'कथाशिल्पी प्रेमचंद': प्रेमचंद
की रचनाओं का पुनर्पाठ
प्रकाशक: कलमकार पब्लिशर्स प्रा. लि. दिल्ली, संस्करण : 2025, मूल्य: 350 रुपये
प्रेमचंद— एक ऐसा नाम, जो हिंदी साहित्य की चेतना में केवल गूंजता ही नहीं,
अपितु उसकी आत्मा में धड़कता है। जैसे ही इस नाम का उच्चारण
होता है,
यथार्थ का ताप, करुणा की कोमलता और सामाजिक चेतना की तीव्रता मानो एक साथ सजीव
हो उठती है। उनके साहित्यिक अवदान की गहराइयों में उतरना मात्र एक लेखक की रचनाओं को
पढ़ना नहीं है, बल्कि
भारतीय समाज के बहुवर्णीय यथार्थ को अनुभव करना है। प्रेमचंद को समझना महज साहित्य
का अध्ययन नहीं, बल्कि
एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा है—ऐसी यात्रा जो उनके पात्रों,
स्थितियों और मूल्यों के माध्यम से जीवन की जटिलताओं को आत्मसात
करने की दृष्टि प्रदान करती है। प्रेमचंद की रचनात्मक दृष्टि को समग्रता में ग्रहण
करने के लिए जितनी अंतर्दृष्टि अपेक्षित है, उतना ही एक समन्वित आलोचनात्मक दृष्टिकोण भी अनिवार्य है। इसी
बोध और आवश्यकता की पूर्ति करती है डॉ. राकेश प्रेम (राकेश मेहरा) की आलोचनात्मक कृति
‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’, जो न केवल प्रेमचंद की साहित्यिक रचनाशीलता का सटीक और संतुलित मूल्यांकन प्रस्तुत
करती है,
बल्कि उनके बहुविध व्यक्तित्व,
विचारधारा, और साहित्यिक प्रेरणाओं को भी एक सुसंगठित परिप्रेक्ष्य में
समाहित करती है। यह पुस्तक प्रेमचंद के साहित्य को न केवल विषयवस्तु के स्तर पर समझने
का मार्ग प्रशस्त करती है, बल्कि उनकी शैली, भाषा,
पात्रों की संरचना और उनके भीतर निहित सामाजिक-सांस्कृतिक द्वंद्व
को भी विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से उजागर करती है। लेखक ने प्रेमचंद की रचनाओं को उस
यथार्थवादी परंपरा के संदर्भ में रखा है, जिसकी नींव उन्होंने स्वयं अपने लेखन से रखी थी।
‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ प्रेमचंद
की विचारशीलता और संवेदनशीलता को पाठकों के समक्ष एक नई गहराई और विस्तार के साथ प्रस्तुत
करती है। यह कृति न केवल साहित्यिक रसास्वादन का माध्यम है,
बल्कि प्रेमचंद के विचार-समूहों से संवाद स्थापित करने का एक
सशक्त सेतु भी है। यदि यह कहा जाये तो अरिशयोक्ति न होगी कि यह पुस्तक केवल एक आलोचनात्मक
पुस्तक नहीं, बल्कि
प्रेमचंद के बहुआयामी साहित्यिक अवदान की एक साहित्यिक यात्रा है,
जो हर उस पाठक को आमंत्रित करती है,
जो प्रेमचंद को पुनः पढ़ना, समझना और आत्मसात करना चाहता है।
आज का युग सूचना के अतिवेग और
जीवन की निरंतर भागदौड़ का युग है, जहाँ मनुष्य के पास समय तो है,
किंतु मनन और अध्ययन के लिए अवकाश नहीं। विशेषकर साहित्य के
क्षेत्र में यह प्रवृत्ति और भी स्पष्ट दिखाई देती है। पाठक अब स्थायित्व की अपेक्षा
तात्कालिकता की ओर अग्रसर हो रहे हैं—वह सब कुछ शीघ्र जानना चाहते हैं,
किंतु गहराई में उतरने का धैर्य अब विलुप्त होता जा रहा है।
ऐसे समय में, जब
