित होती है।
यह कविता आधुनिक साहित्य की चुनौतियों— जैसे सीमित पाठक वर्ग, प्रकाशन की
अस्थिरता, और कला के व्यावसायीकरण— के बीच एक आदर्श आत्मबल का सृजन करती है। इस कविता में
कवि यह संदेश देता हैं कि साहित्य की
सच्ची प्रेरणा और उसका मूल्य केवल लोकप्रियता या तत्काल स्वीकृति से नहीं नापा जा
सकता, बल्कि उसकी
सामाजिक और आत्मिक महत्ता समय के साथ प्रकट होती है। इनकी एक अन्य कविता ‘खूबसूरत लोग’ में सामाजिक सौंदर्य और मानवीय गुणों का सूक्ष्म और
प्रभावशाली चित्रण किया गया है। यह कविता न केवल बाह्य रूप की सुंदरता को उद्घाटित
करती है, बल्कि आंतरिक गुणों—सद्भावना, करुणा, और मानवता—की गहन सराहना भी प्रस्तुत करती है। कवि ने अपनी
इस कविता में ‘खूबसूरत लोग’ को एक अविरल बहते झरने के रूप में व्यक्त किया है, जो निरंतर अपनी
सुंदरता और सकारात्मकता को बांटते रहते हैं। यह रूपक न केवल प्रकृति की निर्मलता
और शुद्धता को दर्शाता है, बल्कि उन व्यक्तियों की विशेषता को भी उजागर करता है जो
समाज में प्रेम, सहानुभूति और उदारता की बारिश करते हैं, यथा-
“अविरल बहते झरने बन
बांटते रहते हैं
खूबसूरती।” (पृष्ठ 21)
यह पंक्तियाँ
मानवीय रिश्तों की निरंतरता और दयालुता की निरंतर बहाव की ओर संकेत करती हैं। यह
कविता आज के सामाजिक संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है, जहाँ अक्सर बाहरी
दिखावे को महत्व दिया जाता है, वहीं कवि के इस सृजन में आंतरिक सुंदरता की महत्ता को उच्च
स्थान दिया गया है। कविता की यह अभिव्यक्ति मानवीय सौंदर्य के सार्वभौमिक आयामों
को उद्घाटित करते हुए पाठक के हृदय में करुणा, सम्मान और आशा के भावों को जागृत करती है। यह कविता इस बात
का संकेत है कि सच्ची खूबसूरती वह है जो निरंतर बहती रहे, बाँटती रहे और
समाज को मानवता के उज्ज्वल पहलुओं से समृद्ध करती रहे।
संग्रह की एक अन्य
कविता ‘कविता के किवाड़’ में कविता के अस्तित्व और उसकी सार्वभौमिकता पर एक गहन एवं
मार्मिक चिंतन प्रस्तुत किया गया है। इस कविता की पंक्ति— “बेहतर कविता/कहीं भी हो सकती है देर या सबेर।”
(पृष्ठ 50) —समय और स्थान की पारंपरिक सीमाओं से परे कविता की प्रकृति और उसके महत्व को
स्पष्ट करती है। यह सरल, किन्तु प्रभावशाली पंक्ति यह संदेश देती है कि कविता का सृजन और उसकी गुणवत्ता
किसी विशिष्ट समय या स्थल से बंधी नहीं होती। कविता का मूल्य और उसकी प्रभावशीलता
उसके जन्म के क्षण या उस स्थान पर निर्भर नहीं करती, बल्कि वह अपनी सांस्कृतिक, भावनात्मक और बौद्धिक गहराई के कारण सार्वभौमिक बन जाती है।
कवि यहाँ यह मान्यता प्रस्तुत करते हैं कि श्रेष्ठ काव्य कहीं भी, कभी भी उत्पन्न
हो सकता है— यह अनिश्चित काल और विविध संदर्भों में जीवन की अभिव्यक्ति का माध्यम
बन सकता है। इस विचार में समय के सापेक्ष साहित्य की महत्त्व का अद्भुत विमर्श
छिपा है। कभी-कभी श्रेष्ठ काव्य को पहचानने या उसके प्रभाव को महसूस करने में समय
लग जाता है; हो सकता है वह तत्काल नहीं समझा जाए, परंतु उसका प्रभाव धीरे-धीरे और गहराई से स्थायी रूप लेता
है। इसी संदर्भ में यह पंक्ति कविता के स्थायित्व और उसकी अमरता की ओर संकेत करती
है। साथ ही, यह कविता साहित्य के उस अमूर्त स्वरूप को उद्घाटित करती है जो सीमा-बंधनों को
तोड़कर मानव-चेतना के विभिन्न स्तरों से जुड़ती है। कवि की यह अभिव्यक्ति साहित्य
और कला की सार्वभौमिकता पर भरोसे की स्थापना करती है, जो यह मानती है
कि उत्कृष्ट रचना का जन्म कहीं भी हो सकता है, और वह अपने पाठकों तक पहुँचकर उन्हें छू भी सकती है—चाहे वह
तत्काल हो या कुछ विलंब के बाद।
एक अन्य कविता ‘एक ही जीवन में’ की यह पंक्तियाँ— “कहते-कहते बिसर गई बात-सा/कहाँ है जीवन!”
