युवा संपादक और भावुक संवेदनशील कवि डॉ. बृजेंद्र अग्निहोत्री ने साहित्यिक पत्रिका ‘मधुराक्षर’ के माध्यम से देखते ही देखते अपनी स्थायी और अग्रणी पहचान बना ली है। कवि भावुक होता है और संपादक निर्मम। दोनों का सामंजस्य बैठा लेना, और अपने कवि-हृदय को साथ लिए संपादन की कला साध लेना अत्यन्त कठिन है। कठिन तो है, किंतु मुश्किल नहीं है। कला लीक से हटकर निरंतर मौलिक करते रहने का ही दूसरा नाम है।
साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन अत्यन्त जटिल श्रमसाध्य, निष्पक्ष, निर्मम एवं समर्पित रचनात्मकता का जुनूनी कार्य माना जाता है। संपादन में कवि का हृदय बाधक होता है और आलोचक का मस्तिष्क सहायक। अतीत और परम्परा का समग्र ज्ञान वर्तमान की सटीक समझ और भविष्य-दृष्टि अनिवार्य तत्व हैं। साहित्य के इतिहास का सूक्ष्म एवं वैज्ञानिक समझ के बिना सम्पादन कार्य अत्यंत दुरूह और हास्यास्पद बन जाता है। संपादन कला एक समग्र विज्ञान है और सशक्त शास्त्र भी। यह ‘तलवार की धार पर दौड़ने‘ जैसा है। शायद इसीलिए प्रतिवर्ष तमाम पत्र-पत्रिकायें सर्वसाधन सम्पन्न होते हुए भी असमय काल कवलित हो अपरिचय के अंधकार में समा जाती हैं। युवा होते हुए भी डॉ. बृजेंद्र अग्निहोत्री ने इस चुनौती को स्वीकार कर और भारी खतरा उठाकर ‘मधुराक्षर’ के साथ हिंदी पत्रिकारिता जगत में पदार्पण किया। जुलाई, 2008 के प्रवेशांक से लेकर अभी तक इसके कुल 39 अंक अबाध रूप से प्रकाशित होकर हिंदी साहित्य जगत का ध्यान आकृष्ट करते हैं। यह पत्रकारिता के क्षेत्र में साधारण उपलब्धि नहीं है। बहुतों की यह आशंका स्वाभाविक थी कि बिना किसी अस्थायी संसाधन के एक बेरोजगार युवा द्वारा उठाया गया यह कदम आत्मघाती होगा, किंतु लगातार नौ वर्षों तक साहित्यिक पत्रिका का लगातार संपादन करते हुए उसे प्रतिस्प़र्द्धी पत्रकारिता जगत में नई ऊँचाई तक पहुंचाने का कमाल बहुतों को सोचने पर मजबूर करता है। युवा कवि प्रेमनंदन ने स्वीकार किया- ‘‘लेकिन मधुराक्षर के दो-तीन अंक निकलने के बाद मेरी धारणा बदल गयी और मुझे मधुराक्षर में एक गंभीर, स्तरीय एवं गरिमामय भविष्य की झलक देखने को मिली। मेहनत, लगन और ईमानदारी से यह अपनी अलग पहचान बनाने में सफल हो गयी।’ निरंतरता के कारण ही इसका पाठक वर्ग उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। पाठकों एवं विद्वानों ने इसे हाथों-हाथ लिया, तमाम पत्र इसके साक्षी हैं। सुसाहित्य पुस्तकालय, अमरावती के प्रबंधक ने लिखा है- ‘‘हमारी लाईब्रेरी में पाठकों के मध्य मधुराक्षर को लेकर अक्सर खींचतान देखने को मिलती है।’’ इसी प्रकार सर्वहितैषी पुस्तकालय, नालन्दा के अध्यक्ष ने भी लिखा- ‘‘यहां लोग मधुराक्षर नियमित पढ़ना चाहते हैं।’’ छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश के गोवर्धन यादव लिखते हैं- ‘‘आपका प्रकाशित छायाचित्र देखकर लगता है कि काफी कम उम्र में इतना बड़ा दायित्व उठा रखा है।’’ संत चन्ददास शोध संस्थान के निदेशक डॉ. चंद्रकुमार पाण्डेय युवा कवि डॉ. बृजेंद्र अग्निहोत्री में ‘होनवार बिरवान के होत चीकने पात’ के सभी गुण देख कर काफी आश्वस्त हैं।