गंभीर अध्ययन के लिए समय का अभाव एक सामान्य सत्य बन गया है,
डॉ. राकेश प्रेम की आलोचनात्मक कृति ‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ एक
आवश्यक एवं स्वागतयोग्य हस्तक्षेप की भाँति हमारे सामने आती है। यह कृति न केवल प्रेमचंद
के विराट साहित्यिक अवदान का निचोड़ पाठकों को सौंपती है,
बल्कि उन्हें उस युग-बोध, मानवीय करुणा और सामाजिक सरोकारों से भी साक्षात्कार कराती है,
जिनके माध्यम से प्रेमचंद आज भी हिंदी साहित्य के सबसे प्रासंगिक
रचनाकार बने हुए हैं। ‘कथाशिल्पी
प्रेमचंद’ विशेष रूप से उन पाठकों के लिए एक अनमोल साधन सिद्ध
होती है, जो
सीमित समय में भी प्रेमचंद की विचारधारा, उनके रचनात्मक संघर्ष और साहित्यिक उपलब्धियों से अवगत होना
चाहते हैं। यह पुस्तक एक ऐसे सेतु का कार्य करती है, जो व्यस्त आधुनिक पाठक को प्रेमचंद की गहराइयों से जोड़ने में
सक्षम है—बिना उन्हें क्लिष्टता या शुष्कता का बोध कराए। यह कहना अनुचित न होगा कि
यह कृति प्रेमचंद को समझने के आकांक्षी आधुनिक पाठकों के लिए एक संक्षिप्त किंतु सजीव
आलोचनात्मक चित्रपट की तरह है, जहाँ प्रेमचंद की रचनाओं की आत्मा को नये दृष्टिकोण और सरल भाषा
में प्रस्तुत किया गया है। ‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ आज की पाठकीय आवश्यकता का सटीक उत्तर
है—एक ऐसी कृति जो समय की सीमाओं में भी प्रेमचंद के अमूल्य साहित्यिक संसार से पाठकों
को परिचित कराती है और उन्हें उसकी व्यापकता का संवेदनशील अनुभव कराती है।
‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ का सबसे महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय योगदान यह है कि यह
प्रेमचंद के समग्र रचनात्मक संसार को उनके गहन मानवतावादी दृष्टिकोण के साथ एक
सूत्र में बाँधने का श्रमसाध्य, किन्तु स्तुत्य प्रयास करती है। यह कृति मात्र रचनाओं का आलोचनात्मक
परीक्षण भर नहीं है, बल्कि प्रेमचंद के साहित्यिक व्यक्तित्व
और उनके सामाजिक सरोकारों का जीवंत दस्तावेज़ भी है। डॉ. राकेश प्रेम ने प्रेमचंद
की कहानियों, उपन्यासों और नाटकों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत
करते हुए उन्हें केवल कथा-स्तर पर ही नहीं, बल्कि विचार और
संवेदना के स्तर पर भी समझने का प्रयास किया है। उन्होंने प्रेमचंद के साहित्य में
रची-बसी उस मनुष्यता को रेखांकित किया है, जो न केवल उनके
पात्रों को जीवंत बनाती है, बल्कि पाठकों के अंतर्मन को भी
झकझोर देती है। इस कृति की विशेषता यह है कि लेखक ने प्रेमचंद की रचनाओं को एक
सामाजिक दस्तावेज़ की तरह पढ़ते हुए उनमें अंतर्निहित सांस्कृतिक, नैतिक और विचारधारात्मक मूल्यों की सूक्ष्म परतों को बड़ी संवेदनशीलता और
सजगता से उघाड़ा है। चाहे वह ज़मींदारी प्रथा के विरुद्ध उनकी आवाज़ हो, स्त्री-विमर्श की अंतर्ध्वनि हो या धर्म और नैतिकता के जटिल द्वंद्व—लेखक
ने इन सब पहलुओं को विषयानुकूल गंभीरता और संतुलन के साथ प्रस्तुत किया है। डॉ.