(पृष्ठ 87) — जीवन की क्षणभंगुरता और उसकी गुमनामी की गहरी अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं।
यह गूढ़ पंक्तियाँ मानवीय अस्तित्व के उस अमूर्त पहलू को उद्घाटित करती हैं जहाँ
जीवन स्वयं एक रहस्य बन जाता है, जिसकी व्याख्या करते-करते वह धुंधली पड़ जाती है। कवि ने
यहाँ जीवन के अस्थिर और क्षणभंगुर स्वरूप को इस तरह प्रस्तुत किया है कि वह एक ऐसी
बात के समान हो जाती है जो बार-बार कही जाती है, लेकिन कहीं खो जाती है, जिसका कोई ठोस स्वरूप न बन पाता हो। इस प्रकार की
अभिव्यक्ति में जीवन की तात्कालिकता और उसकी अनिश्चितता के साथ-साथ एक गहरी
व्याकुलता भी व्याप्त है। यह कविता हमें स्मरण कराती है कि हमारा अस्तित्व लगातार
परिवर्तनशील है, और उसकी पकड़ हमसे अक्सर छूट जाती है। यह पंक्तियाँ जीवन के उस क्षण को
प्रतिबिंबित करती हैं जहाँ हमारे अनुभव, हमारी बातें, हमारी यादें सब कुछ पारदर्शी होकर एक धुंधली परत की भांति
बिखर जाती हैं। कवि ने इस अभिव्यक्ति के माध्यम से आधुनिक जीवन की उस जटिलता और
अस्तित्वगत भ्रम को उद्घाटित किया है जो व्यक्ति को स्वयं के अस्तित्व और जीवन के
उद्देश्य के प्रति संशय में डाल देता है। जीवन की इस क्षणभंगुरता और रहस्यमयता के
बीच इंसान अपने अस्तित्व की खोज में खो जाता है।
संग्रह की कविता ‘तुमने मेरा गीत चुराया’ प्रेम और विश्वास की उस सूक्ष्म व्यथा को गहराई से
अभिव्यक्त करती है, जो अक्सर मानवीय संबंधों में टूटन और आघात के क्षणों में जन्म लेती है। इस
कविता की पंक्तियाँ— “तुम्हीं कहो-/अब किस कोने में/आस और विश्वास जगाऊँ!” (पृष्ठ 112)— प्रेम के टूटने
के बाद उत्पन्न निराशा, अकेलेपन और विश्वास के संकट को मार्मिक रूप में उद्घाटित करती हैं। यहाँ कवि
ने ‘तुमने मेरा गीत
चुराया’ के माध्यम से प्रेम की वह संवेदना प्रस्तुत की है जो न केवल सौंदर्य और स्नेह
से ओतप्रोत होती है, बल्कि उसमें विश्वास और आशा की भी गहरी अनुभूति सम्मिलित होती है। किंतु जब यह
विश्वास टूट जाता है, तो मन में उपजे खालीपन और हृदय की उलझन को कवि ने बड़े ही प्रभावी और
संक्षिप्त शब्दों में प्रस्तुत किया है। “अब किस कोने में आस और विश्वास जगाऊँ!” यह प्रश्न न केवल
व्यक्तिगत पीड़ा का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि यह मानवीय मन के उस भ्रम और अनिश्चितता को भी दर्शाता
है, जब टूटे हुए
संबंधों के बाद व्यक्ति पुनः आशा और विश्वास के नए आधार खोजने की आकांक्षा में
होता है, लेकिन कहीं भी ठहराव या सहारा न मिल पाने का अनुभव करता है। यह एक आत्मिक
पुकार है, जो अपने आप से ही प्रश्न करती है कि पुनः विश्वास की ज्योति कहाँ प्रज्वलित की
जाए। यह कविता प्रेम के टूटने के बाद की मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक उलझनों को सजीव
करती है, जहाँ प्रेम केवल आनंद का स्रोत नहीं, बल्कि जीवन के अस्तित्व का एक आधार भी होता है। जब यह आधार
