डॉ. कृष्णा खत्री

ग्रीनकार्ड

सिन्हा साहब कॉलेज प्रिंसिपल थे, अभी हाल ही में रिटायर हुए हैं। उनकी जीवनसंगिनी आज से चार साल पहले ही उनका साथ छोड़ गई। औलाद के नाम पे इकलौती बेटी नेहा, जिसकी पांच साल पहले शादी हो गई थी। पांच साल से ही अपने पति के साथ अमेरिका में है। बस एक बार आई थी, माँ के न रहने पर। उसके बाद तो उसने अपनी शक्ल भी नहीं दिखाई। वह खुद भी इंजीनियर है, और पति नीरज गाइनोकोलोजिस्ट। दो बच्चे हैं, दोनों बेटियां। एक साढ़े तीन साल की है और दूसरी दो साल की। अपनी गृहस्थी व कामकाज में रमी हुई है। सो पिता के पास आने की तो फुर्सत नहीं है। फिलहाल... हफ्ते में दो बार कर लेती है। वीडियों कॉल के कारण लगता नहीं... पास में नहीं है। फिर सिन्हा साहब खुद भी अपने कॉलेज में बिजी रहते हैं। और चंदू, उनका पुराना नौकर जो अपने ही शहर से बल्कि अपने घर से लाये थे। उनका पुराना नौकर किसना, जो अक्सर उनसे कहता रहता- ‘बिट्टू बाबू, हमारे चंदू को अपने साथ ले जाओ, कुछ सीख लेगा। यहां तो दिन भर गोटी खेलता रहता है।’ तब से उनके साथ ही रहता है। दोनों में एक प्रकार का अपनापा है। उसे उन्होंने पढ़ना-लिखना भी सिखाया है। उसकी पगार बैंक में जमा करते हैं। यानी कि चंदू और उसका पिता दोनों खुश हैं, और सिन्हासाहब भी। इस तरह पत्नी के बाद भी उन्हें कोई परेशानी महसूस नहीं हुई। फिर भी अकेले तो पड़ ही गये थे। यह सब खलता तो था ही। 
नेहा अक्सर कहती रहती- ‘पापा, अब सर्विस छोड़कर यहां आ जाइये, आपकी चिंता लगी रहती है।’ 
‘नहीं बच्चा, मेरी चिंता मत करो। आय एम फिट एंड फाइन। ...और फिर अब तीन साल की सर्विस ही तो बची है। मेरी देखभाल करने, देखने व संभालने के लिये चंदू तो है ही। वह पक्का है अपने काम का, हर वक्त डंडा लेके खड़ा रहता है। एक दिन मैं लेट हो गया... तो पता है उसने क्या किया- मुझे तो कुछ नहीं कहा, खाना भी खिला दिया, मगर बोला एक शब्द भी नहीं। और गुस्से में खुद ने खाना भी नहीं खाया। यह तो मुझे रात के बारह बजे पता चला, तो बड़ी मुश्किल से मनाकर खाना खिलाया। और मुझे वादा करना पड़ा कि आइंदा ऐसा नहीं होगा। ...उसका भी कोई नहीं है! किसना काका भी चल बसे हैं। अब वह मेरी जिम्मेदारी है, फॅमली का हिस्सा है।’ 
‘फिर भी पापा छोड़ दो ना सर्विस!’ 
‘अरे नहीं प्रिसेंस, अभी नहीं रिटायरमेंट के बाद सोचूंगा! बल्कि जैसा तू कहेगी।’ 
बात आई गई हो गई। बाद में फिर एक बार उनके रिटायरमेंट पे आई थी, देखा- चन्दू सब अच्छा ही कर रहा है। वैसे वह लगभग सिन्हा साहब के पास बाारह साल से है। फिर भी वह चाहती है कि उसके पापा अब उसके साथ रहे। इस बारे में अपने पति नीरज से बात की तो उसने ना तो नहीं कहा, मगर भाव में अनमनापन था, जरा भी रजामंदी नहीं थी। फिर इतना ही कहा- ‘यहां उनका मन लगेगा ? फिर मेरे पैरेन्ट्स आयेंगे तो वे ऑक्वर्ड फील करेंगे।’
‘तो क्या तुम चाहते हो कि मैं अपने पापा को न देखूं... और फिर उनका है भी कौन ? क्यूं... तुम्हारे पैरेन्टस आ सकते हैं, तो मेरे पापा क्यूं नहीं ? तुम्हारे तो दो भाई और हैं... मेरे पापा की तो मैं अकेली संतान हूँ!’ 