राकेश प्रेम का यह प्रयास प्रेमचंद को केवल एक साहित्यकार के रूप में नहीं,
बल्कि एक सामाजिक चिंतक, नैतिक मनीषी और
सांस्कृतिक प्रवक्ता के रूप में प्रतिष्ठित करता है। उन्होंने प्रेमचंद की रचनाओं
में निहित उस जीवंत यथार्थ को पुनः उद्घाटित किया है, जो आज
भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि एक शताब्दी पूर्व था। इस आधार पर हम कह सकते हैं
कि ‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ न केवल
एक आलोचनात्मक ग्रंथ है, बल्कि एक सजीव संवाद है—प्रेमचंद के
साहित्य और आज के समाज के बीच। यह संवाद, जो संवेदना,
विचार और विवेक के धरातल पर आकार लेता है, हिंदी
आलोचना के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया जा सकता
है।
डॉ. राकेश प्रेम की आलोचनात्मक
कृति ‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ सुव्यवस्थित रूप से सात अध्यायों में विभाजित है,
जिनमें प्रेमचंद के साहित्यिक अवदान का गहन,
विस्तृत और बहुआयामी विवेचन प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक
अध्याय प्रेमचंद के रचनात्मक संसार का एक नया पक्ष उद्घाटित करता है,
जिससे पाठक को उनके साहित्य की बहुरंगी बनावट और बौद्धिक गहराई
का साक्षात्कार होता है। लेखक की भाषा की विशेषता उसकी सहजता,
प्रवाहशीलता और स्पष्टता में निहित है। डॉ. राकेश प्रेम ने दुरूह
आलोचनात्मक पद्धति के स्थान पर ऐसी अभिव्यक्ति शैली को अपनाया है,
जो गंभीर साहित्यिक विमर्श को भी सामान्य पाठकों के बोधगम्य
स्तर पर लाने में सफल सिद्ध होती है। उनका लेखन न तो अनावश्यक बोझिल है,
न ही साधारणता की सीमा तक सरलीकृत—बल्कि यह एक संतुलन साधता
है,
जहाँ गूढ़ साहित्यिक विचार भी सहजता से व्यक्त हो पाते हैं।
विशेष रूप से यह उल्लेखनीय है कि लेखक ने प्रेमचंद की उस विलक्षण विशेषता को—जिसे हम
'साधारण में असाधारण की खोज' कह सकते हैं— बड़ी सूक्ष्मता और सराहनीय कलात्मकता से उद्घाटित
किया है। प्रेमचंद के पात्र, जिनका जीवन आम जनजीवन की कठिनाइयों से बुना गया है,
उनकी संवेदनाएँ और संघर्ष लेखक की दृष्टि से नए आयाम ग्रहण करते
हैं। इस कृति में प्रेमचंद के साहित्य को केवल शब्दों के धरातल पर नहीं,
बल्कि उसके भीतर की आत्मा तक जाकर समझने का प्रयास किया गया
है। यह प्रयास जितना आलोचनात्मक है, उतना ही भावनात्मक भी, जो इस कृति को एक शुष्क अध्ययन से अधिक,
एक सजीव साहित्यिक यात्रा का रूप प्रदान करता है। संक्षेप में
कहा जाए तो ‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ अपने अध्यायों की क्रमबद्धता,
भाषा की सरलता और विषयवस्तु की गंभीरता के मध्य जो संतुलन स्थापित
करती है,
वह उसे हिंदी आलोचना की एक प्रासंगिक और पठनीय कृति के रूप में
प्रतिष्ठित करता है।
डॉ. राकेश प्रेम की ‘कथाशिल्पी
प्रेमचंद’ मात्र एकपक्षीय आलोचना नहीं है, बल्कि यह उस बहुआयामी दृष्टिकोण को समाहित करती है,
जो साहित्यिक मूल्यांकन की गहराई और व्यापकता दोनों को साथ लेकर
चलता है। इस कृति में प्रेमचंद की रचनाओं का सघन, संदर्भ-संपन्न और भावपूर्ण विश्लेषण तो किया ही गया है,
साथ ही उनका तुलनात्मक मूल्यांकन भी अत्यंत संतुलित ढंग से प्रस्तुत
किया गया है। लेखक ने प्रेमचंद के साहित्य को उनके समकालीन रचनाकारों के आलोक में रखकर
देखा है,
जिससे यह पुस्तक केवल प्रेमचंद के लेखन की विशेषताओं को रेखांकित
नहीं करती, अपितु
उस युग के समग्र साहित्यिक परिदृश्य की भी गूढ़ समझ प्रदान करती है। प्रेमचंद किस प्रकार
अपने समय की रचनात्मक धारा से अलग थे, कहाँ वे समानांतर थे, और कहाँ उन्होंने नए मार्ग प्रशस्त किए—इसकी विवेचना पुस्तक
