बस्तर की लोककथाः सांस्कृतिक आयाम - डॉ.
नत्थू तोड़े, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
लोक संस्कृति में व्याप्त लोकगीत, लोकनृत्य, लोकगाथा, लोककथा जनजातियों के प्रतिरूप है। जिसके द्वारा जनजातियों का परिचय स्वभाविक रूप से हो जाता है। जनजातियों में प्रचलित लोक कथाएं जनजातीय संस्कृति के दर्पण है। जिसमें उनकी संस्कृति, परम्परा, खान-पान, रहन-सहन, तीज-त्यौहार और प्रकृति के साथ उनके जुड़ाव को आसानी से देखा जा सकता है। लोककथा का विकास मानव के जन्म के साथ ही प्रारंभ हुआ होगा। वर्तमान समय में भी लोककथा वाचिक परम्परा से ही प्राप्त होती है। खेतों में कार्य करते हुए कृषक महिला एवं पुरुष श्रम परिहार के लिए लोककथाओं का सहारा लेते हैं। लोक कथा कथक्कड़ की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। गाँव में फुर्सत के क्षणों में किसी घर के बरामदे या सार्वजनिक चौपाल में भी लोक कथाओं को बहुत उत्साह से सुनते हुए आनन्द उठाते हैं तथा घरों में रात्रि के समय छोटे-छोटे बच्चे अपने दादा-दादी के पास रहते हुए भी लोककथाओं को मौखिक रूप से सुनते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी अनवरत् चली आ रही है। डॉ. नत्थू तोड़े की पुस्तक ‘बस्तर की लोककथाः सांस्कृतिक आयाम’ में भी बस्तर के जनजातियों में प्रचलित मौखिक परम्परा से चली आ रही लोककथाओं का दर्शन होता है। बस्तर की जनजातियों में प्रचलित सभ्यता एवं संस्कृति को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। इस पुस्तक के अध्ययन से जनजातियों की धार्मिक आस्था, लोक विष्वास एवं लोक परम्पराओं की भिन्न-भिन्न विषेशताओं को जाना एवं समझा जा सकता है। डॉ. नत्थू तोड़े अपनी पुस्तक में बस्तर के प्रमुख जनजातिय निवासी गोड़, हल्बा, भतरा, गदबा, धुरूवा, माड़िया एवं मुरिया के सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना को उनमें प्रचलित लोक कथाओं के माध्यम से उद्धृत करने का प्रयास किया है।
डॉ.
नत्थू तोड़े के द्वारा लिखित पुस्तक ‘बस्तर की लोककथाः सांस्कृतिक आयाम’ पाँच
अध्यायों में विभाजित है। प्रथम अध्याय के अन्तर्गत बस्तर के भौगोलिक एवं ऐतिहासिक
परिचय का वर्णन है जिसमें बस्तर की भौगोलिक स्थिति, क्षेत्रफल, जनसंख्या,
जलवायु तथा वन एवं नदियों
की सम्पूर्ण जानकारी है। ऐतिहासिक परिचय में पाषाण काल, वैदिक काल,
रामायण काल, महाभारत काल,
पुराण काल में ऐतिहासिक
साक्ष्य के आधार पर बस्तर के नामकरण को रेखांकित किया गया है। द्वितीय अध्याय में
बस्तर का सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप के अन्तर्गत यहाँ की जनजातियों के खान-पान, रहन-सहन तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक रीति-रिवाजों पर
गहरा अध्ययन किया गया है। बस्तर की ‘कोयतुर’ प्रजातियों को चार भागों में विभाजित
है। उनके नाम मुरिया, अबुझमाड़िया, दण्डामी
माड़िया तथा दोर्ला है। मुरिया तथा अबुझमाड़िया के जीवन के नियामक देवता ‘लिगो’ है
तथा दण्डामी माड़िया और दोर्ला का वरेण्य देवता‘ भीमूल पने(भीम) है। इसके अतिरिक्त
भतरा, हल्बा,
गदबा जनजाति भी बस्तर में
निवास करते हैं और इन जनजातियों में परस्पर भाईचारा की भावना निहित है। पुस्तक को
अध्ययन करने के उपरान्त यह जानकारी मिलती है कि बस्तर की भौगोलिक परिस्थिति और