‘नेहा मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा, बस अपना व्यू बताया है।’
‘मैं खूब समझती हूँ, सफाई देने की कोई जरूरत नहीं है।’ 
‘लेकिन तुम बात का बतंगड़ क्यूं बना रही हो ? मैंने तो एक संभावना व्यक्त की है, मगर तुम तो...। मैं यह थोड़े ही कह रहा हूँ कि तुम पापा को मत देखो... ऑफकोर्स तुम्हें देखना ही चाहिये। मेरी भी कोशिश तो यही रहेगी कि जब पापा हों तो मॉम और डैड को नहीं बुलाऊं, ताकि किसी को भी ऑक्वर्ड न लगे।’ 
इस तरह दोनों के पैरेन्ट्स को लेकर नेहा और नीरज में गाहे-बगाहे बहस होती रहती। 
आखिरकार सिन्हा साहब के आने की तैयारी हो ही गई। चंदू से कहा- ‘इस बार तू यहीं रह! तेरा सारा बंदोबस्त करके जाऊंगा, वापस आने पर तेरा भी पासपोर्ट बना लूंगा।’ तब हम दोनों जहां जायेंगे, साथ ही जायेंगे। चंदू दुखी तो बहुत था, पर और कोई चारा भी नहीं था। 
‘...और हाँ, सावधानी से रहना, अपना ख्याल रखना। यह समझ इस घर में हम दोनों ही फॅमली मेम्बर हैं, तो पीछे ठीक से रहना। नेहा के पास ज्यादा से ज्यादा एक-दो महीने रहूँगा... ओके!’
‘ठीक है भैयाजी, आप निश्चिंत होकर जाइये। ये लीजिये सौ रूपया... बच्चों को और सौ बिटिया को मिठाई का दीजियेगा।’ 
ले लिया, उसका मन नहीं दुखी किया। वे समझ रहे थे, वहां इन दो सौ रूपयों की भला क्या वेल्यू। फिर भी प्रेम की सौगात थी। 
नेहा न्यूयार्क में रहती थी। रिसीव करने बेटी, दामाद व बच्चे सभी आये थे। आज पन्द्रह सालों बाद न्युयार्क आये थे। पन्द्रह साल पहले कॉन्फ्रेंस में आये थे। तब आठ दिन का डेलीगेशन था। इस बार सोच रहे थे कि नायग्रा वगैरह सब खास-खास जगहों पर विजिट करेंगे। एक हफ्ता तो अच्छा ही गुजरा। पता नहीं क्यों... बाद में उन्हें अच्छा नहीं लगता। ऐसे तो कुछ खराब नहीं था, फिर भी ऐसा कुछ था जो सिन्हा साहब को ऑक्वर्ड लग रहा था। 
नेहा ने कहा- ‘पापा, आपके ग्रीनकार्ड के लिये अप्लाई करते हैं... क्यों नीरज!’
‘अच्छा... हाँ, हाँ, अच्छा रहेगा।’ 
मगर इन चंद शब्दों में कुछ तो था, जो सिन्हा साहब को चुभ रहा था। फिर दिमाग को परे झटक दिया। और भूल गये। लेकिन ऐसा कुछ हो जाता, जो उन्हें भूलने नहीं देता। 
21 सितम्बर को नेहा को बर्थडे था। 
‘पापा चलिये बाहर सेलिब्रेट करेंगे।’ 
सब खुशी खुशी गये। बेटी बार-बार पूछ रही थी- ‘पापा आप क्या लेंगे ? आपके लिये क्या आर्डर करूं ? पिज्जा या इंटालियन पास्ता, या फिर मेक्सीकन फूड ट्राई करेंगे। थोड़ा तीखा होता है, शायद आपको पसन्द आयेगा।’ 
सिन्हा साहब कुछ बोलें, उससे पहले नीरज बोला- ‘अरे पापा को क्या मालूम... क्या ट्राई करना है! तुम्हें पापा का टेस्ट मालूम है, तुम ही आर्डर कर दो।’
‘हाँ बेटा, तू अपनी पसंद से मंगा ले।’ 
पिज्जा और पास्ता दोनों मंगाया था। दो-चार बाइट लेने के बाद नेहा ने पूछा- ‘पापा क्या पसंद आया ?’ 
सिन्हा साहब ने कहा- ‘दोनों ही ठीक हैं।’ 
नीरज बोला- ‘तो भी... एक कम ज्यादा अच्छा होगा ना! पास्ता अच्छा लगा ? 