खो जाता है, तब व्यक्ति अपने जीवन के समूचे अर्थ पर पुनर्विचार करता है।
बलवेन्द्र सिंह
की पंक्तियाँ— “तुमसे कुछ इंसान की ख़ुशबू भी आनी चाहिए/आदमी का आदमी-सा दीखना काफ़ी नहीं।” (पृष्ठ 124) — मानवता के उस
गहनतम पहलू को उद्घाटित करती हैं जो केवल बाहरी रूप-रंग या दिखावे से परे है। यहाँ
कवि ने एक अत्यंत संवेदनशील और सारगर्भित विचार प्रस्तुत किया है कि केवल शारीरिक
या सामाजिक उपस्थिति में इंसानियत झलकाना पर्याप्त नहीं, बल्कि उसमें वह
आत्मिक और नैतिक ‘खुशबू’ होनी चाहिए जो उसके स्वभाव, चरित्र और व्यवहार से महकती हो। ‘इंसान की ख़ुशबू’ का प्रतीकात्मक प्रयोग जीवन की उस अंतर्निहित सजगता और
सहानुभूति की ओर संकेत करता है जो एक व्यक्ति को वास्तव में ‘मनुष्य’ बनाती है। यह पंक्ति उस सामाजिक और दार्शनिक यथार्थ को
रेखांकित करती है जहाँ बहिर्मुखी रूप-रंग मात्र सतही पहचान होती है, और असली पहचान तो
उसके भीतर के गुणों—दयालुता, सहिष्णुता, प्रेम, और नैतिकता—से स्थापित होती है। कवि यहां उस घातक सामाजिक
प्रवृत्ति की आलोचना करता है जो इंसान को केवल बाहरी आडम्बर और दिखावे तक सीमित कर
देती है। वास्तव में, व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह अपने आचरण और अंतर्मन से मानवता की गंध फैलाए, जो समाज और अन्य
व्यक्तियों के प्रति उसकी सहानुभूति और करुणा का परिचायक हो। यह कविता न केवल मानवीय गुणों की गहराई को
उद्घाटित करती है, बल्कि सामाजिक-नैतिक जागरूकता का भी आह्वान करती है। यह हमें सोचने पर मजबूर
करती है कि हम किस हद तक वास्तविक मानवता को अपनाते हैं और उसे अपने जीवन और
व्यवहार में उतार पाते हैं।
बलवेन्द्र सिंह
की ग़ज़ल की पंक्तियाँ— “आँखों में है खारा सागर, सीने में तूफ़ान कई/होठों पर देखा जब हमने ताले यार हजार मिले।” (पृष्ठ 130) —जीवन की जटिलताओं
और मानवीय संवेदनाओं की सूक्ष्म व्यथा को अभिव्यक्त करती हैं। यहाँ कवि ने समकालीन
अस्तित्व की गहराईयों को अत्यंत प्रभावशाली और मार्मिक भाषा में प्रस्तुत किया है, जो पाठक के हृदय
को छू जाती है। ‘आँखों में है खारा सागर’— यह रूपक आँखों में समाई उस कड़वाहट और वेदना को दर्शाता
है जो जीवन के अनुभवों से उत्पन्न होती है। खारे पानी का सागर प्रतीकात्मक रूप से
व्यथा, पीड़ा और अशांत
मन की स्थिति को प्रस्तुत करता है, जो बाहरी दुनिया के कड़वे सच से उपजी है। ‘सीने में तूफ़ान कई’— यहाँ कवि ने अंदरूनी भावनात्मक संघर्ष और
मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल का जीवंत चित्रण किया है। यह तूफ़ान केवल मानसिक उलझनों का
प्रतिनिधि नहीं, बल्कि जीवन की अनिश्चितताओं, विफलताओं और संघर्षों का भी प्रतीक है। परंतु, इस वेदना के बीच ‘होठों पर देखा जब हमने ताले यार हजार मिले’ की पंक्तियाँ एक गहरे आंतरिक द्वंद्व को
उद्घाटित करती हैं। यहाँ ‘ताले’ का प्रयोग प्रतीकात्मक है, जो प्रेम, संवाद और स्नेह
के अवरुद्ध मार्गों को दर्शाता है। यह भाव प्रकट करता है कि कितने ही प्रयासों और