जीवन के आर्थिक पक्ष को ध्यान में रखते हुये यहाँ के जनजाति सामाजिक जीवन में एक
दूसरे के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं तथा सामाजिक रूप से पारस्परिक संबंधों मे जुड़े
हुए हैं। यद्यपि विवाह सम्बन्ध अलग-अलग जनजातियों में रीति-रिवाज के अनुसार
प्रचलित है परन्तु सामाजिक एकता और आपसी सहयोग तथा एक दूसरे के प्रति आदर का भाव
सभी जनजातियों में मिलता है। डॉ. तोडे़ ने अपनी पुस्तक बस्तर की लोककथाः सांस्कृतिक
आयाम में बस्तर की जनजातियों को आपस में आया,
बुआ,
दादा,
दीदी,
मामा,
मामी आदि रिश्तों से जुड़े रहते हुए तथा एक दूसरे
को इसी प्रकार सम्बोधित करते हुए उल्लेख किया है जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक एकता
के सूत्र में बंधे रहने का प्रमाण है।
तृतीय अध्याय में लोककथा की उद्गम, विकास, वर्गीकरण एवं विषेशताएँ-सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में लोककथाओं की उत्पत्ति, विकास तथा लोककथाओं के पुरातन स्त्रोत के साथ-साथ भारतीय परिदृश्य में लोककथाओं को वर्गीकरण के आधार पर बस्तरिया लोककथाओं को वनवासी परिवेश में समुचित रूप से वर्गीकृत किया गया है जो अत्यन्त सराहनीय है। बस्तर में लोककथाओं के लिए ‘केहनी’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके अन्तर्गत कुछ लघु कथाएं भी होती हैं और कुछ दीर्घ लोककथाएं। जैसे अन्य क्षेत्रों में कथाएं दादी अथवा नानी से सुनी जाती है और मौखिक परम्परा से नई पीढ़ी में हस्तांतरित होती है उसी प्रकार बस्तर की लोक कथाएं भी अनके रूपों में प्रचलित है। डॉ. नत्थू तोड़े की पुस्तक बस्तर की लोककथाः सांस्कृतिक आयाम के अनुसार कहानी कहने वाली महिला को ‘केहनी कुरीन’ और पुरुष कहानीकार को ‘केहनी कुरेया’ कहा जाता है। जहाँ तक कथानक के निर्वाह का प्रश्न है यहाँ के कथाओं में अपनी निजी विषेशताएँ विद्यमान है। बस्तर की लोककथाओ में प्रेम कथाओं का बाहुल्य है परन्तु यह प्रेम पवित्रता के तथा उच्च चारित्रिक मान्यताओं के मध्य पनपता हुआ दिखाई देता है। इसका भौतिक स्वरूप कम और आत्मिक अथवा अध्यात्मिक स्वरूप अधिक परिलक्षित होता है। डॉ. नत्थू तोड़े की पुस्तक बस्तर की लोककथाः सांस्कृतिक आयाम में बस्तर की लोक कथाओं को भारतीय लोक कथाओं के परम्परागत संदर्भ में देखते हुए तथा यहाँ की क्षेत्रीय विषेशता को ध्यान में रखते हुए सूक्ष्म अध्ययन करने के पष्चात् बस्तर की लोक कथाओं को प्रमुख रूप से निम्नलिखित वर्गों के आधार पर विभाजन किया है जो अत्यन्त सराहनीय है। जैसे- देवी देवताओं से संबंधित, व्रत संबंधित, तंत्र-मंत्र संबंधित, राक्षसों और परियों से संबंधित, प्रेम प्रधान संबंधित, पशु-पक्षी संबंधित, हास्य प्रधान संबंधित, नीति उपदेश तथा शिक्षा प्रधान संबंधित, ऐतिहासिक पराक्रम तथा साहस संबंधित तथा पारिवारिक तथा सामाजिक पृष्ठभूमि पर आधारित लोक कथाओं को वर्गीकृत करते हुए बस्तर की जनजातियों में प्रचलित लोक-विश्वासों, रीति-रिवाजों और परम्पराओं को सामने लाया गया है। जिसमें यहाँ के लोक जीवन के प्रायः सभी पहलुओं को सम्मिलित किया गया है।
चतुर्थ
अध्याय में बस्तर में लोककथाओं की परम्परा के अन्तर्गत यहाँ के जनजातियों में लोक
परम्परा एवं धार्मिक आस्थाओं के अनुरूप प्राप्त होने वाले लोककथाओं को रेखांकित
करते हुए लोक मान्यताओं एवं लोक विष्वास से संबंधित लोककथाओं को ऊपर लाया गया है।