‘ठीक है।’ 
‘लगता है, आपको अच्छा नहीं लगा।’ 
‘नहीं नहीं... मैं कह तो रहा हूँ- ठीक है।’ 
‘पर जिस तरह से कह रहे हैं, उससे साफ पता चलता है कि पसंद नहीं आया।’ 
‘नहीं भई, ऐसी बात नहीं है। खा तो रहा हूँ।’ 
‘यहां इस तरह से जोर से नहीं बोलते। लोग सोचेंगे, आप झगड़ा कर रहे हैं।’ 
‘अब आवाज ही ऐसी है, तो क्या करें! फिर इसी आवाज की तो रोटी खाई अब तक, तो भला अब कहां से उसमें कृत्रिमता आयेगी। जो है, जैसी है... वही तो रहेगी, वैसी ही तो रहेगी।’ सिन्हा साहब को यह सब कहीं न कहीं चुभ रहा था, फिर भी आगे बोले कुछ नहीं, चुप हो गये। नेहा को भी नीरज की बातें अखरीं, पर वह भी चुप रही। 
घर आने के बाद फ्रेश होकर सब अपने-अपने रूम में सोने गये, तो नेहा ने कहा- ‘नीरज, तुम पापा से किस तरह की बात कर रहे थे ? वे क्या सोच रहे होंगे! देखा नहीं, एकदम सैड हो गये थे।’ 
‘देखो, मैंने ऐसा तो कुछ नहीं कहा। अब तुम यह पापा-पुराण छेड़कर मेरा मूड ऑफ मत करो।’ 
इस तरह कुछ ने कुछ चलता रहता। अधिकतर घर में रेडीमेड फूड आता और फ्रिज उससे अटा रहता। सिन्हा साहब ने एक दिन नेहा से कहा- ‘बेटा फ्रिज में इतना क्यों फ्रोजन फूड भर देते हो ? कई बार तो खराब भी हुआ है, तुमने फेंका भी है। एक-दो दिन में तो जाना होता ही है, लिमिट में लाओ। ये जो रायता-बूंदी है, उसमें पुराने तेल की स्मेल आ रही है। कब का है बेटा ?’ 
नेहा तो कुछ नहीं बोली, नीरज बोला- ‘देखिये पापाजी, हम तो ऐसा ही खाते हैं। हमें बासी का, नये-पुराने का पता नहीं चलता।’ 
सिन्हा साहब को बहुत बुरा लगा- ‘देखो नीरज, इस तरह की बात क्यूं करते हो ? जब मैं चुप रहता हूँ, तब भी तुम्हें प्रॉब्लम... और कुछ कहता हूँ तब भी प्रॉब्लम...। क्या पता किसी को कब क्या बुरा लग जाय, इसलिये मैं चुप रहता हूँ। तब भी तुम्हारी शिकायत और मेरे बोलने पर भी तुम्हारी शिकायत।’ फिर सॉरी बोलकर सिन्हा साहब वहां से उठ गये। 
अब इन सब बातों को लेकर बेटी-दामाद में गर्मागर्म बहस होती। एक महीना गुजरा, मगर सिन्हा साहब ने बोझ तले गुजारा। यह महीना भी साल जैसा लग रहा था। उसी रात....रात भर सोचते रहे। नींद नहीं आई। अंत में निश्चय किया कि अब चले जाना चाहिये। टिकट तो दो महीने की है। चेंज कराने की बजाय एक महीना यू.एस.ए. का टूर कर लेता हूँ, और फिर वहीं से फ्लाइट लेके चला जाऊंगा। यहां अब रहना नहीं चाहिये। बेटी अपनी है, मगर दामाद तो पराया है। ...और फिर मेरे कारण इन लोगों में आये दिन झगड़े होते रहते है। साथ ही ग्रीन कार्ड का ख्याल भी झटक दिया। फिर खुद से ही बोले- अरे भाई, इतना लम्बा-चौड़ा और सुंदर अपना भारत है, भारत-भ्रमण करेंगे। ये सारे पैसे कब काम आयेंग... बेचारे चन्द्र को भी साथ ले लेना। और इन्हीं ख्यालों से गुजरते- गुजरते जाने कब नींद आ गई। सुबह उठने पर सारे बादल छट चुके थे। असमंजस भी खत्म हो गया। 
उधर नीरज परेशान था कि ग्रीनकार्ड के बाद तो और मुसीबत हो जायेगी। मुझे नेहा को मना करना पड़ेगा। आखिर उसने अपना मंतव्य नेहा को बता दिया। नेहा बिफर पड़ी- ‘तो ठीक है, अपने माँ-बाप के बारे में आगे से मुझसे जरा भी बात नहीं करना। अगर मेरे पापा की तुम्हें परेशानी है, तो तुम्हारे माँ बाप की परेशानी मुझे भी है।’ 
नेहा नीरज में जंग चल रही थी कि सिन्हा साहब बाहर आये। उनके बॅडरूम से आती आवाजों से हैरान हो गये। वे तो पहले ही निर्णय ले चुके थे, फिर भी... पर इनको भी कहां पता है, मैंने बताया थोड़े ही ना है! 