संवेदनाओं के बावजूद, जीवन के संबंधों में बंदिशें, बाधाएँ और अनसुलझे रहस्य मौजूद हैं, जो मनुष्य को
अपनी अभिव्यक्ति से रोकते हैं। यह पंक्तियाँ संवेदनशीलता और जीवन की जटिलताओं के
बीच के द्वंद्व को दर्शाती हैं— जहाँ मन भीतर से संघर्षरत और असमंजस में होता है, लेकिन बाहर के
संसार से जुड़ने के द्वार बन्द पाये जाते हैं। इस द्वंद्व का चित्रण कवि ने
सूक्ष्म प्रतीकों के माध्यम से किया है, जो समकालीन सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन की वास्तविकताओं से
सीधे जुड़ा हुआ है।
बलवेन्द्र सिंह
की ग़ज़लों में जीवन की कड़वाहट और छल-फरेब की भावभूमि को सजीव और प्रभावशाली ढंग
से प्रस्तुत किया गया है। विशेष रूप से इन पंक्तियों— “कर तो आए हैं उससे वादा-सा।/ओढ़ कर झूठ का
लबादा-सा॥” (पृष्ठ 134) — में जीवन की उन झूठी उम्मीदों और धोखे की विडंबना स्पष्ट
झलकती है, जो अक्सर मानवीय संबंधों और सामाजिक जीवन में व्याप्त होती हैं। यहाँ कवि ने ‘वादा-सा’ शब्द के माध्यम से उस अप्रत्यक्ष और संदिग्ध वादे की ओर
संकेत किया है, जो शायद कभी पूरा न हो पाने वाला हो या जिसका अर्थ और उद्देश्य अस्पष्ट हो। यह
वादा मात्र सतही होता है, जो गहरे भाव या सच्चाई से रिक्त रहता है। इसके बाद ‘झूठ का लबादा-सा’ की छवि ने यह दर्शाया है कि यह वादा केवल एक छलावे का आवरण
है, जिसके पीछे
वास्तविकता की कठोरता और विश्वासघात छिपा हुआ है। कवि ने इस छवि के द्वारा जीवन के
उस पक्ष को उजागर किया है जहाँ लोग बहुधा दिखावे और छल-कपट में उलझ जाते हैं। ऐसे
वादे जो केवल भ्रामक होते हैं, इंसानी संबंधों में विश्वास को चोट पहुँचाते हैं और मन में
निराशा और वेदना उत्पन्न करते हैं। ‘ओढ़ कर झूठ का लबादा-सा’ का प्रयोग इस छल-फरेब को एक भारी, बोझिल वस्त्र की
तरह प्रस्तुत करता है जिसे इंसान अपने ऊपर ढक लेता है, जिससे उसकी
वास्तविकता छुप जाती है और वह एक नकली आवरण में स्वयं को प्रस्तुत करता है। यह
पंक्तियाँ जीवन की कड़वी सच्चाई से पर्दा उठाती हैं और उस सामाजिक यथार्थ की
पड़ताल करती हैं जहाँ भरोसे की जगह धोखे ने ले ली हो। इस छद्मवेश के बीच मानव मन
की पीड़ा और असहायता झलकती है, जो समकालीन साहित्य में अत्यंत प्रासंगिक विषय है। बलवेन्द्र सिंह
की यह ग़ज़ल पाठक को सोचने पर विवश करती है कि कैसे जीवन के संबंधों में
पारदर्शिता, ईमानदारी और सच्चाई की आवश्यकता है, अन्यथा वे केवल धोखे और छल-फरेब के आवरण में छिपकर इंसान को
एकांत और व्यथा की ओर धकेल देते हैं।
बलवेन्द्र सिंह
की पंक्तियाँ— “मन की बातों में उलझी पड़ीं जन की बातें हैं/दिल्लगी हो चली दिल्ली की शान ही कहिए।” (पृष्ठ
136) —समकालीन सामाजिक
और राजनीतिक विमर्श की गहराई को सशक्त और सारगर्भित रूप में उद्घाटित करती हैं।
यहां कवि ने न केवल आम जनमानस की मनोस्थिति को उजागर किया है, बल्कि देश की
राजधानी दिल्ली के राजनीतिक और सांस्कृतिक पतन की व्यंग्यात्मक छवि भी प्रस्तुत की