में गहनता के साथ की गई है। डॉ. राकेश प्रेम ने तुलनात्मक आलोचना की पद्धति अपनाकर
प्रेमचंद की साहित्यिक उपलब्धियों को न केवल उच्च स्थान प्रदान किया है,
बल्कि उन्हें एक समसामयिक संदर्भ में भी प्रासंगिक बनाया है।
उन्होंने यह दिखाया है कि प्रेमचंद का यथार्थवाद, भाषा-संवेदनशीलता, और सामाजिक चेतना उनके समकालीनों से किस प्रकार भिन्न और विशिष्ट
है। इस दृष्टिकोण का लाभ यह है कि पाठक प्रेमचंद की रचनाओं को केवल एकाकी रूप में नहीं,
बल्कि एक ऐतिहासिक और सृजनात्मक संवाद के रूप में समझने में
समर्थ होता है। प्रेमचंद के समय का साहित्यिक वातावरण,
उसकी वैचारिक उठापटक, रचनात्मक प्रवृत्तियाँ और चिंतनधाराएँ पुस्तक में इस प्रकार
प्रतिध्वनित होती हैं कि पाठक को न केवल प्रेमचंद का,
बल्कि उनके युग का भी सजीव अनुभव होता है।
प्रेमचंद के पात्रों को लेकर
डॉ. राकेश प्रेम द्वारा प्रस्तुत किया गया यह विचार— “प्रेमचंद के पात्र लेखक के द्वारा
गढ़े हुए न होकर, सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों की देन हैं।” (पृष्ठ-18) —उनकी कथा-दृष्टि की यथार्थवादी प्रकृति को अत्यंत सटीक रूप
में रेखांकित करता है। यह कथन इस सच्चाई की पुष्टि करता है कि प्रेमचंद के पात्र कोई
सृजनात्मक कल्पना का खेल नहीं, बल्कि भारतीय समाज की जीवंत प्रतिछवियाँ हैं—ऐसे व्यक्ति,
जो तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था,
वर्ग-संघर्ष, सांस्कृतिक जटिलताओं और मानवीय संकटों की वास्तविक जमीन पर खड़े
दिखाई देते हैं। प्रेमचंद ने अपने पात्रों को शब्दों से नहीं,
जीवन के अनुभवों से गढ़ा है। वे पात्र चकाचौंध से दूर,
धूल-धूसरित गलियों, खेत-खलिहानों और टूटी हुई झोपड़ियों से निकलकर आते हैं—जहाँ
जीवन कठिन है, पर
मनुष्यत्व जीवित। यही कारण है कि उनके चरित्रों में एक प्रकार की सहजता,
स्वाभाविकता और आंतरिक गरिमा विद्यमान रहती है। वे नाटकीयता
से रहित होते हुए भी गहरे प्रभाव छोड़ते हैं, क्योंकि उनमें मानवता का जो स्वर है,
वह किसी भी समय और समाज के लिए प्रासंगिक है। इसी संदर्भ में
लेखक का एक और महत्त्वपूर्ण अवलोकन— “प्रेमचंद के पात्र सहज और सरल हैं... वे अधिक
शिक्षित न होने पर भी सही-गलत के विवेक से जुड़े थे।” (पृष्ठ-18) —प्रेमचंद की कथा-दृष्टि
में अंतर्निहित मानवीय संवेदना और नैतिक दृष्टिकोण का उद्घाटन करता है। यह कथन स्पष्ट
करता है कि प्रेमचंद के पात्रों की गरिमा उनकी औपचारिक शिक्षा में नहीं,
बल्कि उनके नैतिक विवेक, जीवनानुभव और न्याय-बोध में निहित है। प्रेमचंद का साहित्य ऐसे
पात्रों से भरा हुआ है, जो जीवन की जटिल परिस्थितियों में भी सही और गलत के बीच का भेद कर पाने की सामर्थ्य
रखते हैं। उनकी यह नैतिक दृष्टि केवल व्यक्तिगत स्तर की नहीं होती,
बल्कि वह एक व्यापक सामाजिक चेतना से जुड़ी होती है—जिसमें अन्याय
के प्रति विरोध और न्याय के प्रति स्वाभाविक आग्रह दिखाई देता है। डॉ. राकेश प्रेम
ने इन दोनों कथनों के माध्यम से प्रेमचंद की उस गूढ़ कथा-चेतना को अनावृत किया है,
जिसमें मनुष्य अपने साधारण रूप में भी असाधारण बन जाता है। यह
असाधारणता उसके आत्म-संघर्ष, नैतिक दृढ़ता और मानवीय मूल्यबोध में निहित होती है। यही वह
तत्व है,
जो प्रेमचंद को 'लोक-लेखक' के साथ-साथ 'मनुष्य के पक्ष में खड़े लेखक'
के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
डॉ. राकेश प्रेम द्वारा
रचित ‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ केवल