थोड़ी देर में किचिन में गये और सबके लिये चाय बनाई। फिर नेहा नीरज को आवाज दी। सबने मिलकर चाय पी। चाय के दौरान सिन्हा साहब ने कहा- ‘मैं दो महीने के लिये आया था। एक महीना तुम लोगों के साथ रह लिया, और अब एक महीने का यू.एस.ए. टूर कर लेता हूँ। मैंने बुकिंग वगैरह कर ली है... बस परसों जाऊंगा। इस तरह प्लान किया है कि आकर एयरपोर्ट से डायरेक्ट ही फ्लाइट ले लूंगा!’ 
‘क्या पापा, आपने पूछा भी नहीं... और इस तरह... फिर आपके ग्रीनकार्ड के लिये भी तो अप्लाई करना है।’ 
‘नहीं बेटा, जिन्दगी बची ही कितनी है! जितने साल है, अपना देश घूमूंगा। समय रहा तो फिर अन्य देश...।’ 
नीरज के चेहरे की तल्खी जाने कहां चली गई। खुश-खुश बोला- ‘दिस इज नॉट फेयर पापाजी! आपने अकेले ही टूर बना लिया। कहते तो हम भी चलते।’ 
‘तो अब कौन सी देर हुई है। तुम लोगों की बुकिंग भी कर दूं ?’ 
‘नहीं-नहीं अब तो फिर कभी... मेरा हॉस्पीटल का इन दिनों वर्कलोड ज्यादा है।’ 
नेहा भी जानती थी और सिन्हा साहब भी कि यह सब दिखावा था।  ...कहीं नेहा ने भी हल्का महसूस किया। 
‘लेकिन पापा, यहां आकर दो दिन रुककर जाइयेगा।’ 
‘नहीं प्रिंसेस सब हो गया है, अब क्या हो जायेगा दो दिन में। महीना भर तो तुम लोगों के साथ रह लिया। जिन्दा रहा तो फिर कभी...।’
‘पापा प्लीज!’ कहते हुए नेहा को रोना आ गया। 
सिन्हा साहब भी खुद को रोक नहीं पाये। बेटी को बाहों में भर प्यार की बरसात कर रहे थे। संयत होने के बाद नीरज से बोले- ‘नीरज, यह पगली समझती नहीं ना कि बेटी के घर बाप शोभा नहीं देता! लेकिन मैं तो इस तथ्य को समझता हूँ ना! खैर, अपना और नेहा का ख्याल रखना। बच्चियों को खूब पढ़ाना, उन्हें अपने पांव पर खड़ा करना। बाप बेटी के बीच की फीलिंग तुम तब समझोगे, जब मेरी एज तक पहुंच जाओगे। और एक गुजारिश है... साल, दो साल में तुम लोग चक्कर लगाया करो। बच्चों को भी अपने देश का अहसास होगा। एक बात कहूँ- उम्र के इस पड़ाव पर आकर तो मेरे जैसे लोग अपनी धरती पर ही भले! जहां का जर्रा-जर्रा जाना-पहचाना है।’ 
‘...पापा क्या आप फिर कभी आयेंगे ही नहीं ?’ 
‘क्यों... क्यों नहीं आऊंगा ? जरूर आऊंगा।’

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‘अरे भैयाजी आप आ गये। अब जाकर हमारी जान में जान आई। आपके बिना हमें तो जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था।’ 
‘चलो, अब तो आ गया हूँ... खुश!’ 
‘वहां सब कैसे हैं ? बिटिया को मिठाई लेकर दी ?’ 
‘हाँ दी ना! देख तेरे लिये तेरी बिटिया ने गर्म जैकेट भेजा है, सर्दियों के लिये।’ 
जैकेट देखकर चंदू फूला नहीं समा रहा था। पर सच तो यह न उन्होंने उसके पैसे नेहा को दिये, न ही यह जैकेट नेहा ने दिया था।
यहां जैसे खुले में सांस ले रहे हो। वहां इतना खुला, फिर भी घुटन... जगह नहीं! महत्वपूर्ण हैं रिश्ते और उन्हें निभाने की कला। जिसे रिश्ते निभाना आ गया, उसे जीना आ गया... और जेहन में चंदू उतर आया।  
 

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