है। ‘मन की बातों में उलझी पड़ीं जन की बातें हैं’ पंक्ति में जनता के विचारों और उनकी आशंकाओं, चिंताओं तथा
असमंजस की स्थिति का चित्रण है। जन-मानस आज विभिन्न जटिल सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों
में उलझा हुआ है, जहाँ उनकी आवाजें अस्पष्ट और बिखरी हुई प्रतीत होती हैं। यहाँ ‘दिल्लगी’ का आशय मनोरंजन, विहार या तामझाम से है, जो गंभीर राजनीतिक और सामाजिक संकट के बीच चल रही सतही
गतिविधियों को दर्शाता है। कवि की यह अभिव्यक्ति समकालीन भारत के राजनीतिक और
सामाजिक यथार्थ पर तीखा कटाक्ष है, जो सत्ता और समाज के बीच की दूरी, जनता की
असंतुष्टि और सत्ता के प्रदर्शनवाद को उजागर करती है।
“और क्या है
देश-दुनिया की हक़ीक़त बोलिए/रूह पथराई हुई जीवन है बोझिल-सा पड़ा।” (पृष्ठ 142) —पंक्तियाँ
समकालीन यथार्थ की कटुता और जीवन के बोझिल
अनुभवों को बखूबी प्रतिबिंबित करती हैं। यहाँ कवि ने देश-दुनिया की वास्तविकताओं
को सीधे और व्यथा पूर्ण शब्दों में प्रस्तुत करते हुए उस व्याकुलता को उजागर किया
है जो आज के मानव जीवन को गहराई से प्रभावित करती है। ‘देश-दुनिया की हक़ीक़त’ से कवि उस व्यापक सामाजिक, राजनीतिक और
आर्थिक परिदृश्य की बात कर रहे हैं जिसमें हम रह रहे हैं— जहाँ अराजकता, असमानता, भ्रष्टाचार, संघर्ष, और निराशा के
ताने-बाने इतने गहरे बुने हुए हैं कि वे हर व्यक्ति की ‘रूह’ को ‘पथराई’ कर देते हैं। यह ‘पथराई हुई रूह’ केवल शारीरिक थकान या मानसिक तनाव का संकेत नहीं, बल्कि उस
भावनात्मक सूखापन और आध्यात्मिक व्याकुलता का सूचक है, जो जीवन को
निराशाजनक, बोझिल और अनंत संघर्ष में बदल देती है। यह पंक्तियाँ वर्तमान युग की
विसंगतियों और मानवीय पीड़ा का ऐसा चित्र प्रस्तुत करती हैं जो पाठक को अंदर तक
झकझोर देता है। बलवेन्द्र सिंह की यह अभिव्यक्ति समाज के भीतर व्याप्त कठिनाइयों
और मनुष्य की मानसिक दंश की विस्मयकारी पहचान है। साथ ही यह हमें यह सोचने पर भी
मजबूर करती है कि इन यथार्थों से कैसे उबरना है, ताकि जीवन की ‘रूह’ पुनः जीवंत और मुक्त हो सके।
समाज की विडंबना
यह है कि यहाँ प्रतिभा और परिश्रम से कहीं अधिक महत्त्व चापलूसी और चरण-वंदना को
दिया जाता है। लेखक ने अपने दो पंक्तियों के व्यंग्य में इस सच्चाई को बड़ी चुटीली
भाषा में उकेरा है—
“सुना है—शहर में ललुए बहुत हैं,
कि उनके चाटते तलुए बहुत हैं।” (पृष्ठ 143)
यह कथन मात्र
शब्दों का खेल नहीं, बल्कि समाज की गहरी बीमारी पर किया गया करारा प्रहार है। ‘ललुए’ उन लोगों का
प्रतीक हैं, जो अपनी स्थिति, प्रतिष्ठा और शक्ति का प्रदर्शन करते हुए स्वयं को केंद्र में स्थापित कर लेते
हैं। किंतु उनकी वास्तविक ताक़त उनके व्यक्तित्व या कार्यों में नहीं, बल्कि उन ‘तलुए चाटने वालों”’ की भीड़ में छिपी होती है, जो बिना सोच-विचार के हर आदेश पर सिर झुका देते हैं। यह
व्यंग्य एक आईना है, जिसमें आज का सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य साफ़ दिखाई देता है। हर नगर, हर संस्था, यहाँ तक कि