मैं इनके जन्मकाल से ही अत्यन्त गहराई से जुड़ा हुआ हूँ, और यह देखकर आश्चर्यचकित हूँ कि बृजेंद्र अग्निहोत्री कठिन मेहनत, समर्पण तथा वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ निरंतर संपादन दक्षता हासिल करते गये हैं। यही कारण है कि युवा पाठकों के साथ प्रतिष्ठित साहित्यकार और विद्वानों ने इन्हें गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है। अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध कवि समालोचक श्री श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी ने बेझिझक स्वीकार किया है- ‘‘सुरुचिपूर्ण, संतुलित सामग्री, सामयिकता के प्रति सजग दृष्टि तथा राष्ट्रव्यापी स्वीकृति इसकी विशेषतायें हैं, आपका संपादीय विचारोत्तेजक होता है।‘‘ जूनागढ़ उड़ीसा के माणिचन्द अग्रवाल ने लिखा- ‘‘बड़ी साफ-सुथरी पठनीय पत्रिका है। ‘अपनी बात’ पर गहराई से चिंतन समाज का एक खेमा जरूर करता होगा, और यही खेमा क्रांति लायेगा।’’ वस्तुतः डॉ. बृजेंद्र अग्निहोत्री अपने संपादकीय पृष्ठ ‘अपनी बात’ में समाज राष्ट्र के ज्वलंत मुद्दे उठाकर उसे आम पाठकों के बीच बहस का मुद्दा बनाते हैं, जिससे आज का बौद्धिक वर्ग- खासकर युवा वर्ग इसे अपनी विचारधारा का प्रतिनिधित्व मानकर जुड़ता चला जाता है। सागर के डॉ. अनिल कुमार जैन स्वीकार करते हैं- ‘‘अपनी बात पढ़कर लगा, आपमें जोश के साथ-साथ आक्रोश भी है, इस चिंगारी को शोला बनने दीजिये।‘‘ मेरठ के डॉ. सुधाकर आशावादी ने भी युवा संपादक के विद्रोही तेवर को सलाम करते हुए इसे देश के आकांक्षी युवा वर्ग से जोड़ा है। वाराणसी के केशव शरण ने ‘संवेदनशील संपादीय‘ की सराहना की है। रेवाड़ी, हरियाणा के विकास अरोड़ा ने इसे ‘नवसर्जकों का सशक्त मंच‘ कहा है। उल्लेखनीय है कि डॉ. बृजेंद्र अग्निहोत्री प्राथमिकता के आधार पर युवा पीढ़ी को ही मंच प्रदान नहीं करते, अपितु उनका पथ-प्रदर्शन करने हेतु हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकारों को भी ससम्मान प्रकाशित करते हैं। वरिष्ठ आलोचक डॉ. ओउमप्रकाश अवस्थी की टिप्पणी महत्वपूर्ण है- ‘‘पत्रिका अपना विस्तार देशकाल में तो कर ही रही है, साथ ही इसका प्रत्येक अंक किसी न किसी संदर्भ में पिछले अंक से उच्चतर रहा है। साज-सज्जा का सौन्दर्य नये-नये लेखकों, कवियों का लेखन-लालित्य और कुछ विशेष संदर्भों पर विशेष परिशिष्ट आपकी संपादन कला को और लेखकीय संबंधों की जुड़न को प्रकट करते हैं। पत्रिका का संपादकीय ‘अपनी बात‘ सामाजिक समस्याओं के निदान रूप में निर्भीकता के साथ अभिव्यक्त होता है। आपकी पत्रिका एक व्यापक विस्तार दे रही है। विभिन्न स्थानों के लेखकों को यहां के कलमजीवियों से जोड़ रही है। यह जोड़-गाँठ भी आपकी बड़ी उपलब्धि है।’’