बस्तर की लोक कथाओं में भक्ति भावना का महत्व तथा समाज में प्रचलित धार्मिक विश्वासों
का पता लगता है। बस्तर के सभी जनजातियों की संस्कृति की तुलना में ‘मुरिया’ की
संस्कृति में विविधता एवं जीवंत है और यह शायद ‘घोटुल’ नामक संस्था के कारण ही हो
सका है ऐसा जान पड़ता है। घोटुल एक युवा शयनागार है, जहाँ
कुमारावस्था से विवाह के पूर्व तक की अवस्था के मुरिया युवक और युवतियाँ रात्रि शयन
करते हैं। यह ‘यूथ विवाह’ का प्राचीनतम अवषेश है। इसी प्रकार डॉ. तोड़े ने अपनी
पुस्तक में मुरिया जनजातियों के अन्य प्रकार के विवाह का भी वर्णन किया है जिसमें
‘पैठू’ या ‘पइसा मुड़ी’ विवाह का वह प्रकार है जिसमें लड़की स्वयं अपनी इच्छा से
अपने प्रेमी के घर रहने के लिए जाती है। ‘किटियारी’ विवाह चचेरे भाई बहनों के बीच
संबंध का दूसरा रूप है। इसके बारे में कहा जाता है कि जब एक परिवार उसी पीढ़ी में
दूसरे परिवार में लड़की देता है तो दूसरी पीढ़ी में वह सपरिवार से लड़की लौटा देता
है। दूसरे शब्दों में मुरिया आदिवासियों में प्रचलित यह विवाह प्रकार गोंडों के
‘दूध लौटना’ के अनुरूप है। ‘घोटुल’ के माध्यम से न केवल मैत्री और सामाजिक व्यवहार
का वातावरण बनता है अपितु ‘घोटुल’ मुरिया जनजाति के कलाओं का भी केन्द्र है। यहाँ
के जनजीवन में पूजा पाठ करने,
देवी देवताओं के नाम जपने, संसार की असारता और माया मोह, नाशवान शरीर,
आत्मा और परमात्मा, लोक और परलोक आदि से संबंधित विषयों का बड़ा महत्व माना
गया है।
बस्तर
की लोककथाः सांस्कृतिक आयाम पुस्तक में माड़िया जनजाति के धार्मिक आस्था एवं
लोकमान्यताओं का उल्लेख मिलता है जिसमें माड़िया जनजाति के लोग गाँव के किसी पूज्य
व्यक्ति या अपने प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होने पर ‘मृत्युगीत’ गाते हैं। मरघट में
मृतक की स्मृति में पत्थर या लकड़ी का स्तंभ स्थापित करते हैं। इनका मानना है जिसका
जन्म है, उसकी मृत्यु भी अनिवार्य है। किसी की मृत्यु
होने पर घोटुल के लड़के दुखी परिवार की सहायता हेतु उनके घर जाते हैं तथा ष्मषान तक
ले जाने में अग्रणी होते हैं। महिलाएं विलाप करते हुए ‘मृत्यु गीत’ गाती हैं।
माड़िया लोक जीवन में मरणोत्तर गीत की मान्यता का समावेश, सामान्य जन को चौका देता है। पंचम
अध्याय में बस्तरिया लोक कथाओं का परिचय है जिसमें बस्तरिया लोक कथाओं का वृहद
चित्रण है। बस्तर की लोक कथा यहाँ के जन-जीवन के अभिन्न रूप हैं तथा उनके सुख-दुःख
में इनका अपना अलग ही महत्व है। खेतों में काम करते हुये मजदूरों में लोक कथा
सुनाने वाले का बहुत अधिक महत्व होता है। बस्तर में लोक कथा सुनाने वाले व्यक्ति
को ‘केहनी’ ‘कूरेया’ कहते हैं। जिस खेत में कृशि कार्य करने के लिये मजदूरों के
साथ ‘केहनी कूरेया’ अर्थात् कहानी कहने वाला पुरुष या ‘केहनी कूरीन’ अर्थात् कहानी
कहने वाली महिला जाती है,
उस खेत में मजदूरों की
संख्या अधिक रहती है तथा कृशि कार्य भी बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न होता है। इस
पुस्तक को अध्ययन करने से यह जानकारी प्राप्त होती है कि बस्तर के जनजातीय समाज
में रात्रि में भोजन करने के पश्चात लकड़ी के अलाव के चारों ओर परिवार के लोग बैठे
रहते हैं और कथा कहने वाला व्यक्ति ‘केहनी’ सुनाने को तैयार रहता है। सुनने वालों
के मन में उल्लास भरी एकाग्रता रहती है। कभी पिछली रात की आधी छुटी हुई कहानी के