एक साहित्यिक आलोचना-ग्रंथ नहीं, बल्कि प्रेमचंद के साहित्य को समझने,
व्याख्यायित करने और पुनः मूल्यांकित करने की एक सशक्त
विमर्शात्मक प्रस्तुति है, जो अपनी विषयवस्तु, भाषा और दृष्टिकोण के कारण साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले पाठकों के साथ-साथ
अकादमिक जगत के लिए भी अत्यंत उपयोगी और सार्थक सिद्ध होती है। यह कृति न केवल
प्रेमचंद की रचनाओं को समीक्षात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करती है,
बल्कि उनकी साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना को भी विश्लेषण की दृष्टि से
इस प्रकार उद्घाटित करती है कि यह पुस्तक शोधपरक संदर्भ सामग्री के रूप में भी
महत्वपूर्ण बन जाती है। विशेष रूप से हिंदी साहित्य के विद्यार्थी,
शोधार्थी और अध्यापक इस ग्रंथ से न केवल प्रेमचंद के
साहित्य को गहराई से समझ सकते हैं, बल्कि उससे जुड़े आलोचनात्मक विमर्शों,
समकालीन संदर्भों और तुलनात्मक दृष्टिकोणों को भी आत्मसात
कर सकते हैं। यह कृति पाठकों को एक ऐसी दृष्टि प्रदान करती है,
जिसके माध्यम से वे प्रेमचंद के साहित्य को न केवल एक
पाठ्य-आधारित अध्ययन के रूप में, बल्कि एक जीवंत सामाजिक दस्तावेज़ के रूप में देखने में
सक्षम होते हैं। ‘कथाशिल्पी
प्रेमचंद’ प्रेमचंद
के साहित्य के अध्ययन के लिए एक बहुप्रयोजनीय मार्गदर्शिका है—जो न केवल साहित्य
के रसिकों के लिए पठनीय है, बल्कि शिक्षण, शोध और साहित्यिक विमर्श में संलग्न लोगों के लिए भी एक समर्पित एवं विश्वसनीय
बौद्धिक आधार प्रस्तुत करती है।
डॉ. राकेश प्रेम द्वारा रचित
‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ एक
ऐसी आलोचनात्मक कृति है, जो हिंदी साहित्य के शिखर रचनाकार प्रेमचंद के साहित्यिक योगदान
को एक नवीन दृष्टिकोण से पढ़ने, समझने और मूल्यांकित करने का सुअवसर प्रदान करती है। यह ग्रंथ
प्रेमचंद की रचनाओं को न केवल परंपरागत आलोचना से भिन्न संदर्भों में प्रस्तुत करता
है,
बल्कि उनके साहित्य के उन आयामों को भी उजागर करता है,
जो अब तक या तो उपेक्षित रहे हैं अथवा सतही रूप में देखे गए
हैं। इस कृति की सबसे उल्लेखनीय विशेषता इसकी भाषा की सरलता,
विश्लेषण की सटीकता और आलोचना की विचारशीलता है। लेखक ने जटिल
विमर्शों को भी सहज शब्दों में इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि वह एक सामान्य पाठक के
बोध के क्षेत्र में भी आ सके, और साथ ही गंभीर पाठकों के लिए बौद्धिक संतोष का माध्यम भी बन
सके। यही संतुलन इस पुस्तक को विशिष्ट बनाता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ आज
के समय में प्रेमचंद को पढ़ने, समझने और उन्हें पुनः खोजने का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रभावी
माध्यम बनकर उभरी है। ऐसे समय में जब साहित्यिक मूल्य पुनर्परिभाषित हो रहे हैं,
यह कृति प्रेमचंद की प्रासंगिकता को नए संदर्भों में पुनः स्थापित
करती है। यह पुस्तक प्रेमचंद के साहित्य से पहली बार परिचय प्राप्त करने वाले पाठकों
के लिए एक सुलभ और ज्ञानवर्धक प्रवेश-द्वार की भूमिका निभाती है,
तो वहीं उन पाठकों के लिए, जो पहले से प्रेमचंद से परिचित हैं,
यह एक पुनर्मंथन, पुनर्विचार और नवीकृत दृष्टिकोण की प्रेरणा बनती है। इस प्रकार
‘कथाशिल्पी प्रेमचंद’ केवल
आलोचना नहीं, बल्कि संवाद है— प्रेमचंद और समकालीन पाठक के बीच;
एक ऐसा संवाद जो साहित्यिक संवेदना,
सामाजिक चेतना और मानवीय मूल्यों के धरातल पर गहराई से जुड़ता
है। यह कृति निश्चित ही प्रेमचंद-चिंतन की परंपरा में एक विचारोत्तेजक और मूल्यवान
योगदान मानी जाएगी।