‘सामाजिक, साहित्यिक व सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की पत्रिका‘ के घोषित संकल्प-वाक्य वाली ‘मधुराक्षर’ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता पर खरी उतरती है। संपादक प्रकाशित रचनाओं में सैद्धांतिक फिसलन से बचता है, जो एक सहृदय भावुक कवि के लिए तमाम संबंधों को न निभा पाने की असफलता को सैद्धांतिक मजबूती प्रदान करता है। वस्तुतः डॉ. बृजेंद्र अग्निहोत्री अपने संपादकीय विवेक पर अपने भावुक कवि को बिल्कुल हावी नहीं होने देते। संयमित, संश्लिष्ट, सारगर्भित, समाज सापेक्ष चिंताओं से सराबोर संपादकीय इसका ज्वलंत गवाह है। मितभाषिता कथन को अत्यन्त धारदार बनाती है। सोच समसामयिक, प्रगतिशील और मौलिक है। लीक से हटकर कुछ नया करने का जज्बा और अनुभवी वरिष्ठ रचनाकारों से निरंतर संवाद करते रहकर योजनाएं बनाना, इनकी अतिरिक्त विनम्रता को प्रतिबिंबित करता है। यही कारण है कि मधुराक्षर के ‘नागार्जुन विशेषांक’ और ‘प्रथम रचना- विशेषांक’ को काफी ख्याति मिली। तमाम युवा पाठक और सर्जक डॉ. बृजेंद्र अग्निहोत्री में अपना अक्स देखते हैं। युवा कवि डॉ. शैलेश गुप्त ‘वीर’ ने मधुराक्षर को ‘दम तोड़ते साहित्य के लिए लाभकारी घुट्टी’ माना है। डॉ. बृजेंद्र अग्निहोत्री के कुशल संपादन में ‘मधुराक्षर’ ने जितनी अल्पावधि में प्रतिष्ठा अर्जित की है, स्तुत्य एवं अनुकरणीय है। युवा संपादक का यह अनुष्ठान निश्चय ही मिशन पत्रकारिता का श्रेष्ठ उदाहरण है। अनेक सर्वसाधन संपन्न साहित्यिक पत्रिकाओं को प्रायः असमय ही विलुप्त होते देखा गया है, क्योंकि उनमें सिद्धांत, समर्पण और सााहस का घोर अभाव होता है, साथ ही धनार्जन और यशार्जन का लोभ भी होता है। ‘मधुराक्षर’ की संपादकीय नीति और नियति से ऐसा कदापि ध्वनित नहीं होता। गद्य-पद्य की सभी लोकप्रिय विधाओं से रचनाओं के चयन का विवेक तरुण संपादक की प्रौढ़ता को प्रतिबिंबित करता है। ‘मधुराक्षर’ के साथ तमाम स्थापित और नवोदित रचनाधर्मियों तथा पाठकों का बढ़ता कारवाँ देखकर अनेक नामी-गिरामी संपादकों को ईर्ष्या हो सकती है, किंतु मिशन पत्रकारिता को समर्पित जुझारू युवा समाजसेवी के मजबूत रथ को ईर्ष्या से नहीं; कठिन परिश्रम, वैचारिक प्रतिबद्धता और एकनिष्ठ समर्पण से ही रोका जा सकता है। ऐसी आशा नहीं, अपितु पूर्ण विश्वास है कि अंतर्जाल में अपने नए स्वरूप के साथ ‘मधुराक्षर’ साहित्य-समाज के वैश्विक परिदृश्य पर एक नयी पहचान स्थापित करेगी।
-डॉ. बालकृष्ण पाण्डेय, वरिष्ठ समालोचक और कथा-सर्जक
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