सूत्र को पकड़ कर उसे आगे बढ़ाया जाता है या कभी-कभी नयी कहानी आरंभ कर दी जाती है।
कहानी के शब्दों में जितनी रोचकता होती है वह उतनी ही सरस और मधुर बन जाती है।
कहानी कभी ‘एक राजा था या एक रानी थी’ और कभी ‘राजकुमार या राजकुमारी’ तथा ‘डोकरा
डोकरी’ से कहानी की शुरुआत होती है। बस्तर की लोककथाओं में कभी नयी नवेली वधु के
हृदय में पीड़ा झलकती है तो कहीं-कहीं मां-बाप का अपने बच्चों के प्रति स्नेह दिखाई
देता है जिससे बच्चा आलसी और निकम्मा हो जाता है। बस्तर की कथाओं में जंगली पशुओं
से मित्रता की झलक बहुतायत संख्या में प्राप्त होती है।
बस्तर
अंचल में प्रचलित लोक कथाओं को डॉ. नत्थू तोड़े ने अपने पुस्तक में संग्रहित किया
है। देवी-देवता संबंधी लोक कथा में ‘इन्दर आउर भीम’ भतरी लोककथा बहुत ही रोचक है
जिसमें यहाँ के धार्मिक लोकविश्वासों और लोक देवता पर जनजीवन की गहरी आस्था का भाव
दिखाई देता है। उसी प्रकार ‘पाटदेव’ नामक हल्बी लोककथा में पाटदेव को बस्तर की लोक
संस्कृति में प्रमुख देवता के रूप में मान्यता प्राप्त है तथा पाटदेव के ऊपर बस्तर
के सभी निवासियों की गहरी आस्था जुड़ी हुई दिखाई देती है। व्रत संबंधी लोककथा में
‘मुंडराजा’ से संबंधित लोककथा का उल्लेख मिलता है जिसमें व्रत रखने की परम्परा का दर्शन
होता है। तंत्रमंत्र संबंधी में ‘हनगुण्डा’ नामक घोटुल की लोककथा में घोटुल का
चेलिक तंत्रमंत्र और जादू टोने की विद्या से पारंगत हो जाता है, और उसके संतान पीढ़ी दर पीढ़ी हनगुण्डा अर्थात् मृतक
संबंधी कर्म करने वाला व्यक्ति या जादू टोना संबंधी ज्ञान रखने वाला व्यक्ति
कहलाता है। इसी प्रकार ‘वीर गुण्डाधूर’ और ‘तांत्रिक हनगुण्डा’ नामक घोटुल की
लोककथा में वीर गुण्डाधूर द्वारा जादू टोना करने वाली महिला को पकड़ा जाता है जो
पशु-पक्षी तथा अन्य रूपों को धारण कर लेती है। इस प्रकार इस पुस्तक के अध्ययन से
यह जानकारी प्राप्त होती है कि कैसे चेलिक और मोटियारी घोटुल में रहते हुये साहस
त्याग, तपस्या, प्रेम, दया,
कर्तव्य, निश्ठा से संबंधित लोककथाओं को सुनकर शिक्षा ग्रहण करते
हैं। इस प्रकार ‘बस्तर की लोककथाः सांस्कृतिक आयाम’ में बस्तर के वन्य प्रकृति का
प्रभाव तथा यहाँ के लोककथाओं का बदलता हुआ स्वरूप भी दिखाई पड़ता है यहां की
लोककथाओं में सामाजिक कुरीति,
छल-कपट, पाखंड,
धार्मिक आस्था का सटिक दर्शन
होता है। कहानियों को अध्ययन करते हुये ऐसा प्रतीत होता है मानों आंखों देखा हाल
का वर्णन किया जा रहा हो। यही कारण है कि असंभव घटनायें भी सच्ची और दैनिक जीवन
में घटने वाली जान पड़ती है। बीच-बीच में कल्पना, प्रतीकों
और बिम्बों का सहारा लेकर लोककथाओं को और सरस बना दिया गया है। डॉ. नत्थू तोड़े ने
बस्तरिया जनजीवन की विशेषताओं को अपनी पुस्तक ‘बस्तर की लोककथाः सांस्कृतिक आयाम’
में लोक कथाओं के माध्यम से हर पहलुओं को सूक्ष्म रूप से प्रस्तुत किया है। बस्तर
की लोककथायें जीवन का सच्चा चित्र सा प्रतीत होता है। लोककथाओं को भावना पूर्ण और
संवेदनशील, प्रभावशाली तथा हृदयस्पर्शी रूप में सुना
एवं पढ़ा जा सकता है।
डॉ. दीपशिखा पटेल
सहायक प्राध्यापक (लोकसंगीत विभाग), इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़, (छ.ग.)
मो.- 9753387164
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें