रावण
मैं पुलस्त्य ऋषि का पौत्र,
पुत्र विश्रवा ऋषि का।
परम शिव भक्त,
था महाप्रतापी योद्धा।
शास्त्रों का प्रखर
विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी।
शासनकाल में मेरे,
लंका का वैभव था चरम पर,
लंका को सोने की लंका कहें।
वाल्मीकि ने कहा अधर्मी,
धर्म व्यवस्था तोड़ने वाला।
देव, असुर, मनुष्य-कन्याओं
को हरने वाला।
तुलसीदास जी ने कहा
अहंकार मेरा अवगुण था।
रावण ने हठपूर्वक
बैर मोल लिया,
पता था, प्रभु (विष्णु) ने ही
अवतार लिया,
उनके बाणाधात से प्राण त्याग
भव बंधन से मुक्त हुआ।
विभिन्न लोगों ने विभिन्न बातें कहीं।
क्यों मुझे सजा मिली, इतनी बड़ी ?
प्रत्येक वर्ष कागज का रावण
बना, देते हो फूँक।
अपने मन में बैठे रावण को
मारने में जाते हो चूक।
करते छल इतने, करते पाप
और भरते हो दंभ।
नीचता इतनी मनुष्यों में,
कर सकूँ खुद पर गर्व।
हर साल जला कर,
क्यों देते हैं मुझे कष्ट।
जला दी समस्त संसार की
बुराई, मनाते ऐसा जश्न।
क्या खुद को समझते हो
मर्यादा पुरुषोत्तम राम?
अवगुण अहंकार की
मिली, इतनी बड़ी सजा।
ये भ्रष्ट नेता, करते मेरा
दहन, कौन दूध का धुला?
मुझे जलाते, ये लोग
कितना कुकर्म स्वयं किये।
-maurya.swadeshi@gmail.com
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