परिवारों तक में ऐसे ‘ललुए’ और उनके ‘अनुगामी’ मिल जाते हैं, जिनकी पहचान
चापलूसी की अतिशयता से होती है। इस कटाक्ष में छिपा संदेश यही है कि जिस समाज में
निष्ठा और ईमानदारी की बजाय चरण-वंदना का बोलबाला हो, वहाँ सच्चे
परिश्रमी और ईमानदार लोग उपेक्षित रह जाते हैं। लेखक का यह व्यंग्यात्मक तंज हमें
सोचने पर विवश करता है कि क्या हमारी सामाजिक संरचना वास्तव में स्वतंत्र है, या फिर वह
चापलूसों की भीड़ और सत्ता-लोलुपों की कृत्रिम छवि पर ही टिकी हुई है।
बलवेन्द्र सिंह
की भाषा का सबसे बड़ा आकर्षण उसकी शुद्धता और सहजता है। उनकी कविताओं में जहाँ एक
ओर व्याकरणिक अनुशासन की कसौटी पर खरे उतरने की क्षमता है, वहीं दूसरी ओर
बोलचाल और देशज शब्दों की सहजता से उपजी आत्मीयता भी विद्यमान है। यही कारण है कि
उनका काव्य न तो पारंपरिक गाम्भीर्य से बोझिल प्रतीत होता है और न ही आधुनिकता की
अंधी दौड़ में कृत्रिम। बल्कि, उनकी शैली एक ऐसा संतुलन रचती है, जिसमें परंपरा की
जड़ों की गहराई और आधुनिक दृष्टि की व्यापकता एक साथ विद्यमान है। उनकी कविताएँ
जीवन की जटिलताओं को इतने सरल और बोधगम्य ढंग से प्रस्तुत करती हैं कि पाठक को
लगता है मानो कवि सीधे उसी से संवाद कर रहा हो। यह सीधा संवाद ही उनकी काव्य-भाषा
की आत्मा है। वे जीवन की उलझनों को किसी दुरूह या अमूर्त प्रतीकों में नहीं बाँधते, बल्कि उन्हें सहज
चित्रण और संवेदनशील अभिव्यक्ति में ढालते हैं, जिससे सामान्य पाठक भी कवि के अनुभवों और संवेदनाओं से जुड़
सके। ‘उम्मीद की
हथेलियाँ’ उनका ऐसा काव्य-संग्रह है, जो विविधता, भाषाई समृद्धि और गहन सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण के कारण
अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। यह संग्रह केवल कवि की निजी अनुभूतियों का दर्पण
नहीं है, बल्कि हमारे समकालीन भारतीय समाज की विडंबनाओं, संघर्षों और आकांक्षाओं का भी सशक्त प्रतिबिंब है। कवि ने
जीवन की कठोर सच्चाइयों को बिना किसी भय या आडंबर के उद्घाटित किया है, और यही निडरता
उनके काव्य की सबसे बड़ी शक्ति है। इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह
हमें जीवन की कठिनाइयों और अंधेरों में भी एक छोटी-सी लेकिन अटूट उम्मीद की रोशनी
देखने की प्रेरणा देता है। कवि की संवेदनशील दृष्टि पाठक को यह विश्वास दिलाती है
कि चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विषम क्यों न हों, मनुष्य की हथेलियों पर लिखी उम्मीदें कभी समाप्त नहीं
होतीं। हिंदी कविता के आधुनिक परिदृश्य में ‘उम्मीद की
हथेलियाँ"’ एक नई ऊर्जा, नई सोच और गहरी मानवीय संवेदना लेकर आती है। यह संग्रह न केवल साहित्यिक
दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि जीवन-दृष्टि के स्तर पर भी पाठक को दिशा प्रदान करता
है।
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